ब्रह्मचर्य आश्रम पूर्ण करने के अनन्तर जो स्नातक गृहस्थ होता है उसको उपकुर्वाण कहते हैं। स्नातक दो प्रकार के होते हैं-- (1) उपकुर्वाण और (2) नैष्ठिक। अधिकांश स्नातक उपकुर्वाण होते हैं जो आचार्य की अनुज्ञा लेकर गार्हस्थ्य आश्रम में प्रवेश करते हैं। उपकुर्वाण का अर्थ 'कर्मनिष्ठ'। निष्ठक का अर्थ है 'ज्ञाननिष्ठ'। कुछ स्नातक ऐसे होते थे जो गार्हस्थ्य में नहीं आना चाहते थे। वे गुरुकुल में ही आजीवन ब्रह्मचारी रहकर ज्ञानार्जन करते थे।
उपकूपजलाशय
कुँए के पास बनाया गया जलाशय। कुँए के पास पशुओं के पीने के लिए पत्थर आदि के द्वारा बाँधा गया पानी रखने का स्थान। यह पूर्त कर्म माना जाता है। इसके बनवाने से अदृष्ट पुण्य होता है।
उपक्षेपणधर्म
उपक्षेपण रूप धर्म। शूद्र का अन्न, जिसे ब्राह्मण के घर पकाने के लिए दिया गया हो, उपक्षेपण कहलाता है।
उपग्रन्थसूत्र
सामवेदीय सूत्रग्रन्थों में से एक सूत्रग्रन्थ। ऋग्वेदीय अनुक्रमणिकाकार षद्गुरुशिष्य ने लिखा है कि 'उपग्रन्थसूत्र' कात्यायन द्वारा निर्मित हुआ है।
उपग्रहण
उपाकरण का पर्याय। संस्कारपूर्वक गुरु से वेदों का ग्रहण करना उपग्रहण कहलाता है। श्रावणी पूर्णिमा को यह कृत्य किया जाता है। दे० 'उपाकर्म'।
उपज्ञा
सर्वप्रथम उत्पन्न ज्ञान, उपदेश के बिना हृदय में स्वतः उद्भूत प्रथम ज्ञान। जैसे वाल्मीकि को श्लोक निर्माण करने का ज्ञान प्राप्त हो गया था :
[इसके पश्चात् वाल्मीकि ने रामायण का स्वतः ज्ञान प्राप्त किया।]
उपतन्त्र
तन्त्रशास्त्र शिवप्रणीत कहा जाता है। ऐसे तन्त्र संख्या में सौ से भी अधिक हैं। वाराही तन्त्र से यह भी पता चलता है कि जैमिनि, कपिल, नारद, गंगा, पुलस्त्य, भृगु, शुक्र, बृहस्पति आदि ऋषियों ने भी कई उपतन्त्र रचे हैं जिनकी गिनती नहीं हो सकती। (दे० आगम)
उपदेवता
जो देवता की समानता को प्राप्त हो, यक्ष, भूत आदि। उपदेवता दस हैं, जैसा कि अमरकोश में बताया गया है:
[(1) विद्याधर, (2) अप्सरा, (3) यक्ष, (4) राक्षस, (5) गन्धर्व, (6) किन्नर, (7) पिशाच, (8) गुह्यक, (9) सिद्ध और (10) भूत। ये देवयोनियाँ हैं।]
उपदेश
मन्त्र आदि का शिक्षण या कथन। उसका पर्याय है दीक्षा। यथा :
सूर्यचन्द्रग्रहे तीर्थे सिद्धक्षेत्रे शिवालये। मन्त्रमात्रप्रकथनमुपदेशः स उच्यते।। (रामार्चनचन्द्रिका)
[चन्द्र-सूर्यग्रहण, तीर्थ, सिद्धक्षेत्र, शिवालय में मन्त्र कहने को उपदेश कहते हैं।] हितकथन को भी उपदेश कहा जाता है। हितोपदेश के विग्रह खण्ड में कहा है :
उपदेशो हि मूर्खाणां प्रकोपाय न शान्तये।'
[मूर्खों को हितकर वचन से क्रोध ही आता है, शान्ति नहीं।]
शिक्षण के अर्थ में भी यह शब्द प्रयुक्त होता है, मनु (8.272) ने इसका प्रयोग इसी अर्थ में किया है।
हिन्दू संस्कृति में मौखिक उपदेश द्वारा भारी जनसमूह के सामने प्रचार करने की प्रथा नहीं थी। यहाँ के सभी आचार्यों ने आचरण अथवा चरित्र के ऊपर बड़ा जोर दिया है। समाज का प्रकृत सुधार चरित्र के सुधार में ही निहित है। कोरे विचार के प्रचार से आचार संगठित नहीं होता। इसलिए आचार का आदर्श स्थापित करने वाले शिक्षक 'आचार्य' कहलाते थे। उपदेशक उनका नाम न था। जहाँ तक पता चलता है, भारी जनसमूह के सामने मौखिक व्याख्यान द्वारा विचारों के प्रचार करने की पद्धति की नींव सर्वप्रथम महात्मा गौतम बुद्ध और उनके अनुयायियों ने डाली। तब से इस रूप में धर्म के प्रचार की रीति चल पड़ी।
उपदेशरत्नमाला
श्रीवैष्णव सम्प्रदाय का एक प्रसिद्ध ग्रन्थ, जो तमिल भाषा में लिखा गया है। इसके रचयिता गोविन्दाचार्य का जन्म पन्द्रहवीं शताब्दी के आरम्भ में माना जाता है।