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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

उत्तर मीमांसा
छः हिन्दू चिन्तन प्रणालियाँ प्रचलित हैं। वे 'दर्शन' कहलाती हैं, क्योंकि वे विश्व को देखने और समझने की दृष्टि या विचार प्रस्तुत करती हैं। उनके तीन युग्म हैं, क्योंकि प्रत्येक युग्म में कुछ विचारों का साम्य परिलक्षित होता है। पहला युग्म मीमांसा कहलाता है, जिसका सम्बन्ध वेदों से है। मीमांसा का अर्थ है खोज, छानबीन अथवा अनुसन्धान। मीमांसायुग्म का पूर्व भाग, जिसे पूर्व मीमांसा कहते हैं, वेद के याज्ञिक रूप (कर्मकाण्ड) के विवेचन का शास्त्र है। दूसरा भाग, जिसे उत्तर मीमांसा या वेदान्त भी कहते हैं, उपनिषदों से सम्बन्धित है तथा उनके ही दार्शनिक तत्वों की छानबीन करता है। ये दोनों सच्चे अर्थ में सम्पूर्ण हिन्दू दार्शनिक एवं धार्मिक प्रणाली का रूप खड़ा करते हैं।
उत्तर मीमांसा का सम्बन्ध भारत के सम्पूर्ण दार्शनिक इतिहास से है। उत्तर मीमांसा के आधारभूत ग्रन्थ को 'वेदान्तसूत्र', 'ब्रह्मसूत्र' एवं 'शारीरकसूत्र' भी कहते हैं, क्योंकि इसका विषय परब्रह्म (आत्मा=ब्रह्म) है।
वेदान्तसूत्र' वादरायण के रचे कहे जाते हैं जो चार अध्यायों में विभक्त हैं। इस दर्शन का संक्षिप्त सार निम्नलिखित है :
ब्रह्म निराकार है, वह चेतन है, वह श्रुतियों का उद्गम है एवं सर्वज्ञ है तथा उसे केवल वेदों द्वारा जाना जा सकता है। वह सृष्टि का मौलिक एवं अन्तिम कारण है। उसकी कोई इच्छा नहीं है। एतदर्थ वह अकर्मण्य है, दृश्य जगत् उसकी लीला है। विश्व, जो ब्रह्म द्वारा समय समय पर उद्भत होता है उसका न आदि है न अन्त है। वेद भी अनन्त हैं, देवता हैं, जो वेदविहित यज्ञों द्वारा पोषण प्राप्त करते हैं।
जीव या व्यक्तिगत आत्मा आदि-अन्तहीन है, चेतना-युक्त है, सर्वव्यापी है। यह ब्रह्म का ही अंश है; यह स्वयं ब्रह्म है। इसका व्यक्तिगत रूप केवल एक झलक है। अनुभव द्वारा मनुष्य ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर सकता है। ब्रह्म केवल 'ज्ञानमय' है जो मनुष्य को मुक्ति दिलाने में समर्थ है। ब्रह्मचर्यपूर्वक ब्रह्म का चिन्तन, जैसा कि वेदों (उपनिषदों) में बताया गया है, सच्चे ज्ञान का मार्ग है। कर्म से कार्य का फल प्राप्त होता है और इसके लिए पुनर्जन्म होता है। ज्ञान से मुक्ति की प्राप्ति होती है। दे० 'ब्रह्मसूत्र'।

