मनुष्य का आदर धन के अनुसार ही होता है। जब धन नहीं होता , तो लोग 'परसू' कहकर पुकारते हैं। जब कुछ धन हो जाता है, तो 'परसोत्तम' कहते हैं, और अधिक धन हो जाते पर वे 'परशुराम' कहलाने लगते हैं।
धन के अनुसार व्यक्ति की महत्ता होती है, ऐसे परिपेक्ष्य में यह कहावत कही जाती है।
धरावै-धराना
धन हे, त धरम हे।
धन है, तो धर्म है।
धन ही धर्म है।
धर्म के लिए धन की आवश्यकता होती है। इस बात को पुष्ट करने के लिए यह कहावत प्रयुक्त होती है।
धरम-धर्म
धनी के धन जाय, भंडारी के गाँड़ फाटय।
धनवान व्यक्ति का धन खर्च होता है, भंडारी को पीड़ा होती है।
दूसरे का खर्च होना, पर पीड़ा दूसरे को होना।
जब कोई व्यक्ति खर्च करता है, परंतु उसके खर्च से किसी दूसरे व्यक्ति को पीड़ा होती है, तब अन्य लोग इस कहावत का प्रयोग करते हैं।
जाय - जाना
धाँय धूपे तेरा, घर बैठे बारा।
दोड़-धूप कर तेरह, घर बैठे बारह।
इधर-उधर भटकने के बाद मिलने वाले तेरह रूपयों की अपेक्षा घर बैठे बारह पा जाना ही श्रेयस्कर है।
बाहर जाकर अनेक कष्टों के बाद थोड़ा अधिक प्राप्त करने वालों के लिए यह कहावत प्रयुक्त होती है।
बारा-बारह, धूपे-धूप
धान के सुखाय ले, पानी छेंके के का काम।
धान सूख जाने के बाद पानी रोकने से क्या फायदा।
धान का पौधा सूख जाए, तो पानी देने से पौधा हरा नहीं हो सकता। उसी प्रकार कोई काम बिगड़ जाने पर उस पर खर्च करने से कोई लाभ नहीं हो सकता।
काम बिगड़ जाने के बाद उसको सुधारने के उपाय करने वालों के लिए यह कहावत कही जाती है।
सुखाय-सूखना, छेंके-रोकना
धान नो हे पान ए, डौकी असन बात ए।
धान नहीं पान है, स्त्रियों जैसी बात है।
स्त्रियों की बातों में सच्चाई नहीं होती। धान के पौधे के साथ उगने वाली घास-फूस को धान कहना गलता है। वस्तुतः वह तो घास-फूस के पत्ते हैं, धान के नहीं। स्त्रियों की बातें भी घास-फूस के समान महत्वहीन होती हैं।
जब किसी की बात में कोई तथ्य नहीं होता, तब यह कहावत कही जाती है।
डौकी-पत्नी, असन-जैसा
धना, पान, अउ खीरा, ए तीनों पानी के कीरा।
धान, पान और ककड़ी ये तीनों पानी के कीड़े हैं।
धान, पान और ककड़ी को अधिक पानी की आवश्यकता होती है।
अधिक पानी चाहने वाली फसलों की चर्चा में यह कहावत प्रयुक्त होती है।
अउ-और, कीरा-कीड़ा
धारन पोठ नइ ए त गेरवा ह का करही।
धारन मजबूत न हो, तो गेरवा क्या करेगा।
यदि किसी कमजोर खंभे में रस्सी से जानवर को बाँधा जाए, तो जानवर के जोर लगाने पर रस्सी न टूटकर खंभा ही टूट जाता है। जानवर के भागने में रस्सी का कोई दोष नहीं है। किसी कार्य का स्वामी ही उस कार्य के प्रति उदासीन हो, तो अन्य लोग क्या कर सकते हैं।
कार्य के प्रति प्रमुख व्यक्ति की उदासीनता को देख कर यह कहावत कही जाती है।
धारन-लकड़ी का खंभा, जिसे जमीन में गाड़कर रखा जाता है, गेरवा-मवेशियों को बाँधने के लिए प्रयुक्त रस्सी, नइ-नहीं, करही-करना
धुर्रा के बेठ बरत हे।
धूल को बटकर रस्सी बनाया है।
धूल को बटकर रस्सी नहीं बनाई जा सकती, परंत जो व्यक्ति कल्पना के आधार पर कोई काम करना चाहता है, वह धूल से रस्सी बनाने की बात करता है।
जो व्यक्ति अपनी हठधर्मो से किसी काम को करने के लिए कहता है, जिसे अन्य लोग कहते हैं कि वैसा नहीं हो सकता, उस व्यक्ति के लिए यह कहावत कही जाती है।
बेठ बरत हे-बट कर रस्सी बनाता है, धुर्रा-धूल
धोए मुरइ के उही मोल, बिन धोए मुरइ के उही मोल।
धुली हुई मूली का वही मूल्य, बिना धुली हुई मूली का वही मूल्य।
धुली हुई तथा न धुली हुई मूली की कीमत अलग-अलग होनी चाहिए। एक मूल्य होने से धुली मूली साफ दिखने के कारण बिक जाएगी और न धोने वाले विक्रेता की मूली जल्दी नहीं बिकेगी।
जब कोई व्यक्ति लोगों में भेद नहीं कर पाता और सबको एक सा समझता है, तब यह कहावत प्रयुक्त होती है।