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Chhattisgarhi Kahawat Kosh

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तइहा के बात ल बइहा लेगे।
तब की बात को पागल ले गया।
जब एक पीढ़ी पहले का व्यक्ति अपने उस युग की बात करता है, जिसे सुनने वाले व्यक्ति नहीं जानते, तब उसकी बातों पर अविश्वास करते हुए कहते हैं कि उसे तो पागल ले गया अर्थात् वे बातें पागलपन की हैं। अब वैसी बातें नहीं होती।
पुरानी बातों पर अविश्वास करने वाले लोग इस कहावत को कहते हैं।
बइहा-पागल, तइहा-तब

तजेंव पूछी, तजेंव कान, चौहर बिन कइसे रहिहै प्रान।
पूँछ छोड़ दी, कान छोड़ दिया, लेकिन मुँह के बिना प्राण कैसे बचेंगे।
पूँछ और कान किसी को देकर काम चला लिया परंतु मुँह को देने से प्राण नहीं बचेंगे, इसलिए उसे नहीं दिया जा सकता। जितना परोपकार संभव था, तब किया, अब आगे कुछ नहीं किया जा सकता।
जब कोई व्यक्ति किसी से उत्तरोत्तर अपनी माँग पेश करता है, तब उसकी ज्यादती को देखकर यह कहावत कही जाती है।
चौहर-मुँह, तजेंव-छोड़ दी, प्रान-प्राण

तन बर नइ ए लत्ता, जाए बर कलकत्ता।
शरीर पर कपड़े नहीं है और जाने के लिए कलकत्ता।
ऐसे गरीब व्यक्ति, जिनके पास पहनने के लिए वस्त्र न हों, यदि कलकत्ता जाने का शौक करे, तो यह हास्यास्पद लगता है।
गरीबी में भी शौक करना, ऐसे परिपेक्ष्य में यह कहावत कही जाती है।
बर-के कारण, नइ-नहीं, लत्ता-कपड़ा

तात भात असन दबा लेथे।
गरम भात जैसा मुँह में दबा लेता है।
गरम भात खाने मे ताजेपन का जायका मिलता है। वह मुलायम होता है। जिससे उसे खाने वाले व्यक्ति को चबाने के लिए विशेष प्रयत्न नहीं करना पड़ता।
किसी दूसरे की वस्तु को आसानी से हजम करने वाले व्यक्ति के लिए यह कहावत कही जाती है।
तात-गरम, भात-पका हुआ चांवल, असन-जैसा, लेथे-लेता है

ताते खाँव, अउ पहुना सँग जाँव।
गरम-गरम खाऊँ और मेहमान के साथ जाऊँ।
गरम खाना खाकर मेहमान के साथ जाने को उत्सुक व्यक्ति बाहर जाने की जल्दी करता है।
इस कहावत का प्रयोग तब होता है, जब कोई व्यक्ति किसी काम के लिये निश्चित समय से भी अधिक शीघ्रता करता है।
ताते-गरम, खांव-खाना, अउ-और, पहुना-मेहमान, संग-साथ, जांव-जाना

तितूर फँस गे लावा फँस गे, तैं कस फँसे बटेर। प्रेम-प्रीत के कारन, आँखी ल देए लड़ेर।
तीतर फँस गया, लवा फँस गया, तू क्यों फँसी बटेर? प्रेम-प्रीत के कारण, आँखें उलट दी।
तीतर लवा पक्षी तो जाल में फँस जाते हैं, परंतु बटेर का फँसना नामुमकिन है। बटेर अन्य पक्षियों के साथ प्रेम में उन्हें छोड़कर नहीं भागती, जिससे अन्यों के साथ वह भी मारी गई।
बुरे लोगों के साथ रहने के कारण जब निर्दोष व्यक्ति भी कष्ट भोगता है, तब यह कहावत कही जाती है।
आंखी-आंख, तितूर-तीतर

तीन कौड़ी के तितरी, बाहिर के ना भीतरी।
तीन कौड़ी का तीतर, बाहर का न भीतर का।
तीतर तो सस्ती मिल गई, परंतु वह न तो मेहमानों के लिए पर्याप्त हो पाया और न ही घर के लोगों के लिए।
जब कोई व्यक्ति थोड़ी कीमत की वस्तु में शौक पूरा करता है और बड़प्पन का दिखावा करता है, तब उस के इस स्वभाव पर व्यंग्य कसने के लिए यह कहावत कही जाती है।
तितरी-तीतर, बाहिर-बाहर, भीतरी-भीतर

तीन माँ न तेरा माँ, ढोल बजावै डेरा माँ।
तीन में न तेरह में, अपनी झोपड़ी में ढोल बजाता है।
ऐसा व्यक्ति जो किसी के पचड़े में न पड़ कर अपनी झोपड़ी में मस्त रहता है, उसका जीवन अपने ही कार्यो में व्यतीत होता है। अन्य लोगों के विवाद में न पड़ने वाला व्यक्ति अपनी झोपड़ी में आनंदित रहता है।
स्वयं में मजे में रहने वाले व्यक्ति के लिए यह कहावत कही जाती है।
तेरा-तेरह

तुलसा माँ मुतही, तउन किराबे करही।
तुलसी में पेशाब करने वाले को कीड़े लगेगें ही।
जो व्यक्ति तुलसी के पौधे पर पेशाब करेगा, उसके अंग में कीड़े लगेंगे। तुलसी के पौधे पर पेशाब करना वर्जित है, जो व्यक्ति अनैतिक कार्य करेगा, उसे उसका दुष्परिणाम भोगना पड़ेगा।
अनैतिक कार्यों को करने वाले के लिए यह कहावत कही जाती है।
तुलसा-तुलसी, मुतही-पेशाब करना, तउन-तब, किराबे-कीड़ा पड़ना

तेंदू के अँगरा, बरे के न बुताय के।
तेंदू की लकड़ी न तो जलती है और न बुझती है।
तेंदू की लकड़ी धुआँ देकर नेत्रों को कष्ट पहुँचाती है। इसी प्रकार दुष्ट व्यक्ति अकारण दूसरों को नुकासान पहुँचाते हैं।
दूसरों को परेशान करने वाले दुष्ट व्यक्ति के लिए यह कहावत कही जाती है।
अंगरा-अंगार, बरे-जलना, बुताय-बुझना


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