उत्तराडी साधु
दादूपंथी साधुओं के पाँच प्रकार हैं--(1) खालसा, (2) नागा, (3) उत्तराडी, (4) विरक्त और (5) खाकी। उत्तराडी साधुओं की मण्डली पञ्जाब में बनवारीदास ने बनायी थी। इनमें बहुत से विद्वान् साधु होते थे, जो अन्य साधुओं को पढ़ाते थे। कुछ वैद्य होते थे। दादूपंथी साधुओं की प्रथम तीन श्रेणियों के सदस्य जो व्यवसाय चाहें कर सकते हैं, किन्तु चौथी श्रेणी, अर्थात विरक्त न कोई पेशा कर सकते हैं, किन्तु चौथी श्रेणी, अर्थात् विरक्त न कोई पेशा कर सकते हैं न द्रव्य को छू सकते हैं। खाकी साधु-भभूत (भस्म) लपेटे रहते हैं और भाँति-भाँति की तपस्या करते हैं। तीनों श्रेणियों के साधु ब्रह्मचारी होते हैं और गृहस्थ लोक 'सेवक' कहलाते हैं।

उत्तरायण
भूमध्य रेखा के उत्तर तथा दक्षिण में सूर्य की स्थिति के क्रम से दो अयन --उत्तरायण और दक्षिणायन होते हैं। धार्मिक विश्वासों तथा क्रियाओं में इनका बहुत महत्त्व है। ऋतुओं का परिवर्तन भी इन्हीं के कारण होता है। प्रत्येक अयन (उत्तरायण या दक्षिणायन) के प्रारम्भ में दान की महत्ता प्रतिपादित की गयी है। अयन के प्रारम्भ मे किया गया दान करोड़ों पुण्यों को प्रदान करता है, जबकि अमावस्या के दान केवल एक सौ पुण्य प्रदान करते हैं। दे० भोज का राजमार्ताण्ड, वर्षकृत्यकौमुदी, पृ० 214।

उत्तरार्चिक
यह चार सौ सूक्तों का एक सामवेदी संग्रह है, जिसमें से प्रत्येक में लगभग तीन-तीन ऋचाएँ है। सब मिलाकर इसमें लगभग 1225 छन्द हैं। उत्तरार्चिक स्तुतिग्रन्थ है। 'आर्चिक' शब्द का अर्थ ही है ऋचाओं का 'स्तुतिग्रन्थ'। आर्चिक के छन्द विभिन्न वर्गों में विभिन्न देवों के अनुसार बँटे हुए हैं। फिर ये प्रत्येक छन्द-समूह दस-दस की संख्या में बँटे होते हैं। फिर सोमयज्ञ में व्यवहृत होने वाले सूक्त उस गानक्रम में व्यवस्थित होते हैं, जिस क्रम में उद्गाता छात्रों को ये सिखलाये जाते हैं।

उत्तरार्चिक (राणायनीय)
सामवेद में जो ऋचाएँ आयी हैं, उन्हें 'आर्चिक' कहा गया है। साम-आर्चिक ग्रन्थ अध्यापकभेद, देशभेद, कालभेद, पाठ्यक्रमभेद और उच्चारण आदि भेद से अनेक शाखाओं में विभक्त हैं। सब शाखाओं में मन्त्र एक जैसे ही हैं, उनकी संख्या में व्यतिक्रम है। प्रत्येक शाखा के श्रौत एवं गृह्यसूत्र और प्रातिशाख्य भिन्न-भिन्न हैं। सामवेद की शाखाएँ कही तो जाती हैं एक सहस्र, पर प्रचलित हैं केवल तेरह। कुछ लोगों के मत से वास्तव में तेरह ही शाखाएँ हैं, क्योंकि जो "सहस्रतमा गीत्युपायाः" के प्रमाण से सहस्र शाखाएँ बतायी जाती हैं, उसका अर्थ "हजारों तरह से गाने के उपाय" है। उन तेरह शाखाओं में से भी आज केवल दो प्रचलित हैं। उत्तर भारत में 'कौथुमी शाखा' और दक्षिण में 'राणायनीय शाखा' प्रचलित हैं। उत्तरार्चिक में एक छन्द की, एक स्वर की और एक तात्पर्य की तीन-तीन ऋचाओं को लेकर एक-एक सूक्त कर दिया गया है। इस प्रकार के सूक्तों का सामवेदीय संग्रह जो दक्षिण में प्रचलित है 'उत्तरार्चिक राणायनीय संहिता' के नाम से पुकारा जाता है।
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उत्पल
उत्पल अथवा उत्पलाचार्य दशम शताब्दी के एक शैव आचार्य थे, जिन्होंने 'ईश्वरप्रत्यभिज्ञाकारिका' की रचना की तथा इस पर एक भाष्य लिखा। यह ग्रन्थ सोमानन्दकृत 'शिवदृष्टि' की शिक्षाओं का सारसंग्रह है।

