जब कोई व्यक्ति झूठ-मूठ का बहाना बनाकर अपना प्रयोजन सिद्ध करना चाहता है, तब यह कहावत कही जाती है।
ओखी-बहाना, खोखी-खाँसी, जूड़ी-सर्दी
ओढ़े बर ओढ़ना नहिं, बिछाय बर बिछौना।
बिहाव बर बाट देखै, रतनपुर के कैना।
ओढ़ने-बिछाने के लिए तो वस्त्र नहीं है और रतनपुर की कन्या शादी का बाट जोह रही है। घर में गरीबी है, तब भी लड़की बड़े शहर में बसने के कारण शहरी बड़प्पन मानते हुए शादी का इंतजार करती है।
जब कोई गरीब व्यक्ति अपने बड़प्पन की बातें (वंश, जाति, स्थान, आदि की) करता है, तो यह कहावत कही जाती है। किन्हीं दिनों शादी-ब्याह में कुलीन वंश में शादी करने की बात कही जाती थी, किंतु इधर पैसों का महत्व बढ़ जाने से कुल आदि की बातों की ओर लोग ध्यान नहीं देते।
ओढ़े-ओढ़ना, बर-के लिए, ओढ़ना-ओढ़ने का चादर, बिछाय-बिछाना, बिछौना-बिछाने का चादर
ओतिहा ला धोतिया गरू।
आलसी को धोती भी वजनी।
आलसी व्यक्ति को अपने पहनने के लिए धोती भी भारस्वरूप लगती है।
आलसी व्यक्ति के लिए हर काम भारी पड़ता है, कुछ ऐसे ही परिपेक्ष्य में यह कहावत कही जाती है।
ओतिहा-आलसी, गरू-वजनी
ओरिया के पानी बरेंडी नइ चढ़ै।
ओलाती (छप्पर के नीचे का भाग) का पानी बरेंडी (छप्पर के ऊपर का भाग) पर नहीं चढ़ता।
छप्पर के ऊपरी हिस्से का पानी ढुलककर छप्पर के नीचे की ओर आता है। ओलाती नीची होने के कारण पानी ऊपर नहीं चढ़ सकता।
जो कार्य कदापि नहीं हो सकता, उसके होने के संबंध में यदि कोई कहे, तो उसकी बात को गलत सिद्ध करने के लिए यह कहावत कही जाती है।
ओरिया-छप्पर का निचरला हिस्सा, जिससे वर्षा का पानी नीचे गिरता है, बरेंडी-छप्पर का ऊपरी भाग, नइ-नहीं, चढ़े-चढ़ना
ओले अइन, पोले गइन।
ओले के समान आए और घुल कर नष्ट हो गए।
ओले गिरते हैं, जिससे कई प्रकार की क्षति होती है, परंतु वे घुलकर जल्दी समाप्त भी हो जाते हैं।
जो जोर-शोर से कोई कार्य प्रारंभ करता है और कुछ दिनों बाद कार्य बंद कर देता है, उस के लिए यह कहावत प्रयक्त होती है।
अइन-आए, पोले-घुल जाना, गइन-जाना
ओस चटाय माँ लइका नइ जिए।
ओस चटने से बालक नहीं जीता।
किसी बालक को जीवित रखने के लिए दूध, पानी, आदि की आवश्यकता होती है, ओस चाटने से वह जीवित नहीं रह सकता।
वास्तविकता को छिपाकर कोई किसी को भुलावे में डालकर कोई काम करना चाहे, तो उसमें उसे सफलता नहीं मिल सकती।