logo
भारतवाणी
bharatavani  
logo
Knowledge through Indian Languages
Bharatavani

Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

उपलेखसूत्र
शौनक के ऋक्प्रातिशाख्य का परिशिष्ट रूप 'उल्लेखसूत्र' नाम का एक ग्रन्थ भी मिलता है। पहले विष्णुपुत्र ने इसका भाष्य रचा था, उसको देखकर उव्वटाचार्य ने एक विस्तृत भाष्य लिखा है।

उपवर्ष
आचार्य शङ्कर ने ब्रह्मसूत्र के भाष्य में कहीं-कहीं उपवर्ष नामक एक प्राचीन वृत्तिकार के मत का उल्लेख किया है। इस वृत्तिकार के मत का उल्लेख किया है। इस वृत्तिकार ने दोनों ही मीमांसा शास्त्रों पर वृत्तिग्रन्थ बनाये थे, ऐसा प्रतीत होता है। पण्डित लोग अनुमान करते हैं कि ये 'भगवान् उपवर्ष' वे ही हैं जिनका उल्लेख शबर भाष्य (मी. सू. 1.1.5) में स्पष्टतः किया गया है। शङ्कर कहते हैं (ब्र० सू० 3.3.5.3) कि उपवर्ष ने अपनी मीमांसा वृत्ति में कहीं-कहीं पर 'शारीरक सूत्र' पर लिखी गयी वृत्ति की बातों का उल्लेख किया है। ये उपवर्षाचार्य शबर स्वामी से पहले हुए होंगे, इसमें सन्देह नहीं है। परन्तु कृष्णदेवनिर्मित 'तन्त्रचूडामणि' ग्रन्थ में लिखा है कि शबर भाष्य के ऊपर उपवर्ष की एक वृत्ति थी। कृष्णदेव के वचन का कोई मूल्य है या नहीं यह कहना कठिन है। यदि उनका वचन प्रामाणिक माना जाय, तो इस उपवर्ष को प्राचीन उपवर्ष से भिन्न मानना पड़ेगा।
वेदान्तदेशिक (श्रीवैष्णव) ने अपनी तत्त्वटीका में बोधायनाचार्य का द्वितीय नाम उपवर्ष प्रतिपादित किया है। शबर स्वामी ने भी बोधायनाचार्य का उल्लेख उपवर्ष नाम से किया है।

उपवसथ
निवास स्थान, जहाँ पर आकर बसते हैं। शतपथ ब्राह्मण (11.1.7) में कथन है।
तेऽस्य विश्वेदेवा गृहानागच्छन्ति तेऽस्य गृहेषूपवसन्ति स उपवसथः।'
[विश्वेदेव इसके घर में आते हैं, वे उसके घर में रहते हैं, उसे उपवसथ कहते हैं।] याग का पूर्वदिन भी उपवसथ कहलाता है। इस दिन यम-नियम (उपवास आदि) के द्वारा यज्ञ की तैयारी की जाती है।

उपवास
एक धार्मिक व्रत, रात-दिन भोजन न करना। इसके पर्याय हैं उपवस्त, उपोषित, उपोषण, औपवस्त आदि। इसकी परिभाषा इस प्रकार की गयी है :
उपावृत्तस्य पापेभ्यो यस्तु वासो गुणैः सह। उपवासः स विज्ञेयः सर्वभोगविवर्जितः।।
[पाप से निवृत्त होकर गुणों के साथ रहने को उपवास कहते हैं, जिसमें सभी विषयों का उपभोग वर्जित है।]
इसका शाब्दिक अर्थ है (उप+वास) अपने आराध्य के समीप वास करना। इसमें भोजन-पान का त्याग सहायक होता है, अतः इसे उपवास कहते हैं।

उपवीत (यज्ञोपवीत)
एक यज्ञपरक धार्मिक प्रतीक, बायें कन्धे पर रखा हुआ यज्ञसूत्र यज्ञ, सूत्र मात्र। देवल ने कहा है :
यज्ञोपवीतकं कुर्यात् सूत्राणि नवतन्तवः।'
[यज्ञोपवीत-सूत्र को नौ परतों का बनाना चाहिए।]
यज्ञोपवीते द्वे धार्ये श्रौते स्मार्ते च कर्म्मणि। तृतीयमुत्तरीयार्थे वस्त्रालाभेऽति दिश्यते।।
[श्रौत और स्मार्त कर्मों में दो यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए। उत्तरीय वस्त्र के अभाव में तीन यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए।]
वर्णभेद से मनु (2.44) ने सूत्रभेद भी कहा है :
कार्पासमुपवीतं स्याद् विप्रस्योर्ध्ववृतं त्रिवृत्। शणसूत्रमयं राज्ञो वैश्यस्याविकसौत्रिकम्।।
[ब्राह्मण का यज्ञोपवीत कपास के सूत्र का, क्षत्रिय का शण के सूत्र का, और वैश्य का भेड़ के ऊन का होना चाहिए।]
आगे चलकर कपास के सूत्र का यज्ञोपवीत सभी वर्णों के लिए विहित हो गया। दे० 'यज्ञोपवीत'।