उत्पल वैष्णव
स्पन्दप्रदीपिका' के रचयिता उत्पल वैष्णव का जीवनकाल दसवीं शती का उत्तरार्ध था। 'स्पन्द प्रदीपिका' कल्लटरचित 'स्पन्दकारिका' की व्याख्या है।

उत्पात
प्राणियों के शुभ-अशुभ का सूचक महाभूत-विकार, भूकम्प आदि। इसका शाब्दिक अर्थ है 'जो अकस्मात् आता है।' इसके पर्याय हैं--(1) अजन्य और (2) उपसर्ग। वह तीन प्रकार का है--(1) दिव्य, जैसे बिना पर्व में चन्द्र एवं सूर्य का ग्रहण आदि, (2) अन्तरीक्ष्य, जैसे उल्कापात औऱ मेघगर्जन आदि और (3) भौम, जैसे भूकम्प, तूफान आदि। इन उत्पातों की शान्ति के लिए बहुत सी धार्मिक क्रियाओं का विधान किया गया है।

उत्सर्जन
छोड़ देना, त्याग देना। इसके पर्याय हैं (1) दान, (2) विसर्जन (3) विहापित, (4) विश्राणन, (5) वितरण, (6) स्पर्शन (7) प्रतिपादन, (8) प्रादेशन (9) (10) अपवर्जन। इसका अर्थ कर्त्तव्य क्रियाविशेष को रोक देना भी है, जैसा मनु का कथन है :
पुष्‍ये तु छन्दसां कुर्याद् बहिरुत्सर्जनं द्विजः। माघशुक्लस्य वा प्राप्ते पूर्वाह्णे प्रथमेऽहनि।।
[माघ शुक्लपक्ष के प्रथम दिन के पूर्व भाग में ब्राह्मण पुष्य नक्षत्र में वेदों का घर से बाहर विसर्जन करे।] इस प्रकार वैदिक अध्ययन-सत्र की समाप्ति का नाम उत्सर्जन है।

उत्सव
आनन्ददायक व्यापार। इसके पर्याय हैं --(1) क्षण, (2) उद्धव, (3) उद्धर्ष, (4) मह। मनुस्मृति (3.59) में कथन है :
तस्मादेताः सदा पूज्या भूषणाच्छादनाशनैः। भूतिकामैर्नरैर्नित्यं सत्कारेषूत्सवेषु च।।
[इसलिए सत्कार तथा उत्सवों में लक्ष्मी के इच्छुक मनुष्यों द्वारा भूषण, वस्त्र तथा भोजन के द्वारा स्त्रियों का सम्मान करना चाहिए।]
व्रत-ग्रन्थों तथा पुराणों में असंख्य उत्‍सवों का उल्लेख है। उनमें होलिका, दुर्गोत्सव विशेष प्रसिद्ध हैं, जिनका उल्लेख अन्यत्र किया गया है। 'उत्सव' शब्द ऋग्वेद (1.100.8 तथा 1.101.2) में मिलता है। इस शब्द की व्युत्पत्ति उत्पूर्वक 'सु' धातु से है, जिसका सामान्य अर्थ है "ऊपर उफन कर बहना" अर्थात् आनन्द का अतिरेक। उत्सव के दिन सामूहिक रूप से आनन्द उमड़ कर प्रवाहित होने लगता है। इसीलिए उत्‍सवों के दिन प्रसाधन, गान, भोजन, मिलन, दान-पुण्य आदि का प्राविधान है।
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