यदि कोई दुष्ट व्यक्ति किसी के अनिष्ट की कामना करता है और यह भाव लोगों के सामने व्यक्त करता है, तो श्रोता उसे इस कहावत के द्वारा चुप कर देते हैं।
नइ-नहीं, मरै-मरना ले-के
कौवा भए चलाचल, मितान ला दोस लगाय।
जब कौवे को जाना हुआ, तब उसने अपने मित्र पर दोष लगाया।
कौवे को जब तक अपने मित्र की गरज थी, तब तक वह उस के साथ रहा। गरज समाप्त हो जाने पर वह अपने मित्र से छुटकारा पाने के लिए उसे दोषी बताकर चला गया।
जब कोई गरजमंद व्यक्ति किसी की खुशामद करता है और गरज समाप्त हो जाने पर उसकी बुराई करता है, तब यह कहावत कही जाती है।
चलाचल-जाना, मितान-दोस्त, दोस-दोष
खर गुर ए के भाव।
नमक और गुड़ एक ही भाव।
नमक और गुड़ एक ही भाव से नहीं बिकता। नमक सस्ता तथा गुड़ महँगा होता है।
जब योग्य और अयोग्य व्यक्ति को समान इज्जत मिले, तब यह कहावत कही जाती है।
खर-नमक, गुर-गुड़, एके-एक ही
खरिखा बर पैरा नइ पूरै।
जानवरों के झुंड के लिए पैरा भी पूरा नहीं पड़ता।
अधिक व्यक्तियों के लिए सरलता से उपलब्ध वस्तु भी कम पड़ जाती है।
सामान कम हो, उपयोग करने वाले व्यक्ति अधिक संख्या में हों, तो यह कहावत कही जाती है।
खरिखा-जानवरों का झुंड, बर-के लिए, नइ-नहीं, पूरै-पूरना
खरी बिनौला सड़वा खाय, जोते फाँदे बड़वा जाय।
खली-बिनौला साँड़ खाता है तथा जोतने फाँदने के लिए पूँछ कटा बैल होता है।
साँड़ बढ़िया खाना पाता है, जो खेती का कोई काम नहीं करता तथा काम करने वाले बैल को कुछ भी नहीं मिलता।
इस कहावत का प्रयोग तब होता है, जब परिश्रम कोई और करता है तथा फल किसी और को मिलता है।
सड़वा-सांड, खाय-खाना, बड़वा-पूंछ कटा बैल
खसू बर तेल नहीं, घोरसार बर दिया।
खुजली में लगाने के लिए तो तेल नहीं है, पर घोड़ा बाँधने वाले स्थान में दीपक कहाँ से जलाया जाए।
खुजली से आराम पाने के लिए उसमें लगाने के लिए तेल की आवश्यकता है, तो उसे कहाँ से दिया जाए।
आवश्यक कार्य की पूर्ति के लिए पैसे नहीं है, फिर अनावश्यक कार्य के लिए कहाँ से पैसे खर्च किए जाएँ। ऐसी परिस्थितियों के लिए यह कहावत कही जाती है।
खसू-खुजली, बर-के लिए, घोरसार-घोड़ा बांधने का स्थान
खाँड़ा गिरै कोंहड़ा माँ, त कोंहड़ा जाय।
कोंहड़ा गिरै खाँड़ा माँ, त कोंहड़ा जाय।
यदि तलवार कुम्हड़े पर गिरेगी, तो कुम्हड़ा ही नष्ट होगा और कुम्हड़ा तलवार पर गिरेगा, तो भी कुम्हड़ा ही नष्ट होगा।
चाहे कमजोर व्यक्ति शक्तिशाली से टकराए अथवा शक्तिशाली कमजोर से टकराए, दोनों ही स्थितियों में नुकसान कमजोर का ही होगा। कुछ ऐसे ही परिपेक्ष्य में यह कहावत कही जाती है।
कोंहड़ा-कद्दू, जाय-जाना
खाई मीठ त माई मीठ।
मीठा-मीठा खाना देने पर माँ मीठी लगती है।
माँ भी तभी प्यारी है, जब वह बढ़िया खाना खिलाती है।
वही व्यक्ति अच्छा लगता है, जो हमेशा कुछ-न-कुछ देता रहता है। ऐसी स्थितियों के लिए यह कहावत कही जाती है।
माई-मां
खाए के बेर भाई भतीज, जूझे के बेर देवर ससुर।
खाने के वक्त भाई-भतीजे, लड़ने-भिड़ने के वक्त देवर-ससुर।
स्त्रियाँ स्वभावतः मैहर वालों का पक्ष लेती हैं। वे खाना खिलाने के मामले में मैहर वालों को तथा काम लेने के मामले में ससुराल वालों को प्राथमिकता देती हैं।
किसी स्त्री के द्वारा उसके मैहर वाले को कुछ लाभ मिलते देखकर यह कहावत कही जाती है।
बेर-वक्त, भतीज-भतीजा
खाए त खाए फेर थारी ल काबर
खाना खाए तो खाए, पर थाली क्यों फोड़े।
ऐसा व्यक्ति जो किसी से कुछ पाकर भी उसका नुकसान पहुँचाए, वह व्यक्ति कृतघ्न है।
कृतघ्न व्यक्ति के लिए यह कहावत उपयोग में लायी जाती है।