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Chhattisgarhi Kahawat Kosh

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काहाँ जाबे धमना, काबर बुल के एहि अँगना ?
धमना, इस आँगन को पार कर के कहाँ जाओगे?
तुम हमें छोड़कर कहाँ जाओगे, यदि तुम्हारा कोई और होता, तभी जा सकते थे।
जिसका एक के सिवाय कोई और नहीं होता, उस के लिए यह कहावत कही जाती है।
धमना-व्यक्ति-विशेष के लिए संबोधन, अँगना-आँगन, काबर-के कारण, एहि-यही

किराय कुकुर कस किंजरत है।
कीड़े-पड़े हुए कुत्ते के समान घूमता है।
किसी कुत्ते के घाव में कीड़े पड़ जाने पर वह पागल हो जाता है।
पागल के समान इधर-उधर भटकने वाले व्यक्ति के लिए यह कहावत कही जाती है।
किंजरत है-घूमना

कुँआ के मेंचका, कुँवे के हाल ला जानही।
कुएँ का मेंढक कुएँ की ही बातों को जानेगा।
कुएँ में रहने वाला मेंढक बाहर की बातों को नहीं जानता।
सीमित ज्ञान वाला व्यक्ति अपनी सीमा से अधिक कुछ नहीं जानता। ऐसे व्यक्तियों के लिए 'कूप मंडूक' के अर्थ में यह कहावत कही जाती है।
मेंचका-मेंढक

कुँवार कस कुकुर बेवाँय हे।
क्वाँर के कुत्ते के समान बौरा हो गया है।
क्वाँर के महीने में कुत्ते कामांध रहते है।
ऐसे व्यक्ति जो बुरी नियत से लड़कियों से छेड़-छाड़ करते हुए दिखाई पड़ते हैं, उन के लिए यह कहावत कही जाती है।
बेवाँय-बौर, कुंवार-क्वांर, कुकुर-कुत्ता

कुकरी के पेट माँ हीरा।
मुर्गी के पेट में हीरा।
बेकार में अच्छी चीज।
कद में मुर्गी के समान छोटी और बदसूरत दिखाई पड़ने वाली स्त्री के पेट से खूबसूरत बच्चे पैदा होने पर यह कहावत कही जाती है।
कुकरी-मुर्गी

कुकरी ह खूब मिठाथे त ओला कच्चा नइ खय।
मुर्गी खाने में बहुत अच्छी लगती है, तो उसे कच्चा नहीं खाते।
यदि कोई व्यक्ति किसी की मदद करता है, तो उसका अधिक शोषण नहीं किया जाता।
अच्छे व्यक्ति पर ज्यादा जुल्म न ढहने की स्थिति में यह कहावत कही जाती है।
कुकरी-मुर्गी, मिठाथे-स्वाद लगना, ओला-उसको, नइ-नहीं, खाय-खाना

कुकुर अपन पूछी ल टेड़गा कब कहिथे?
कुत्ता अपनी पूंछ को टेढ़ा कब कहता है ?
कोई व्यक्ति अपनी वस्तु को खराब नहीं कहता।
सभी अपनी चीजों को अच्छा बताते हैं, इसी परिपेक्ष्य में यह कहावत कही जाती है।
टेड़गा-टेढ़ा, कुकुर-कुत्ता, अपन-अपना, पूछी-पूंछ

कुकुर के पूछी जब रइहीं टेड़गा।
कुत्ते की पूंछ जब भी रहेगी टेढ़ी।
बुरा मनुष्य कभी सुधर नहीं सकता। इसके लिए कबीर की यह उक्ति प्रसिद्ध है 'कोयला होय न उजला, सौ मन साबुन धोए'। आदत मनुष्य का अंग बन जाती है, अतः जानते हुए भी, उससे बचना संभव नहीं होता।
ऐसे व्यक्ति जो समझाने पर भी नहीं समझते, उन के लिए किंचित रोष के साथ यह कहावत कही जाती है।
कुकुर-कुत्ता, पूछी-पूंछ, टेड़गा-टेड़ा

कुकुर गुह लीपे के न पोते के।
कुत्ते का गू, न लीपने का और न पोतने का। सवर्था अनुपयोगी एवं घृणास्पद वस्तु।
गुऊ के गोबर को पवित्र एवं कृमिनाशक मानते हैं। हिंदू लोग इससे चौके की लिपाई करते हैं। परंतु कुत्ता जो सहज ही अपावन है, उसका गू उससे अधिक अपवित्र होता है, जिससे कोई उपयोग नहीं होता।
कोई व्यक्ति जब किसी काम में हाथ नहीं बँटाता, तब उसकी अकर्मण्यता को लक्ष्य कर के इस कहावत का प्रयोग किया जाता है।
कुकुर-कुत्ता, गुह-मल

कुकुर भूँ के हजार, हाथी चलै बाजार।
कुत्ता कितना भी भौंके, हाथी अपने मार्ग पर ही चलता है।
प्रभुता-संपन्न व्यक्ति छोटे-मोटे लोगों की बातों से घबड़ाकर अपने दायित्व का परित्याग नहीं करता।
सामर्थ्यवान व्यक्ति अपनी आलोचनाओं से नहीं घबराता और अपना काम करते ही रहता है, इसी परिपेक्ष्य में यह कहावत कही जाती है।
कुकुर-कुत्ता


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