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Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

उपोषित
उपवास का ही एक पर्याय। मनु (5.155) ने कहा है :
नास्ति स्त्रीणां पृथग् यज्ञो न व्रतं नाप्युपोषितम्।
[स्त्रियों के लिए यज्ञ, व्रत, उपवास, ये अलग नहीं हैं।]

उब्बटाचार्य
यजुर्वेद के प्रसिद्ध भाष्यकार निघण्टु के टीकाकार देवराज और भट्टभास्कर मिश्र ने अपने ग्रन्थों में माधवदेव, भवस्वामी, गुहदेव, श्रीनिवास और उब्बट आदि भाष्यकारों के नाम लिखे हैं। यह पता नहीं है कि उब्बट ने ऋक्संहिता का कोई भाष्य किया है या नहीं, परन्तु उब्बट का शुक्ल यजुर्वेद संहिता पर एक भाष्य पाया जाता है। इसके सिवा इन्होंने ऋक्प्रातिशाख्य और शुक्ल यजुर्वेदप्रातिशाख्य पर भी भाष्य लिखे हैं।

उभयद्वादशी
यह व्रत मार्गशीर्ष कृष्ण द्वादशी को प्रारम्भ होता है। इसके पश्चात् पौष शुक्ल से द्वादशी एक वर्षपर्यन्त कुल चौबीस द्वादशियों को इस व्रत का अनुष्ठान किया जाता है। इन तिथियों को विष्णु के चौबीस अवतारों (केशव, नारायण आदि) का पूजन किया जाता है। दे० हेमाद्रि व्रतखण्ड।

उभयनवमी
यह व्रत पौष शुक्ल नवमी को प्रारम्भ होता है। इसमें एक वर्ष पर्यन्त चामुण्डा का पूजन होता है। प्रत्येक मास में भिन्न भिन्न उपकरणों से देवी की प्रतिमा का निर्माण करके भिन्न भिन्न नामों से उनकी पूजा की जाती है। कतिपय दिवसों में महिष का मांस समर्पित करते हुए रात्रि में पूजन करने तथा प्रत्येक नवमी को कन्याओं को भोजन कराने का विधान है। दे० कृत्यकल्पतरु का व्रतकाण्ड, 274-282।

उभयसप्तमी
यह व्रत शुक्ल पक्ष की किसी सप्तमी में प्रारम्भ होता है। एक वर्षपर्यन्त प्रत्येक पक्ष में सूर्य देवता के पूजन का विधान है। एक मत के अनुसार यह व्रत माघ शुक्ल सप्तमी से प्रारम्भ होना चाहिए। एक वर्ष पर्यन्त प्रत्येक मास में सूर्य का भिन्न-भिन्न नामों से पूजन करने का विधान है। दे० भविष्योत्तर पुराण, 47.1.24

उभयैकादशी
यह व्रत मार्गशीर्ष की शुक्ल एकादशी से आरम्भ होता है। एक वर्षपर्यन्त प्रत्येक पक्ष में विष्णु का भिन्न भिन्न नामों (जैसे केशव, नारायण आदि) से पूजन होता है। दे० व्रतार्क, 233 ब-237 अ। गुर्जरों में इस व्रत का नाम केवल 'उभय' है।

उमा
शिव की पत्नी, पार्वती। उमा का शाब्दिक अर्थ है 'प्रकाश'। सर्वप्रथम केन उपनिषद् में उमा का उल्लेख हुआ है। यहाँ ब्रह्मा तथा दूसरे देवताओं की बीच माध्यम के रूप मे इनका आविर्भाव हुआ है। इस स्थिति में वाक् देवी से इनका अभेद जान पड़ता है।
उमा शब्द की व्युत्पत्ति कुमारसम्भव में इस प्रकार दी हुई है :
उमेति मात्रा तपसो निषिद्धा पश्चादुमाख्यांसुमुखी जगाम।
["उ","मा" यह कहकर माता (मेनका) ने उसे तपस्या से रोका। इसके अनन्तर उसका नाम ही उमा हो गया।]
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उमागुरु
पार्वती का पिता हिमालय। दक्ष प्रजापति के यज्ञ में शिव की निन्दा सुनने से योग के द्वारा शरीर त्यागने वाली सती हिमालय से मेनका के गर्भ में उत्‍पन्न हुई। इस कथानक का पुराणों में विस्तृत वर्णन है।

उमाचतुर्थी
माघ शुक्ल चतुर्थी को इस व्रत का आचरण होता है। इसमें उमा के पूजन का विधान है। पुरुष और विशेष रूप से स्त्रियाँ कुन्द के पुष्पों से भगवती उमा का पूजन करती तथा उस दिन व्रत भी रखती हैं।

उमानन्द नाथ
दक्षिणमार्गी शाक्तों में तीन आचार्यों का नाम उनकी देवीभक्ति की दृष्टि से बड़ा ही मह्त्त्वपूर्ण है। ये हैं नृसिंहानन्द नाथ, भास्करानन्द नाथ एवं उमानन्द नाथ, जो एक छोटी गुरुपरम्परा उपस्थित करते हैं। तीनों में सबसे अधिक प्रसिद्ध भास्करानन्द नाथ थे जिनके शिष्य उमानन्द नाथ हुए। उमानन्द नाथ ने 'परशुराम भार्गवसूत्र' पर एक व्यावहारिक भाष्य लिखा है।


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