विवाह, एक स्त्री को पत्नी बनाकर स्वीकार करना। यह आठ प्रकार का होता है (मनु० 3.21) : (1) वर को बुलाकर शक्ति के अनुसार कन्या को अलंकृत करके जब दिया जाता है, उसे 'ब्राह्म विवाह' कहते हैं। (2) जहाँ यज्ञ में स्थित ऋत्विक् वर को कन्या दी जाती है, उसे 'दैव विवाह' कहते हैं। (3) जहाँ वर से दो बैल लेकर उसी के साथ कन्या का विवाह कर दिया जाता है उसे 'आर्ष' विवाह कहते हैं। (4) जहाँ "इसके साथ धर्म का आचरण करो" ऐसा नियम करके कन्यादान किया जाता है उसे 'प्राजापत्य' विवाह कहते हैं। (5) जहाँ धन लेकर कन्यादान किया जाता है वह 'आसुर विवाह' कहलाता है। (6) जहाँ कन्या औऱ वर का परस्पर प्रेम हो जाने के कारण ''तुम मेरी पत्नी हो", "तुम मेरे पति हो" ऐसा निश्चय कर लिया जाता है वह 'गान्धर्व विवाह' कहलाता है। (7) जहाँ पर बलपूर्वक कन्या का अपहरण कर लिया जाता है उसे 'राक्षस विवाह' कहते हैं। (8) जहाँ सोयी हुई, मत्त अथवा प्रमत्त कन्या के साथ निर्जन में बलात्कार किया जाता है, वह 'पैशाच विवाह' कहलाता है। विवाह का शाब्दिक अर्थ है 'उठाकर ले जाना'। क्योंकि विवाह के अन्तर्गत कन्या को उसके पिता के घर से पतिगृह को उठा ले जाते हैं, इसलिए इस क्रिया को 'उद्वाह' कहा जाता है। विशेष विवरण के लिए दे० 'विवाह'।
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उद्दालकव्रत
यह व्रत 'पतितसावित्रीक' (उपनयन संस्कारहीन) लोगों के लिए है। ऐसा बतलाया गया है कि उष्ण दुग्ध तथा 'आमिक्षा' पर ही व्रती को दो मास तक निर्भर रहना चाहिए। आठ दिन तक दही पर तथा तीन दिन घी पर जीवन-यापन करना चाहिए। अन्तिम दिन पूर्ण उपवास का विधान है।
उद्दालक आरुणि
अरुण का पुत्र उद्दालक आरुणि वैदिक काल के अत्यन्त प्रसिद्ध आचार्यों में से था। वह शतपथ ब्राह्मण (11.4.1.2) में कुरुपञ्चाल का ब्राह्मण कहा गया है। वह अपने पिता अरुण तथा मद्रदेशीय पतञ्चल काप्य का भी शिष्य (बृहदा० उप०) तथा प्रसिद्ध याज्ञवल्क्य ऋषि का गुरु था (बृहदा० उप०)। तैत्तिरीय संहिता में अरुण का नाम तो आता है, आरुणि का नहीं। उद्दालक का वास्तविक पुत्र श्वेतकेतु था, जिसका समर्थन आपस्तम्ब ने अपने समय के अवर व्यक्ति के रूप में किया है।
उदककर्म
मृतक के लिए जलदान की क्रिया। यह कई प्रकार से सम्पन्न होती है। एक मत से सभी सम्बन्धी (7 वीं या 10 वीं पीढ़ी तक) जल में प्रवेश करते हैं। वे केवल एक ही वस्त्र पहने रहते हैं और यज्ञसूत्र दाहिने कन्धे पर लटकता रहता है। वे अपना मुख दक्षिण की ओर करते हैं, मृतक का नाम लेते हुए एक-एक अञ्जलि पानी देते हैं। फिर पानी से बाहर आकर अपने भीगे कपड़े निचोड़ते हैं।
स्नान के बाद सम्बधी एक साफ घास के मैदान में बैठते हैं जहाँ उनका मनबहलाव कथाओं अथवा यम-गीत द्वारा किया जाता है। घर के द्वार पर वे पिचुमण्ड की पती चबाते हैं, मुख धोते हैं, पानी, अग्नि तथा गोबर आदि का स्पर्श करते हैं, एक पत्थर पर चढ़ते हैं और तब घर में प्रवेश करते हैं।
