न्यायदर्शन के आचार्यों में उदयन का स्थान बड़ा ही ऊँचा है। इनके द्वारा विरचित 'कुसुमाञ्जलि' में ईश्वर की सत्ता को भली भाँति प्रमाणित किया गया है। यह ग्रन्थ दूसरे ईश्वरवादी दार्शनिकों को भी प्रिय है। उदयन ने इसमें भास्कर (भास्कराचार्य) पर आक्षेप किया है, जो वेदान्त के आचार्य थे और जिन्होंने अपने भाष्य (भास्करभाष्य) में शाङ्कर मत का खण्डन किया है। उदयनाचार्य ने 'न्यायवार्तिकतात्पर्यपरिशुद्धि' की भी रचना की है। यह ग्रन्थ वाचस्पति की टीका का ही स्पष्टीकरण है।
कहते हैं कि आचार्य उदयन जब जगन्नाथजी के दर्शन करने गये उस समय मन्दिर के पट बन्द थे। इससे आचार्य ने व्यंग्यवचनपूर्वक उनकी इस प्रकार स्तुति की :
[जगत् के नाथ (ईश्वर) होने से मत्त होकर आप मेरा तिरस्कार कर छिप गये हैं। किन्तु बौद्धों (नास्तिकों) का सामना होने पर आपकी सत्ता मेरे तर्कों से ही सिद्ध हो सकती है।]
उदसेविका
यह उत्सव ठीक उसी प्रकार मनाया जाता है जैसे भूतमातृ उत्सव होता है। यह एक शाक्त तान्त्रिक प्रक्रिया है। इन्द्रध्वजोत्सव के अवसर पर ध्वज को उतार लेने के पश्चात् इसका आचरण किया जाना चाहिए। यह भाद्रपद शुक्ल पक्ष त्रयोदशी को मनाया जाता था। इसकी समानता कुछ अंशों में रोम की रहस्यात्मक 'बैकानेलिया' (होली जैसा रागात्मक चेष्टाओं) से की जा सकती है। स्कन्द पुराण में थोड़ी भिन्नता के साथ इस व्रत का वर्णन किया गया है। इस विषय में मतभेद है कि उत्सव कब और कहाँ आयोजित किया जाय। प्रायः यह पूर्णिमान्त में होता था। अब इसका प्रचार प्रायः बन्द है।
उदासी
सिक्खों के मुख्य दो सम्प्रदाय हैं : (1) सहिजधारी और (2) सिंह। सहिजधारियों एवं सिंहों के भी कई उपसम्प्रदाय हैं। उदासी (संन्यासमार्गी) सहिजधारी शाखा के हैं। इस मत (उदासीन) के प्रवर्तक नानक के पुत्र श्रीचन्द्र थे। इस मत का प्रारम्भ लगभग 1439 ई० में हुआ। श्रीचन्द्र ने नानक के मत को कुछ व्यापक रूप देकर यह नया मत चलाया, जो सनातनी हिन्दुओं के निकट है।
उद्गीथ
ओंकारसंपुटित सामगान की विशेष रीति : 'ओमित्येतदक्षरमुद्गीथमुपासीत।' (छान्दोग्य उ०) अस्मिन्नगस्त्यप्रमुखा प्रदेशे महान्त उद्गीथविदो वसन्ति। (उत्तर चरित)
उद्गीता आगम
आगमों का प्रचलन शैव सम्प्रदाय के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण साहित्यिक घटना है। परम्परा के अनुसार 28 आगम हैं, जिन्हें शैविक एवं रौद्रिक दो वर्गों में बाँटा गया है। 'उद्गीता' अथवा 'प्रोद्गीता आगम' रौद्रिक आगम है।
उद्योतकर
न्यायदर्शन के विख्यात व्याख्याता। गौतम ऋषि के न्यायसूत्रों पर वात्स्यायन का भाष्य है। इस भाष्य पर उद्योतकर ने वार्तिक लिखा है। वार्तिक की व्याख्या वाचस्पति मिश्र ने 'न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका' के नाम से लिखी है। इस टीका की भी टीका उदयनाचार्यकृत 'तात्पर्यपरिशुद्धि' है। वासवदत्ताकार सुबन्धु ने मल्लनाग, न्यायस्थिति, धर्मकीर्ति और उद्योतकर इन चार नैयायिकों का उल्लेख करते हुए इन्हें ईसा की छठी शताब्दी में उत्पन्न बताया है। उद्योतकर ने प्रसिद्ध बौद्ध नैयायिक दिङ्नाग के 'प्रमाणसमुच्चय' नामक ग्रन्थ का खण्डन करके वात्स्यायन का मत स्थापित किया है। इनका एक नाम भरद्वाज भी है तथा इन्हें पाशुपताचार्य भी कहा गया है, जिससे इनके पाशुपत शैव होने का अनुमान लगाया जाता है।
उन्मत्तभैरवतन्त्र
तन्त्रशास्त्र के मौलिक ग्रन्थ शिवोक्त कहे गये हैं। 'तन्त्र' अतिगुह्य तत्त्व समझा जाता है। यथार्थतः दीक्षित और अभिषिक्त के सिवा किसी के सामने यह शास्त्र प्रकट नहीं करना चाहिए। 'आगमतत्त्व विलास' में 64 तन्त्रों की सूची दी हुई है, जिसमें 'उन्मत्त भैरव' चौतीसवाँ है। आगमतत्त्वविलास की सूची के सिवा अन्य बहुत से स्थानों पर इस तन्त्र का उल्लेख हुआ है।
उन्मनी
हठयोग की मुद्राओं में से एक मुद्रा। इसका शाब्दिक अर्थ है 'विरक्त अथवा उदासीन होना'। संसार से विरक्ति के लिए इस मुद्रा का अभ्यास किया जाता है। इसमें दृष्टि को नासाग्र पर केन्द्रित करते हैं और भृकुट (भौंह) का ऊपर की ओर प्रक्षेप करते हैं। गोरख, कबीर आदि योगमार्गी सन्तों ने साधना के लिए इस मुद्रा को बहुत उपयोगी माना है। 'गोरखबानी' में निम्नांकित वचन पाये जाते हैं :
कबीर ने भी कही है (कबीरसाखीसंग्रह) : हँसै न बोलै उन्मनी, चंचल मेल्या भार। कह कबीर अन्तर बिंधा, सतगुर का हथियार।।
उन्मैविलक्कम्
शैव सिद्धान्त का एक प्रसिद्ध ग्रन्थ। तमिल शैवों मे मेयकण्ड देव की प्रचुर प्रसिद्धि है। इन्होंने तेरहवी शताब्दी के आरम्भ में उत्तर भारत में रचे गये बारह संस्कृत सूत्रों का तमिल पद्य में अनुवाद किया। ये संमान्य आचार्य भी थे और इनके अनेक शिष्य थे जिनमें से एक शिष्य मान वाचकम कण्डदान की प्रसिद्धि 'उन्मैविलक्कम्' नामक भाष्य के कारण बहुत अधिक है। यह रचना 54 पद्यों मे शैव सिद्धान्त को प्रश्नोत्तर के रूप में प्रस्तुत करती है।
उपक्रमपराक्रम
अप्पय दीक्षित रचित पूर्वमीमांसादर्शन का एक ग्रन्थ। उपक्रम एवं उपसंहारादि षड्विध लिङ्गों से शास्त्र का निर्णय किया जाता है। इस ग्रन्थ में यह दिखलाया गया है कि उपक्रम ही सबसे अधिक प्रबल है और ग्रन्थ का प्रतिपाद्य सिद्धान्त इसी से स्पष्ट हो जाता है।