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Chhattisgarhi Kahawat Kosh

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घर के परसोइया, अउ आँधियारी रात।
घर का परोसने वाला और अँधेरी रात।
एक तो घर का ही व्यक्ति खाना परोसने वाला हो और ऊपर से अँधेरी रात हो, तो चाहे जितना खाओ, चाहे जितना बाँधकर ले जाओ, कोई देखने वाला नहीं होता।
मनमौजी कार्यों के लिए यह कहावत कही जाती है।
परसोइया-परोसने वाला, अउ-और, अंधियारी-अंधेरी

घर के पिसान ला कुकुर खाय, परिथन बर माँगे जाय।
घर के आटे को कुत्ता खाता है, पलेथन के लिए दूसरे से आटा माँगना पड़ता है।
अपनी चीजों को संरक्षित न रख पाना।
अपनी वस्तु को सुरक्षित न रख कर दूसरों से किसी वस्तु को माँगने वालों के लिए यह कहावत कही जाती है।
पिसान-आटा, परिथन-पलेथन

घर के भेदी, लंका छेदी।
घर का भेदी, लंका ढाए।
घर का भेद देने वाला घर वालों का जड़-मूल से नाश करता है।
जब किसी से मिला हुआ व्यक्ति उस के दुश्मन से मिलकर भेद बता देता है, तब उसे नीचा दिखाने में उसके दुश्मन को आसानी हो जाती है। यह कहावत विभीषण के राम-भक्त होने और लंका के ढह जाने के कारण प्रचलित हुई।
छेदी - छेद करने वाला।

घर के मुर्गी, दार बराबर।
घर की मुर्गी, दाल बराबर।
जो वस्तु सुलभ हो, उसका मूल्य घट जाता है।
इस कहावत का प्रयोग ऐसेअवसर पर किया जाता है, जब कोई विसक्त सहज ही उपलब्ध वस्तु की मूल्य घट जाए
मुरगी-मुर्गी,

घर गोसइयाँ ला पहुना डरवावै।
घर-मालिक को मेंहमान डराता है।
जब कोई मेहमान किसी का वस्तुओं को अपना मानकर उनका उपयोग करने लगता है, लब उसके कार्य से घर वाला को तकलीफ होने लगती है।
जब कोई व्यक्ति किसी का वस्तु पर अधिकार कर लेता है, तब यह कहावत कही जाती है।
पहुना-मेहमान, गोसइया-पति, डरवाव-डरवाना

घर दुवार तोर बहुरिया, डहरी मा पाँव झन देहा।
बहू, घर-द्वार तुम्हारा है, परतु देहली से बाहर कदम न रखना।
किसी बहू को घर-द्वार सौंप देने का अर्थ उसे घर में बंद कर देना हो गया, कयोंकि उसे घर देने के बहाने उससे अधिकार को छीन लिया गया।
किसी के अधिकार को छीनकर उसे अधिकार देने की बात पर यह कहावत कहीं जाती है।
NA

घर देख बहुरिया निरवारै।
बहू घर के अनुरूप हो जाती है।
जब कोई बहू ससुराल जाकर वहाँ के लोगों के स्वभाव के अनुसार ढल जाती है, तब उसके स्वभाव मे हुए परिवर्तन को देखकर यह कहावत कही जाती है।
समय को देखकर अपने स्वभाव में परिवर्तन कर लेने वालो के लिए यह कहावत कहा जाता है।
बहुरिया-बहू, निरवारै-अनुरूप

घर माँ खाय सीट्ठा साग, बाहर मा रेंगै अलगे डारि।
घर में सीठी सब्जी खाना, बाहर अलग रास्ते पर चलना।
घर में तो खाने के लिए नमक तक नहीं हैं, परंतु, बाहर रौब दिखाना।
गरीबी को छिपाकर अपने को बड़ा आदमी बताने का ढोंग करने वालों के लिए यह कहावत कही जाता है।
खाय-खाना, सीट्ठा-बिना स्वाद का, साग-सब्जी, बाहिर-बाहर, रेंगै-चलना, अलगे-अलग, डार-की ओर

घर माँ बल करे, खोर मा पाँव परै।
घर मे बल प्रदशित करतां है, गली में पैर पड़ता है।
घर में आरा के सहारे अकड़ने तथा बाहर अपनी सामर्थ्य की वास्तविकता जानकर पैर पड़ने वाले।
झूठा शक्ति दिखाने वालो के लिए यह कहावत कही जाती है।
खोर-बाहर, परै-पड़ना

घर माँ भूँजी भाँग नहिं, पिछोत मेंछा अइठय
घर मे भूंजी भाग नही, पीछे मूछ ऐठना।
घर में खाने के लिए वस्तु का अभाव है, फिर भी मूँठ ऐंठते हुए अपने को धनवान कहता है।
इस कहावत का प्रयोग ऐसे व्यक्तियों के लिए होता है, जिनके पास होता तो कुछ भी नहीं है, परंतु प्रदर्शन ऐसा-करते हैं, जिससे लोग उन्हें धनी समझें।
पिछोत-घर के पीछे, मेंछा-मूँछ, नहिं-नहीं, अइठय-ऐंठना


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