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Chhattisgarhi Kahawat Kosh

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अलकर माँ परिस भालू, त ज्ञान बतावै कोल्हू।
भालू मुसीबत में पड़ गया, तो कोल्हू ने उसे ज्ञान बताया।
समर्थ व्यक्ति के मुसीबत में पड़ते ही असमर्थ लोग सलाह देना प्रारंभ कर देते हैं।
मुसीबत में पड़े व्यक्ति की मजाक छोटे-छोटे लोग भी उड़ाते हैं। ऐसे व्यक्ति के प्रति छोटों को मजाक करते देखकर यह कहावत कही जाती है।
अलकर-मुसीबत

आँख रोवै मन गदकत जाय, डोला चढ़ के चमकत जाय।
आँखों से रोती है, परंतु मन में प्रसन्न होती है। डोले में चढ़कर चमकते हुए जाती है।
मन में कुछ और, बाहर प्रदर्शन कुछ और।
ऐसी लड़की जो अपनी शादी से अत्याधिक प्रसन्न रहती है, केवल दिखावे के लिए रोती है।
गदकत-प्रसन्नतापूर्वक

आँखी कान के ठिकाना नइ ए, बंदन के हरक्कत।
आँख-कान ठीक न होने पर बंदन लगाना, उसका दुरूपयोग करना है।
बदशकल स्त्री यदि खूब सजे भी तो उससे वस्तु की बरबादी ही होती है, क्योंकि इससे उसकी सुंदरता बढ़ने के बजाय घट जाती है।
जो लोग किसी काम को करने में समर्थ नहीं होते, परंतु वस्तुओं की बरबादी करते हैं, उन के लिए यह कहावत कही जाती है।
हरकित-नुकसान, बंदन-लाल रंग का एक पदार्थ (सिंदूर), जिसे विवाहित स्त्रियाँ अपनी माँग में लगाती हैं।

आँखी दिखै न कान, भूँज-भूँज खाय आन।
न तो आँखों से दिखलाई पड़ता है और न ही कानों से सुनाई पड़ता है, जिससे दूसरे लोग भून-भून कर खाते हैं।
ऐसा व्यक्ति जो अँधा और बहरा हो, उसके चने को यदि की उसके सामने ही भून कर खा जाए, तो भी वह न तो उसे देख सकता है और नही फूटने की आवाज सुन सकता है।
किसी व्यक्ति की मौजूदगी में दूसरे व्यक्ति उसकी चीज का दुरूपयोग करें और वह उसे न जान पाए, तो वह आँख-कान होते हुए भी अंधों-बहरों के समान है।
आंखी-आंख, दिखै-दिखना, भूंज-भूनना, खाय-खाना

आँखी देख मानुस करै, अउ करम ला दोस दै।
अपनी आँखों से देखकर पति बनाया और कर्म को दोष देती है।
सामान्यतः कुंवारी लड़की को एक बार होने वाले पति को दिखाकर उसकी राय ली जाती है, लड़की के हां कहने पर ही रिशता तय किया जाता है।
स्वयं देखभाल कर कोई कार्य करने और गलत परिणाम निकलने पर कर्म को दोष देने वालों के लिए यह कहावत कही जाती है।
आंखी-आंख, मानुस-पति, अउ-और, करम-कर्म, दोस-दोष, दै-देना

आँखी फूटिस, पीरा हटिस।
आँख फूटी, पीड़ा दूर हुई।
यदि किसी की आँख में कष्ट हो, तो वह उससे पीड़ित रहता है, परंतु आँख के नष्ट हो जाने पर उससे होने वाला कष्ट भी दूर हो जाता है।
विपत्ति का कारण दूर होने पर विपत्ति से भी छुट्टी मिल जाती है।
आंखी-आंख, फूटिस-फूटना, पीरा-पीड़ा, हटिस-हटना

आए नाग पूजै नहि, भिंभोरा पूजे जाय।
आए हुए नाग की पूजा न कर के उसके बिल की पूजा करने के लिए जाता है।
घर में आए हुए नाग की पूजा न करके उस के बिल में नाग न हो, तब पूजा का कोई अर्थ नहीं रह जाता।
कोई व्यक्ति उपलब्ध विद्वान का आदर न करके किसी अन्य व्यक्ति की प्रशंसा करता है, तब यह कहावत कही जाती है।
भिंभोरा-साँप का बिल, पूजे-पूजना

आग जानै, लोहार जानै धुकना के लुवाठ जानै।
आग जाने लुहार जाने, धौंकनी का ठेंगा जाने।
यदि किसी लोहे के औजार को बनाते समय कोई गलती हो जाती है, तो उसका दोषी या तो लुहार है या आग। लुहार इसलिए कि उसने धौकनी अधिक क्यों नहीं चलाई और आग इसलिए कि उस के अधिक जलने से औजार बिगड़ गया। धौंकनी तो दोनों तरफ से निर्दोष है।
कुछ लोगो द्वारा मिलकर किया हुआ कार्य बिगड़ जाता है तब उनमें से अपने को निर्दोष वाला व्यक्ति इस कहावत का प्रयोग करता है।
लोहार-लुहार, धुकना-धौंकनी, लुवाठ-ठेंगा

आगी लगै तोर पोथी माँ, जीव लगै मोर रोटी माँ।
तुम्हारी पोथी में आग लगे, मेरा जी तो रोटी में लगा है।
भूख के सामने पढ़ाई नहीं सूझती।
भूख के समय कोई पढ़ने-लिखने की बात करता है, तब यह कहावत कही जाती है। ज्ञान-विज्ञान की बातें खाली पेट नहीं होती।
आगी-आग, लगै-लगना, तोर-तुम्हारा, पोथी-पढ़ने की सामग्री जीव-जी, मोर-मेरा

आगी खाही, तउन अँगरा हगबे करही।
जो आग खाएगा, वह अंगार हगेगा ही।
जो जैसा भोजन करेगा, उसे वैसा ही मल त्याग करना पड़ेगा। आग खाने वाले को अंगारे का ही मल त्याग करना पड़ेगा।
हर कार्य की क्रिया-प्रतिक्रिया होती है। यदि कोई व्यक्ति असामान्य कार्य करेगा, तो उसे असामान्य ही परिणाम मिलेंगे। इस कहावत को 'जैसे करनी, वैसी भरनी' के समान समझा जा सकता है।
अँगरा-अंगार, खाही-खाना, तउन-वह, हगबे-मल विसर्जित करना, करही-करना


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