यदि किसी की आँख में कष्ट हो, तो वह उससे पीड़ित रहता है, परंतु आँख के नष्ट हो जाने पर उससे होने वाला कष्ट भी दूर हो जाता है।
विपत्ति का कारण दूर होने पर विपत्ति से भी छुट्टी मिल जाती है।
आंखी-आंख, फूटिस-फूटना, पीरा-पीड़ा, हटिस-हटना
आए नाग पूजै नहि, भिंभोरा पूजे जाय।
आए हुए नाग की पूजा न कर के उसके बिल की पूजा करने के लिए जाता है।
घर में आए हुए नाग की पूजा न करके उस के बिल में नाग न हो, तब पूजा का कोई अर्थ नहीं रह जाता।
कोई व्यक्ति उपलब्ध विद्वान का आदर न करके किसी अन्य व्यक्ति की प्रशंसा करता है, तब यह कहावत कही जाती है।
भिंभोरा-साँप का बिल, पूजे-पूजना
आग जानै, लोहार जानै धुकना के लुवाठ जानै।
आग जाने लुहार जाने, धौंकनी का ठेंगा जाने।
यदि किसी लोहे के औजार को बनाते समय कोई गलती हो जाती है, तो उसका दोषी या तो लुहार है या आग। लुहार इसलिए कि उसने धौकनी अधिक क्यों नहीं चलाई और आग इसलिए कि उस के अधिक जलने से औजार बिगड़ गया। धौंकनी तो दोनों तरफ से निर्दोष है।
कुछ लोगो द्वारा मिलकर किया हुआ कार्य बिगड़ जाता है तब उनमें से अपने को निर्दोष वाला व्यक्ति इस कहावत का प्रयोग करता है।
लोहार-लुहार, धुकना-धौंकनी, लुवाठ-ठेंगा
आगी लगै तोर पोथी माँ, जीव लगै मोर रोटी माँ।
तुम्हारी पोथी में आग लगे, मेरा जी तो रोटी में लगा है।
भूख के सामने पढ़ाई नहीं सूझती।
भूख के समय कोई पढ़ने-लिखने की बात करता है, तब यह कहावत कही जाती है। ज्ञान-विज्ञान की बातें खाली पेट नहीं होती।
आगी-आग, लगै-लगना, तोर-तुम्हारा, पोथी-पढ़ने की सामग्री जीव-जी, मोर-मेरा
आगी खाही, तउन अँगरा हगबे करही।
जो आग खाएगा, वह अंगार हगेगा ही।
जो जैसा भोजन करेगा, उसे वैसा ही मल त्याग करना पड़ेगा। आग खाने वाले को अंगारे का ही मल त्याग करना पड़ेगा।
हर कार्य की क्रिया-प्रतिक्रिया होती है। यदि कोई व्यक्ति असामान्य कार्य करेगा, तो उसे असामान्य ही परिणाम मिलेंगे। इस कहावत को 'जैसे करनी, वैसी भरनी' के समान समझा जा सकता है।