उपवेद
चरणव्यूह' में वेदों के चार उपवेद कहे गये हैं। ऋग्वेद का आयुर्वेद, यजुर्वेद का धनुर्वेद, सामवेद का गान्धर्ववेद और अथर्ववेद का अर्थशास्त्र। परन्तु सुश्रुत, भावप्रकाश तथा चरक के अनुसार आयुर्वेद अथर्ववेद का उपवेद है। यह मत सुसंगत जान पड़ता है, क्योंकि अथर्ववेद में आयुर्वेद के तत्त्व भरे पड़े हैं। परिणामस्वरूप अर्थशास्त्र एवं नीतिशास्त्र को ऋग्वेद का उपवेद मानना पड़ेगा।
उपवेदों का अध्ययन भी प्रत्येक वेद के साथ-साथ वेद के ज्ञान की पूर्णता के लिए आवश्यक है। चारों उपवेद चार विज्ञान हैं। अर्थशास्त्र में वार्ता अर्थात् लोकयात्र का सारा विज्ञान है और समाजशास्त्र के सङ्गठन और राष्ट्रनीति का कथन है। धनुर्वेद में सैन्यविज्ञान, युद्ध-क्रिया, व्यक्ति एवं समष्टि सबकी रक्षा के साधन और उनके प्रयोग की विधियाँ दी हुई हैं। गान्धर्ववेद में संगीत का विज्ञान है जो मन के उत्तम से उत्तम भावों को उद्दीप्त करने वाला और उसकी चञ्चलता को मिटाकर स्थिररूप से उसे परमात्मा के ध्यान में लगा देने वाला है। लोक में यह कला कामशास्त्र के अन्तर्गत है, परन्तु वेद में मोक्ष के उपायों में यह एक प्रधान साधन है। आयुर्वेद में रोगी शरीर और मन को स्वस्थ करने के साधनों पर साङ्गोपाङ्ग विचार किया गया है। इस प्रकार ये चारों विज्ञान चारों वेदों के आनुषङ्गिक सहायक हैं।

उपशम
अन्तःकरण की स्थिरता। इसके पर्याय हैं शम, शान्ति, शमथ, तृष्णाक्षय, मानसिक विरति।
प्रबोधचन्द्रोदय में कहा गया है :
तथायमपि कृतकर्तव्य संप्रति परमामुपशमनिष्ठां प्राप्त।:'
[यह भी कृतकृत्य होकर इस समय अत्यन्त तृष्णाक्षय को प्राप्त हो गया है।]

उपश्रुति
प्रश्नों के दैवी उत्तर को सुनना। हारावली में कहा है :
नक्तं निर्गत्य यत् किञ्चिच्छुभाशुभकरं वचः। श्रूयते तद्विदुर्धीरा दैवप्रश्नमुपश्रुतिम्।।
[रात्रि में घर से बाहर जाकर जो कुछ भी शुभ या अशुभ वाक्य सुना जाता है, उसे विद्वान् लोग प्रश्न का दैवी उत्तर उपश्रुति कहते हैं। यह एक प्रकार का एकान्त में चिन्तन से प्राप्त ज्ञान अथवा अनुभूति है। इसलिए श्रुति अथवा शब्दप्रमाण के साथ ही इसको भी उपश्रुतिप्रमाण (यद्यपि गौण) मान लिया गया है।]

उपसद्
अग्निविशेष। अग्निपुराण के गणभेद नामक अध्याय में कथन है :
गार्ह्यपत्यो दक्षिणाग्निस्तथैवाहवनीयकः। एतेऽग्नयस्त्रयो मुख्याः शेषाश्चोपसदस्त्रयः।।
[गार्हपत्य, दक्षिणाग्नि तथा आहवनीय ये तीन अग्नियाँ मुख्य हैं।
यह एक यज्ञभेद भी है। आश्वलायनश्रौतसूत्र (4.8.1) में उपसद नामक यज्ञों में इसका प्रचरण बतलाया गया है।

उपसम्पन्न
यज्ञ के लिए मारा गया पशु। उसके पर्याय हैं प्रमीत, प्रोक्षित, मृत आदि। पाक क्रिया द्वारा रूप, रस आदि से सम्पन्न व्यञ्जन भी उपसम्पन्न कहा जाता है। उसके पर्याय हैं प्रणीत, पर्याप्त, संस्कृत। मनु (5.81) में मृत के अर्थ में ही इसका प्रयोग हुआ है :
श्रोत्रिये तूपसम्पन्ने त्रिरात्रमशुचिर्भवेत्।
[श्रोत्रिय ब्राह्मण के मर जाने पर तीन दिन तक अपवित्रता रहती है।]


logo