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Chhattisgarhi Kahawat Kosh

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गंगा गेए हाड़ नइ बहुरै।
गंगा तक ले जाई गई हड्डी वापस नहीं लौटती।
सर्व विदित है कि गंगाजी में अस्थि-प्रवाह किया जाता है। जो व्यक्ति अस्थि-प्रवाह के लिए जाता है, वह येन-केन-प्रकारेण अस्थि-प्रवाह करके ही लौटता है।
जब किसी विदेश गए व्यक्ति के लौटने की कोई आशा नहीं, तब यह कहावत कही जाती है।
हाड़-हड्डी, बहुरै-वापस लौटना

गठरी के रोटी अउ पनही के गोंटी रहासी नइ परै।
गठरी में रोटी और जूते में कंकड़ नहीं रह पाती।
गठरी में रोटी रखकर चलने वाला व्यक्ति उसे बहुत समय तक गठरी में नहीं रहने देता, उसकी इच्छा उसे जल्दी खाने की होती है। उसी प्रकार, जूते में कंकड़ घुस जाने पर वह पैर को कष्ट पहुँचाता है, जिससे उसे जल्दी निकालने की इच्छा होती है।
जब पास रखी किसी वस्तु के लिए कोई लोभ संवरण न कर पाए, तब यह कहावत कही जाती है।
पनही-जूता, अउ-और, गोंटी-कंकड़, रहासी-रहना, नइ-नहीं, पै-पड़ना

गत न गरहन, सूपा भर ओरहन।
सूरत न शक्ल, सूपे भर गहने।
रंग-रूप ठीक नहीं होने पर खूबसूरत बनने के लिए ढेर सारे आभूषण पहन लेना बहुत हास्यास्पद लगता है।
व्यक्ति अपने किसी ऐब को ढकने के लिए विभिन्न आडंबर रचाए, तो यह कहावत कही जाती है।
गत-गरहन-सूरत-शकल, ओरहन-आभूषण, सूपा-सूप

गदहा के मूड़ माँ सींग।
गदहे के सिर पर सींग।
गइहे के सिर पर सींग नहीं होते। मूर्ख व्यक्ति के सिर पर भी सींग नहीं होते।
किसी की मूखर्तापूर्ण बातों को सुनकर यह कहावत कही जाती है।
गदहा-गधा, मूड़-सिर

गया नइ गिस त काबर भइस।
गया नहीं गए, तो पैदा क्यों हुए।
हिंदुओं में पिंड-दान करने के लिए गया को महत्वपूर्ण स्थान बताया गया है। माँ-बाप के ऋण से छुटकारा पाने के लिए उनकी मृत्यु के उपरांत पुत्र को गया जाकर पिंड-दान कराना चाहिए।
जो लड़का माँ-बाप की सेवा न कर सका, वह पुत्र किस काम का। ऐसे पुत्रों को ताना देते हुए यह कहावत कही जाती है।
नइ-नहीं, गिस-गया, बर-के कारण

गहूँ के रोटी टेड़गो मीठ।
गेहूँ की रोटी टेढ़ी भी मीठी होती हे।
गेहूँ की रोटी अन्य अनाजों की रोटी की तुलना में मीठी होने के कारण अधिक अच्छी लगती है, इसलिए यदि वह टेढ़ी भी हो जाए, तो उसकी बुराई की ओर ध्यान नहीं दिया जाता।
किसी अच्छी वस्तु में कोई खराबी आ जाए, तो वह त्याज्य नहीं होती, ऐसे समय में यह कहावत कही जाती है।
गहूं-गेहूं, टेड़गो-टेड़ी

गहूँ के संग माँ किरवा रमजाय।
गेहूँ के साथ कीड़ा पिस गया।
बड़ों के साथ रहने के करण छोटों का भी नुकसान हो जाता है।
किसी बड़े आदमी के साथ रहने में यदि उस व्यक्ति का नुकसान होता है, तो साथ में रहने वाले को भी नुकसान झेलना पड़ता है। किसी के आश्रित रहने वाले व्यक्ति को आश्रय दाता सहित संकट में पड़े देखकर यह कहावत कही जाती है।
किरवा-कीड़ा, रमजाय-पिस जाना

गाँठ माँ न कौड़ी, नाक छेदावन दौड़ी।
पास में कौड़ी भी नहीं है और नाक छिदाने के लिए दौड़ रही है।
पास में पैसे तो नहीं है, परंतु शौक पूरा करने की उत्कट अभिलाषा है।
औकात न होने पर भी शौक करने की इच्छा वाले व्यक्तियों के लिए यह कहावत कही जाती है।
गांठ मां-पास में

गाँठ माँ पैसा नहिं, आँखी काबर मारे?
गाँठ में पैसे नहीं है, तो आँख क्यों मारे?
किसी स्त्री को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए ईशारा करने से पहले देख लेना चाहिए कि उसकी माँगें पूरी करने के लिए पैसे हैं या नहीं।
बिना आधार के कोई काम हल कर डालने की चाह रखने वालों के लिए इस कहावत का प्रयोग होता है।
आंखीं-आंख, काबर-के कारण

गाँठ माँ पैसा है, त संगी के का दुकाल।
गाँठ में पैसे हैं, तो साथी की क्या कमी।
जिस के पास पैसे हों, उसे साथियों की कमी नहीं रहती, क्योंकि अन्य लोग उसके पैसे के कारण साथी बन जाते हैं।
पैसों से अनेक पिछलग्गू बन जाते हैं। ऐसे लोगों के लिए यह कहावत कही जाती है।
संगी-दोस्त, दुकाल-कमी


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