संस्कारपूर्वक वेदों का ग्रहण। इसका अर्थ 'संस्कारपूर्वक पशुओं को मारना' भी है। आश्वलायन श्रौ० सू० (10.4) में कथन है :
उपाकरण कालेऽश्वमानीय।
[संस्कार के समय में घोड़े को (बलिदानार्थ) लाकर।]
उपाकृत
संस्कारित बलिपशु, यज्ञ में अभिमन्त्रित करके मारा गया पशु। धर्मशास्त्र में कथन है :
अनुपाकृतामांसानि देवान्नानि हवींषि च।'
[अनभिमंत्रित मांस, देव-अन्न तथा हविष् (अग्राह्य हैं)।]
उपागम
शैव आगमों में से प्रत्येक के कई उपागम हैं। आगम अट्ठाईस हैं और उपागमों की संख्या 198 है।
उपाग्रहण
उपाकरण, संस्कारपूर्वक गुरु से वेद ग्रहण (अमर-टीका में रायमुकुट)।
उपाङ्ग
वेदों के उपांगों में प्राचीन प्रमाणानुसार पहला उपाङ्ग इतिहास-पुराण है, दूसरा धर्मशास्त्र, तीसरा न्याय और चौथा मीमांसा। इनमें न्याय और मीमांसा की गिनती दर्शनों में है, इसलिए इनको अलग-अलग दो उपाङ्ग न मानकर एक उपाङ्ग 'दर्शन' के नाम से रखा गया और चौथे की पूर्ति तन्त्रशास्त्र से की गयी। मीमांसा और न्याय ये दोनों शास्त्र शिक्षा, व्याकरण और निरुक्त के आनुषङ्गिक (सहायक) हैं। धर्मशास्त्र श्रौतसूत्रों का आनुषङ्गिक है और पुराण ब्राह्मणभाग के ऐतिहासिक अंशों का पूरक है।
चौथा उपाङ्ग तन्त्र शिवोक्त है। प्रधानतः इसके तीन विभाग हैं-- आगम, यामल और तन्त्र। तन्त्रों में प्रायः उन्हीं विषयों का विस्तार है, जिनपर पुराण लिखे गये हैं। साथ ही साथ इनके अन्तर्गत गुह्यशास्त्र भी है जो दीक्षित और अभिषिक्त के सिवा और किसी को बताया नहीं जाता।
उपाङ्गललिताव्रत
यह आश्विन शुक्ल पञ्चमी को किया जाता है। इसमें ललितादेवी (पार्वती) की पूजा होती है। यह दक्षिण में अधिक प्रचलित है।
उपाध्याय
जिसके पास आकर अध्ययन किया जाता है। अध्यापक, वेदपाठक। मनु० (2.145) का कथन है :
एकदेशं तु वेदस्य वेदाङ्गान्यपि वा पुनः। योऽध्यापयति वृत्त्यर्थमुपाध्यायः स उच्यते।।
[वेद के एक देश अथवा अङ्ग को जो वृत्ति के लिए अध्ययन कराता है उसे उपाध्याय कहते हैं।] ऐसा भविष्य पुराण के दूसरे अध्याय में भी कहा है। चूँकि शुल्क ग्रहण करके जीविका के लिए उपाध्याय अध्यापन करते थे, इसलिए ब्राह्मणों में उनका स्थान ऊँचा नहीं था। कारण यह है कि ज्ञान विक्रय को भी वणिक्-वृत्ति माना गया है :
यस्यागमः केवलजीविकायै तं ज्ञानपण्यं वणिजं वदन्ति।
[जिसका आगम (शास्त्र-ज्ञान) केवल जीविका के लिए है, उसे (विद्वान लोग) ज्ञान की दुकान करने वाला वणिक् कहते हैं।]
उपाध्याया
महिला अध्यापिका। यह अपने अधिकार से 'उपाध्याया' होती है, उपाध्याय की पत्नी होने के कारण नहीं। उपाध्याय की पत्नी को 'उपाध्यायानी' कहते हैं।
उपाध्यायानी
उपाध्याय की पत्नी। महाभारत (1।9.96) में कथन है :
स एवमुक्त उपाध्यायेनोपाध्यायानीमपृच्छत्।'
[उपाध्याय से इस प्रकार कहे जाने पर उसने उपाध्यायानी से पूछा।]
गृहासक्त होने से इसको अध्यापन का अधिकार नहीं होता।
उपाधि
धर्मचिन्ता, धर्मपालनार्थ सावधानी, कुटुम्बव्यापृत, आरोप, छल, उपद्रव। रामायण (2.111.29) में कथन है :
उपाधिर्न मया कार्यो वनवासे जुगुप्सितः।
[वनवास में मैं छल, कपट नहीं करूँगा।] तर्कशास्त्र में इसका अर्थ है 'साध्यव्यापकत्व होने पर हेतु का अव्यापकत्व होना।' जैसे अग्नि धूमयुक्त है, यहाँ काष्ठ का गीला होना उपाधि है। इसका प्रयोजन व्यभिचार (लक्ष्य-अतीत) का अनुमान शुद्ध करना है।