logo
भारतवाणी
bharatavani  
logo
Knowledge through Indian Languages
Bharatavani

Hindu Dharmakosh (Hindi-Hindi)

इन्द्रध्वजोत्थानोत्सव
यह इन्द्र की ध्वजा को उठाकर जलूस में चलने का उत्सव है। यह भाद्र शुक्ल अष्टमी को मनाया जाता है। ध्वज के लिए प्रयुक्त होने वाले दण्ड के लिए इक्षुदण्ड (गन्ना) काम में आता है, जिसकी सभी लोग इन्द्र के प्रतीक रूप में अर्चना करते हैं। तदनन्तर किसी गम्भीर सरोवर अथवा नदी के जल में उसे विसर्जित किया जाता है। ध्वज का उत्तोलन श्रवण, धनिष्ठा अथवा उत्ताराषाढ़ नक्षत्र में तथा उसका विसर्जन भरणी नक्षत्र में होना चाहिए। इसका विशद वर्णन बराहमिहिर की बृहत्संहिता (अध्याय 43), कालिका पुराण (90) तथा भोज के राजमार्त्तण्ड (सं० 1.6. से 1.92 तक) में है। यह व्रत राजाओं के लिए विशेष रूप से आचरण करने योग्य है। बुद्धचरित में भी इसका उल्लेख है। रघुवंश (4.3), मृच्छकटिक (10.7), मणिमेखलाई के प्रथम भाग, सिलप्पदिकारम् के 5 वें भाग तथा एक सिलालेख (एपिग्राफिया इंडिका, 1.320; मालव संवत् (461) में भी इसका उल्लेख हुआ है। कालिकापुराण, 90; कृत्यकल्पतरु (राजधर्म, पृष्ठ 184-190); देवी-पुराण तथा राजनीतिप्रकाश (वीरमित्रोदय, पृष्ठ 421-423) में भी इसका वर्णन मिलता है।

इन्द्रप्रस्थ
पाण्डवों की राजधानी, जिसको उन्होंने खाण्डववन जलाकर बसाया था। नयी दिल्ली के दक्षिण में इसकी स्थिति थी, जिसके एक सीमान्त भाग को आज भी इस नाम से पुकारते हैं। बारहवीं शती तक उत्तर भारत के पाँच पवित्र तीर्थों में इन्द्रप्रस्थ (इन्द्रस्थानीय) की गणना थी। गहडवाल राजा गोविन्दचन्द्र के अभिलेखों में इसका उळ्लेख है। कुतुबमीनार के पास का गाँव मिहरौली 'मिहिरावली' (सूर्यमण्डल) का अपभ्रंश है। इसके पास के ध्वंशावशेष अब भी इसके धार्मिक स्वरूप को व्यक्त करते हैं। कुशिक (कान्यकुब्ज) के साथ इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) का धार्मिक स्वरूप बाद में तुर्कों ने पूर्णतः नष्ट कर दिया।

इन्द्रपौर्णमासी
हेमाद्रि, व्रतखण्ड 2.196 में इसका उल्लेख है। भाद्रपद मास की पूर्णिमा को उपवास रखना चाहिए। इसके पश्चात् तीस सपत्नीक सद्गृहस्थों को अलंकारों से सम्मानित करना चाहिए। इस व्रत के आचरण से मोक्ष की प्राप्ति होती है।

इन्द्रव्रत
साठ संवत्सर व्रतों में से सैंतालीसवाँ व्रत। कृत्यकल्पतरु के व्रतकाण्ड, पृष्ठ 449 पर इस व्रत का उल्लेख है। व्रती को चाहिए कि वह वर्षा ऋतु में खुले आकाश में नीचे शयन करे। अन्त में दूधवाली गौ का दान करे।

इन्द्रव्याकरण
छहों अङ्गों में व्याकरण वेद का प्रधान अङ्ग समझा जाता है। जो लोग वेदमन्त्रों को अनादि मानते हैं उनके अनुसार तो बीजरूप से व्याकरण भी अनादि है। पतञ्जलि वाली जनश्रुति से पता चलता है कि सबसे पुराने वैयाकरण देवताओं के गुरु बृहस्पति हैं और इन्द्र की गणना उनके बाद होती है। एक प्राचीन पद्य "इन्द्रश्चन्द्रः काशकृत्सन...... जयन्त्यष्टौ च शाब्दिकाः" के अनुसार पाणिनिपूर्व काल में इन्द्रव्याकरण प्रचलित रहा होगा।
">

इन्द्रसावर्णि
चौदहवें मनु का नाम इस मन्वन्तर में बृहद्भानु का अवतार होगा, शुचि इन्द्र होंगे, पवित्र चाक्षुष आदि देवता होंगे, अग्नि, बाहु, शुचि, शुद्ध, मागध आदि सप्तर्षि होंगे। भागवत पुराण, विष्णु पुराण (2।3) एवं मार्कण्डेय पुराण (अध्याय 100) में यह वर्णन पाया जाता है।

