logo
भारतवाणी
bharatavani  
logo
Knowledge through Indian Languages
Bharatavani

Definitional Dictionary of Indian Philosophy Vol.-II

Please click here to read PDF file Definitional Dictionary of Indian Philosophy Vol.-II

पुष्टिमार्गीय मुक्ति
भगवान् की नित्य लीला में अंतःप्रवेश (समावेश) पुष्टिमार्गीय मुक्ति है (अ.भा.पृ. 1316, 1388)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

पूर्णभगवान्
जब सत्त्वगुणात्मक, रजोगुणात्मक या तमोगुणात्मक शरीर विशेष रूप अधिष्ठान की अपेक्षा किए बिना स्वयं अभिगुणात्मक शुद्ध साकार ब्रह्म आविर्भूत होते हैं, तब वे स्वयं पूर्णभगवान हैं। ऐसे शुद्ध साकार ब्रह्म भगवान श्रीकृष्ण ही हैं। यद्यपि वे भी अधिष्ठान रूप में लीला शरीर से युक्त हैं, तथापि उनका वह विग्रह अभिगुणात्मक होने से सर्वथा शुद्ध है (अ. भा. पृ. 886)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

पूर्णानन्द
वल्लभ वेदान्त में पुरुषोत्तम भगवान ही पूर्णानन्द हैं। अक्षरानन्द या ब्रह्मानन्द उसकी तुलना में न्यून हैं। इसीलिए ज्ञानियों के लिए ब्रह्मानंद भले ही अभीष्ट हों, परंतु भक्तों के लिए तो पूर्णानन्द पुरुषोत्तम भगवान ही परम अभिप्रेत हैं (अ.भा.पृ. 1321)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

प्रतिज्ञा दृष्टांतानुपरोध
श्रुति में निर्दिष्ट प्रतिज्ञा और दृष्टांत का बाध न होना प्रतिज्ञा दृष्टांतानुपरोध है। `उत तमादेशम प्राक्ष्यः येनाश्रुतं श्रुंत भवति` इत्यादि वचन प्रतिज्ञा का बोधक है। क्योंकि उक्त वाक्य में उस तत्त्व को बताने की प्रतिज्ञा की गयी है, जिसके जानने से अश्रुत भी श्रुत हो जाता है। एवं `यथैकेन मृत् पिण्डेन सर्वं मृण्मयं विज्ञातं भवति` इत्यादि श्रुति वचन दृष्टांत का बोधक है। अर्थात् यदि ब्रह्म को जगत की प्रकृति न माना जाए तो श्रुत्युक्त प्रतिज्ञा और दृष्टांत बाधित हो जायेंगे। इस प्रसंग से ब्रह्म जगत् की प्रकृति (उपादान कारण) भी है, यह अवगत होता है (अ.भा.पृ. 530)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

प्रतीकालंबन
ब्रहमत्व की भावना से रहित प्रतीकमात्र जिसकी उपासना का विषय है, वह प्रतीकालंबन उपासक है अर्थात् सिद्धांत में श्रुतियाँ सर्वत्र ब्रह्मत्व रूप से ही उपासना का विधान करती हैं क्योंकि सभी उपास्य भगवद् विभूति रूप होने से शुद्ध ब्रह्मरूप हैं। किन्तु प्रतीकालंबन उपासकों की मान्यता के अनुसार उन उपास्यों में ब्रह्मत्व ज्ञान किए बिना भी की गयी उपासना को श्रुतियाँ सफल तो बताती हैं किंतु वे उपास्य ब्रह्मरूप हैं, ऐसा नहीं बतातीं। इस प्रकार की मान्यता वाले उपासक प्रतीकालंबन कहे गए हैं। इनके अनुसार प्रतीक की अपने रूप में उपासना भी निरर्थक नहीं हैं।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

प्रतीकोपासना
अतद्रूप की तद्रूप में उपासना प्रतीकोपासना है। जैसे, 'मनो ब्रह्म इत्युपासीत' यहाँ ब्रह्म भिन्न मन की ब्रह्म रूप में उपासना प्रतिकोपासना है तथा इस प्रकार प्रतीक का आलंबन कर ब्रह्म की उपासना करने वाले उपासक प्रतीकोपासक हैं (अ.भा.पृ. 1259)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

प्रभ्वनिंगितार्थ त्याग
प्रभु द्वारा असंकेतित जो विषय है, उसका परित्याग प्रभ्वनिंगितार्थ त्याग है। पुष्टिमार्ग में भगवान् द्वारा भक्त अंगीकृत हो जाता है। वैसी स्थिति में उस भक्त द्वारा तीन गुण अपनाए जाते हैं - स्नेह, त्याग और भजन। इनके अतिरिक्त अन्य गुण प्रभ्वनिंगितार्थ हैं। अतः प्रभु द्वारा अनिंगित -असंकेतित होने से उक्त तीनों गुणों से अतिरिक्त सभी विषय परित्याग करने योग्य हैं (अ.भा.पृ. 1306)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

प्रमाण संकर
एक विषय में अनेक प्रमाणों का सांकर्य होना अर्थात् मिल जाना प्रमाण संकर है। जैसे, साक्षात्कार के प्रति शब्द को भी जनक मानने में प्रत्यक्ष और शब्द दोनों प्रमाणों का संकर हो जाता है। एक दूसरे के अभाव में रहने वाले दो धर्मों का किसी एक स्थान में समावेश हो जाना संकर है। इसके अनुसार प्रत्यक्ष और शब्द इन दोनों प्रमाणों का सांकर्य हो जाता है। क्योंकि अत्यंत असत् आकाशपुष्प आदि अर्थ में प्रत्यक्ष प्रमाण की प्रवृत्ति नहीं है, किन्तु शब्द प्रमाण वहाँ भी ज्ञान का जनक होता है, जैसा कि `अत्यंतासत्यापि ह्यर्थे ज्ञानं शब्दः करोतिहि` ऐसा कहा गया है (एवं शब्द प्रमाण का प्रयोग हुए बिना भी प्रत्यक्ष प्रमाण से घटादि वस्तु का ज्ञान होता है। किन्तु 'तत्त्वमसि' वाक्य स्थल में शब्द प्रमाण प्रयुक्त शाब्दत्व धर्म और प्रत्यक्ष प्रमाण प्रयुक्त साक्षात्कारत्व धर्म इन दोनों का एक जगह समावेश स्वीकार करने से प्रमाण संकर हो जाता है।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

प्रवाह पुष्टि भक्ति
केवल भगवान् के लिए उपयोगी क्रियाओं में निरत जनों की वह भक्ति प्रवाह पुष्टि भक्ति है, जो अहन्ता ममता रूप संसार प्रवाह से मिश्रित हो। इसके उदाहरण निमि श्रुतिदेव प्रभृति हैं। (दृष्टव्य - चतुर्विध पुष्टि भक्ति की परिभाषा) (प्र.र.पृ. 83)।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)

प्राकट्य त्रैविध्य
प्राकट्य के अर्थात् अभिव्यक्ति के तीन भेद हैं :
1. अनित्य की उत्पत्ति, जैसे, घट आदि की उत्पत्ति।
2. नित्य और परिच्छिन्न वस्तुओं में परस्पर समागम होना, जैसे, नित्य एवं परिच्छिन्न दो परमाणु परस्पर संबद्ध होकर द्वयणुक रूप में अभिव्यक्त होते हैं।
3. नित्य होता हुआ जो अपरिच्छिन्न (विभु) है, उसका प्रकट होना, जैसे, भगवान् का प्राकट्य।
(वल्लभ वेदांत दर्शन)


logo