ठलहा बनिया का करै, ए कोठी के धान ला ओ कोठी माँ करै।
निठल्ला बनिया क्या करे, इस कोठी के धान को उस कोठी में रखे।
निठल्ला व्यक्ति अपने को व्यस्त दिखाने के लिए अनावश्यक कार्य करता है।
इस कहावत का प्रयोग निठल्ले व्यक्तियों के लिए किया जाता है, जो समय काटने के लिए इधर-उधर का कुछ काम करते हैं।
कोठ-धान रखने के लिए मिट्टी का बना हुआ गोला या चौकान कोठा, ए-इस, ओ-उस
ठाकुर देव ला मटिया ठगै।
ठाकुर देव को मटिया ठगती है।
ठाकुर देव ग्राम देव जैसा एक देवता माना जाता है। मटिया ठाकुर देव की बराबरी नहीं कर सकती और न ही सामान्यतया उसे ठग सकती है। यदि मटिया ठाकुर देव को ठग ले, तो यह आश्चर्य की बात है।
इसी प्रकार यदि कोई सामान्य बुद्धि का व्यक्ति किसी चालाक व्यक्ति को बेवकूफ बनाकर उससे कुछ ले जाए, तो यह कहावत कही जाती है।
ठाकुर देव-एक प्रकार का देवता, मटिया-बिल्ली के समान छोटी क प्रेतात्मा, ठगै-ठगना
ठिनिन-ठिनिन घंटी बाजै, सालिक राम के थापना। मालपुवा झलका के, मसक दिए अपना।।
ठन-ठन घंटी बाजै, शालिग्राम की स्थापना। मालपुवा दिखाकर, स्वयं खा गए।।
घंटे, घड़ियाल, आदि बजाकर शालिग्राम की स्थापना की गई। उसके लिए मालपुवे का भोग लगाया गया, जिसे पुजारी ने लोगों को दिखाकर बाद में स्वयं खा लिया। भगवान का वह प्रसाद लोगों को नहीं मिला।
पुजारी के समान जब कोई व्यक्ति किसी काम को करने के लिए अन्य लोगों की सहायता लेता है और काम पूरा हो जाने पर उससे मिलने वाले लाभ का हिस्सा किसी को नहीं देता, तब वह उस व्यक्ति की स्वाथर्परता को लक्ष्य करके यह कहावत कही जाती है।
ठूँठवा मारै ठूँठ माँ, त गदगद हाँसी आवै। राजा मारै फूल माँ त रोवासी आवै।।
लूला ठूँठ से मारै, तो हँसी आवे। राजा फूल से मारै, तो रोना आवे।।
लूला व्यक्ति की कोहनी की मार यद्यपि राजा के फूल की मार से भारी होती है, तथापि वह हास्य-विनोद की मार होती है, जिससे उससे हँसी जाती है। राजा के फूल की मार यद्यपि महसूस नहीं होती, तथापि राजा के क्रोध के डर से रोना आ जाता है। हास्य-विनोद में शारीरिक आघात की ओर भी ध्यान नहीं जाता, किंतु व्यंग्य में बहुत छोटी-सी बात भी चुभ जाती है।