इन्द्राणी
इन्द्र की पत्नी, जो प्रायः शची अथवा पौलोमी भी की गयी है। यह असुर पुलोमा की पुत्री थी, जिसका वध इन्द्र ने किया था। शाक्त मत में सर्वप्रथम मातृका पूजा होती है। ये माताएँ विश्वजननी हैं, जिनका देवस्त्रियों के रूप में मानवीकरण हुआ है। इसका दूसरा अभिप्राय शक्ति के विविध रूपों से भी हो सकता है, जो आठ है, तथा विभिन्न देवताओं से सम्बन्धित हैं। वैष्णवी व लक्ष्मी का विष्णु से, ब्राह्मी या ब्राह्मणी का ब्रह्मा से, कार्तिकेयी का युद्धदेवता कार्तिकेय से, इन्द्राणी का इन्द्र से, यमी का मृत्यु के देवता यम से, वाराही का वराह से, देवी व ईशानी का शिव से सम्बन्ध स्थापित है। इस प्रकार अष्टमातृकाओं में से भी एक है।
इस प्रकार इन्द्राणी अष्टमातृकाओं में से भी एक है।
अमरकोश में सप्‍त मातृकाओं का (ब्राह्मीत्‍याद्यास्‍तु मातर:) का उल्‍लेख है
ब्राह्मी माहेश्वरी चैव कौमारी वैष्णवी तथा। वाराही च तथेन्द्राणी चामुण्डा सप्तमातरः।।

इन्द्रियाँ
पूर्वजन्म के किये हुए कर्मों के अनुसार शरीर उत्पन्न होता है। पञ्चभूतों से पाँचों इन्द्रियों की उत्पत्ति कही गयी है। घ्राणेन्द्रिय से गन्ध का ग्रहण होता है, इससे वह पृथ्वी से बनी है। रसना जल से बनी है, क्योंकि रस जल का गुण है। चक्षु इन्द्रिय तेज से बनी है, क्योंकि रूप तेज का गुण है। त्वक् वायु से बनी है, क्योंकि स्पर्श वायु का गुण है। श्रोत्र इन्द्रिय आकाश से बनी है, क्योंकि शब्द आकाश का गुण है।
बौद्धों के मत में शरीर में जो गोलक देखे जाते हैं उन्हीं को इन्द्रियाँ कहते हैं, (जैसे आँख की पुतली जीभ इत्यादी)। परन्तु नैयायिकों के मत से जो अङ्ग दिखाई पड़ते हैं वे इन्द्रियों के अधिष्ठान मात्र हैं, इन्द्रियाँ नहीं हैं। इन्द्रियों का ज्ञान इन्द्रियों के द्वारा नहीं हो सकता। कुछ लोग एक ही त्वक् इन्द्रिय मानते हैं। न्याय में उनके मत का खण्डन करके इन्द्रियों का नानात्व स्थापित किया गया है। सांख्य में पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ और मन को लेकर ग्यारह इन्द्रियाँ मानी गयी हैं। न्याय में कर्मेन्द्रियाँ नहीं मानी गयी हैं, पर मन एक आन्तरिक करण और अणुरूप माना गया है। यदि मन सूक्ष्म न होकर व्यापक होता तो युगपत् कई प्रकार का ज्ञान सम्भव होता, अर्थात् अनेक इन्द्रिय का एक क्षण में एक साथ संयोग होते हुए उन सबके विषयों का एक साथ ज्ञान हो जाता। पर नैयायिक ऐसा नहीं मानते। गन्ध, रस, रूप, स्पर्श, और शब्द ये पाँचों गुण इन्द्रियों के अर्थ या विषय हैं।

इन्द्रोत
ऋग्वेद (8.68) की एक दानस्तुति में दाता के रूप में इन्द्रोत का दो बार उल्लेख हुआ है। द्वितीय मण्डल में उसका एक नाम आतिथिग्व है जिससे प्रकट होता है कि यह अतिथिग्व का पुत्र था।

इन्द्रोतदैवापशौनक
इस ऋषि का उल्लेख शतपथ ब्राह्मण (13 :5,3,5;4,1) में जनमेजय के अश्वमेध यज्ञ के पुरोहित के रूप में हुआ है, यद्यपि यह सम्माननीय पद ऐतरेय ब्राह्मण (8.21) में तुरकावषेय को प्राप्त है। जैमिनीय उपनिषद्ब्राह्मण (3.40.1) में इन्द्रोत दैवाप शौनक श्रुत के शिष्य के रूप में उल्लिखित है तथा वंशब्राह्मण में भी इसका उल्लेख है। किन्तु ऋग्वेद में उल्लिखित देवापि से इसका सम्बन्ध किसी भी प्रकार नहीं जोड़ा जा सकता।


logo