उदकपरीक्षा
जल के द्वारा अपराध के सत्यासत्य की परीक्षा। दिव्य प्रमाणों में यह आया है। वाद उत्पन्न होने पर चार प्रमाणों के आधार पर न्याय किया जाता है। वे हैं-- (1) लिखित (2) भुक्ति, (3) साक्षी और (4) दिव्य। उदकपरीक्षा दिव्य का ही एक प्रकार है। जल के प्रयोग से यह परीक्षा होती है, क्योंकि हिन्दू धर्म में जल को बहुत पवित्र माना जाता है और यह विश्वास किया जाता है कि जलस्पर्श करते समय कोई झूठ नहीं बोलेगा। आजकल प्रायः गङ्गाजल इसके लिए प्रयुक्त होता है।
प्राचीन रीति में दोषी व्यक्ति को निर्धारित समय तक जल में डुबकी लगानी होती थी। समय से पूर्व ऊपर उठ आने वाला व्यक्ति अपराधी मान लिया जाता था।
उदकसप्तमी
इसमें सप्तमी को एक अञ्जलि पानी पीकर व्रत रखने का विधान है। इससे आनन्द की प्राप्ति होती है। दे० कृत्यकल्पतरु का व्रतकाण्ड, 184, हेमाद्रि, व्रतखण्ड 726।
उद्गाता
सामगान करने वाला याजक 'उद्गाता' कहलाता है। हरिवंश में कथन है :
[प्रजापति ने ब्रह्मा को तथा सामगान करने वाले उद्गाता को अपने मुख से और होता तथा अध्वर्यु को बाहुओं से उत्पन्न किया।]
वैदिक यज्ञों, विशेष कर सोमयज्ञ में, सामवेद के मन्त्रों का गान होता था। गाने वाले पुरोहित को 'उद्गाता' कहते थे। उद्गाता को दो प्रकार की शिक्षा लेनी पड़ती थी। पहली शिक्षा थी--शुद्ध एवं शीघ्र मन्त्रों का गायन, तथा उन सभी स्वरों की जानकारी जो विशेष कर सोमयज्ञों में प्रयुक्त होते थे। दूसरे शिक्षा से इस बात का स्मरण रखना होता था कि किस सोमयज्ञ में कौन सा सूक्त या मन्त्र गान करना पड़ेगा।
उदपान
जिसमें से जल पिया जाता है। अमरकोश के अनुसार इसका अर्थ कूप है। अन्यत्र भी कहा है :
निर्जलेषु च देशेषु खनयामासुरुत्तमान्। उदपानान् बहुविधान् वेदिकापरिमण्डितान्।।,
[जल रहित प्रदेशों में अनेक प्रकार की वेदिकाओं से सुसज्जित उत्तम कुएँ खोदे गये।]
यह 'इष्टापूर्त' नामक पुण्यकर्मों में 'पूर्त' के अन्तर्गत विशेष कृत्य है। इसको खुदवाने से बड़ा भारी पुण्य होता है।
उदमय आतरेय
ऐतरेय ब्राह्मण (8.22) में उदमय आतरेय को अङ्ग वैरोचन का पारिवारिक पुरोहित कहा गया है।
उदयगिरि-खण्डगिरि
भुवनेश्वर से सात मील पश्चिम उदयगिरि तथा खण्डगिरि नामक पहाड़ियाँ हैं। यह प्रधानतः जैन तीर्थ है, परन्तु सभी हिन्दू इसको पवित्र मानते हैं। यहाँ कलिङ्ग देश के 500 मुनि मोक्ष प्राप्त कर गये हैं। दोनों पहाडियाँ समीप हैं। उदयगिरि का नाम कुमारगिरि है। महावीर स्वामी यहाँ पधारे थे। इसमें अनेक गुफाएँ हैं। उनमें अनेक मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। खण्डगिरि के शिखर पर एक जैन मन्दिर है। दो मन्दिर और हैं। पास ही आकाशगङ्गा नामक कुण्ड है। आगे गुप्तगङ्गा, श्यामकुण्ड तथा राधाकुण्ड हैं। एक गुफा में 24 तीर्थकरों की प्रतिमाएँ उत्कीर्ण हैं। उदयगिरि तथा खण्डगिरि की प्राचीन गुफाओं तथा वहाँ को शिल्प की कला को देखने के लिए दूर-दूर से लोग आते हैं।