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Chhattisgarhi Kahawat Kosh

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जइसे असी, तइसे खसी।
जैसे असी, वैसे खसी।
जैसे इतना किया, वैसे थोड़ा और कर के देख लिया जाए।
जब कोई व्यक्ति किसी काम में खूब मेहनत करता है और पैसे खर्च करता है और तब भी अनेकानेक कठिनाइयों के कराण काम पूरा नहीं होता, तब वह इस कहावत का प्रयोग कर के अपना आशय स्पष्ट करता है कि जब इतना कुछ किया, तब थोड़ा और करके देख लिया जाए।
असी-इतना, खसी-थोड़ा, जइसे-जैसा ही, तइसे-वैसा ही

जइसे उरई तइसे धान, एखर चुटइ न ओखर कान।
जैसे उरई वैसे धान, न इसकी चोटी और न उसका कान।
उरई और धान के पौधे एक जैसे होते हैं, परंतु उनमें असमानता भी होती है। न तो उरई की बेलें होती है और न धान के चौड़े पत्ते होते हैं।
जब दो अयोग्य व्यक्ति आपस में अपने को एक-दूसरे से श्रेष्ठ बताते हैं, तब यह कहावत कही जाती है। दोनों समान भी हैं और किसी में कोई दुर्गण है, किसी में कोई अन्य।
उरई-धान जैसा एक पौधा, जइसे-जैसे, तइसे-वैसे, एखर-इसका, चुटइ-चोटी, ओखर-उसका

जइसे नोनी के नाचा, तइसे बाबू के बाजा।
जैसा लड़की का नाच होगा, वैसा लड़के का बाजा बजेगा।
जैसा काम कोई करता है, उसकी अच्छी या बुरी इच्छा को देखकर दूसरा भी उस के अनुकूल काम करता है।
दूसरों को देखकर काम करने वालों के लिए यह कहावत कही जाती है।
नोनी-लड़की, जइसे-जैसा, नाचा-नाच, तइसे-वैसा

जइसे ममा घर, तइसे डूमर तरी।
जैसे मामा के घर, वैसे गूलर के नीचे।
जिस प्रकार मामा के घर खाने के लिए कुछ नहीं है, उसी प्रकार गूलर वृक्ष के नीचे भी खाने को कुछ नहीं मिलता।
जिस व्यक्ति का निर्वाह न घर में हो और न ही मामा के घर, अर्थात् दोनों ओर उसे लाले पड़े, तब यह कहावत कही जाती है।
डूमर-गूलर, जइसे-जैसा, ममा-मामा, तइसे-वैसा, तरी-नीचे

जगत कहे भगत बइहा, भगत कहे जगत बइहा।
जगत भक्त को पागल कहता है, भक्त जगत को पागल कहता है।
दो भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों वाले व्यक्तियों के विचार आपस में नहीं मिलते। उनमें से प्रत्येक अपने विचार को ही सही मानता है तथा दूसरे के विचार को गलत। उनमें से दोनों की ही बातें उन के अपने-अपने दृष्टिकोण से ठीक होती हैं।
एक-दूसरे के विचारों को न मानने वाले लोगों के लिए यह कहावत कही जाती है।
बइहा-पागल

जँगरौता के खेत-खार, ठलहा के धनवारा।
शक्तिशाली का खेत, निठल्ले की कोठी।
शक्तिशाली व्यक्ति खेत में परिश्रम करता है, परंतु निठल्ले व्यक्ति का ध्यान कोठी के धान में रहता है।
निठल्ले व्यक्ति की अकर्मण्यता के लिए यह कहावत कही जाती है।
धनवारा-कोठी, जिसमें धान रखते हैं, ठलहा-निठल्ला, जंगरौता-शक्तिशाली

जत के ओढ़ना, तत के जाड़।
जितना वस्त्र, उतनी ठंड।
अधिक वस्त्र पहनने वाला व्यक्ति ठंड खाने से अभ्यस्त न होने के कारण ठंड महसूस करता है, परंतु जिनके पास वस्त्र नहीं होते, वे ठंड सहने के अभ्यस्त हो जाते हैं, जिससे वे उससे परेशान नहीं होते।
गरीब लोगों के पास कपड़े न होने पर भी ठंड में अपना काम करते हैं और अमीर गरम कपड़ों से लदे होकर भी ठंड का अनुभव करते हैं। ऐसे लोगों के लिए यह कहावत कही जाती है।
जतके-जितना, ओढना-ओढ़ने का वस्त्र, ततके-उतना ही, जाड़-ठंड

जतके गुर, ततके मीठ।
जितना गुड़, उतना मीठा।
जितना गुड़ डाला जाएगा, वस्तु उतनी ही मीठी होगी। इसी प्रकार जो जितना मेहनत करेगा, उसे उतना ही अच्छा फल मिलेगा।
लोगों के परिश्रम के अनुसार उन्हें परिणाम मिलने पर इस कहावत का प्रयोग है।
जतके-जितना, गुर-गुड़, ततके-उतना, मीठ-मीठा

जनम के ररूहा, तेमाँ भूतहा हाड़ा पागे।
जन्मजात दरिद्र को भूतहा हड्डी मिल गई।
एक तो जन्म से ही दरिद्र है, ऊपर से भूतहा हड्डी मिलने से उसकी दरिद्रता और बढ़ गई। जब कोई व्यक्ति पहले से ही किसी मुसीबत में फँसा हो तथा उस पर कोई मुसीबत और आ पड़े, तब उसकी कठिनाई और बढ़ जाती है।
मुसीबत में फँसे हुए ऐसे व्यक्ति के लिए यह कहावत कही जाती है।
भूतहा हाड़ा-ऐसी हड्डी, जिसमें भूत का निवास हो, जनम-जन्म, ररूहा-दरिद्र, तेमां-उसमें, पागे-पाना

जब के आमा, तब के लबेदा।
जब आम, तब डंडे।
जब आम आएँगे, तब डंडे से मारकर गिराए जाएँगे।
जब कोई व्यक्ति भविष्य के संबंध में अनेक कल्पित बातें करता है, तब उसे भविष्य की अनिश्र्चतता या समय आने तक प्रतीक्षा बताने के लिए यह कहावत कही जाती है।
लबेदा-डंडा, आमा-आम


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