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Chhattisgarhi Kahawat Kosh

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काना ल भावौं नहिं, काना बिना रहौं नहिं।
काने को पसंद नहीं करती, काने के बिना रह नहीं सकती।
ऐसी स्त्री जो काने को पसंद नहीं करती, परन्तु उसके बिना रह भी नहीं सकती, उसकी स्थिति मजबूरी की होती है।
जब कोई व्यक्ति किसी को नहीं चाहते हुए भी उस के साथ रहने के लिए मजबूर हो जाता है, तब यह कहावत कही जाती है।
भावौं-पसंद करना, रहौं-रहना, नहिं-नहीं

कानी आँखी तउन माँ काजर आँजै।
कानी आँखों में काजल लगाती है।
कानी स्त्री जिसे आँख से देख नहीं सकती, यदि काजल लगाए, तो इससे उसकी बदसूरती और भी बढ़ जाती है।
जब कोई बदसूरत स्त्री श्रृंगार करती है, तब उस पर व्यंग्य कसने के लिए यह कहावत कही जाती है।
आंखी-आंख, तउन-तब, काजर-काजल, आंजैं-लगाना

कानी कुतिया गले लगावै, दे पिलवा के माथे।
कानी कुतिया को पालने से उस के बच्चों को भी पालना पड़ जाता है।
कानी कुतिया को पालने से उस के बच्चों को भी पालना पड़ता है।
किसी असहाय व्यक्ति का भार-वहन करने वालों को उस के परिवार का भी भार वहन करना पड़ जाए, तो यह कहावत कही जाती है।
पिलवा-पिल्ला

कानी कुतिया ला कोड़हा अमोल।
कानी कुतिया के लिए कोड़हा भी मूल्यवान।
कानी कुतिया के लिए कोढ़ा जैसी मूल्य हीन वस्तु भी न देख पाने के कारण दुलर्भ हो जाती है।
गरीब व्यक्ति यदि बहुत साधारण वस्तु पा जाए, तो वह उसे मूल्यवान समझता है। ऐसे परिपेक्ष्य में यह कहावत कही जाती है।
कोड़हा-धान बारीक भूसा

कानी गाय के अलगे कोठा।
कानी गाय के लिए अलग कमरा।
जब कानी गाय से कोई लाभ होने वाला नहीं है, तब उसे अलग कमरे में रख कर खिलाना-पिलाना व्यर्थ है।
कोई अकर्मण्य व्यक्ति अपने लिए विशेष सुख-सुविधा चाहे, तो उसके लिए यह कहावत कही जाती है।
अलगे-अलग, कोठा-गाय को बांधने का स्थान

काम कमई पागी ढील, कूढ़ा अकन आगू लील।
काम करने में कमर के वस्त्र ढीले पड़ जाते हैं, परंतु खाने के लिए पहले से पहुँच कर खूब सारा खाना खा लेता है।
आलसी व्यक्ति खाने के लिए पहले पहुँच जाता है।
किसी दफ्तर में काम करने वाला लिपिक यदि अपना काम न करके प्रायः घूमता-फिरता रहे और पहली तारीख को वेतन लेने के लिए सबसे पहले आ जाए, तो ऐसे व्यक्ति के लिए यह कहावत चरितार्थ होती है।
कूढ़ा-ढेर, पागी-काँछ, कमई-कमाई, अकन-जैसे, आगू-पहले, लील-खा जाना

काम के न धाम के, दौरी बर बजरंगा।
काम-धाम का तो है नहीं, परंतु दौरी के लिए शूरवीर।
आलसी बैल जोतने-फाँदने के काम से जी चुराते हैं, परंतु दौरी में जुतने के लिए तैयार रहते हैं, क्योंकि वहाँ उन्हें खाने के लिए मिलता है।
ऐसे कामों में रूचि दिखाना जिसमें लाभ हो, तो ऐसे परिपेक्ष्य में यह कहावत कही जाती है।
दौरी-धान मिंजाई के लिए बैलों को चक्कर लगवाना

काम बूता कहूँ जाय, खाय के बेर पहुँच जाय।
काम करे या न करे, परंतु खाने के लिए पहले पहुँच जाता है।
जो व्यक्ति काम नहीं करता, इधर-उधर घूम-फिर कर अपना समय बरबाद कर देता है, परंतु खाने के लिए सबसे पहले पहुँच जाता है, वह उपेक्षा का पात्र होता है।
कोई कामचोर व्यक्ति यदि पारिश्रमिक लेने के समय हाय-तौबा मचाए, तो उस पर व्यंग्य कसने के लिए यह कहावत कही जाती है।
बूता-काम, कहूं-कहीं भी, खाय-खाना, बेर-वक्त, जाय-जाना

काम सर गे दुख बिसरा गे।
काम समाप्त हो गया, दुःख भूल गया।
अवसरवादिता।
इस कहावत का प्रयोग ऐसे लोगों के लिए होता है, जो मतलब सधते तक दोस्ती रखते हैं तथा मतलब सध जाने पर पूछते तक नहीं।
बिसर गे-भूल जाना

कारी बिलइ लमचोंची चिरइ।
काली बिल्ली और लंबी चोंच वाली चिड़िया।
शारीरिक कुरूपता।
किसी स्त्री की कुरूपता को स्पष्ट करने के लिए ( जो बिल्ली के समान काली तथा चिड़िया की चोंच के समान लंबे मुँह वाली हो) यह कहावत कही जाती है।
चिरइ-पक्षी, बिलइ-बिल्ली, लमचोंची-जिसका चोंच बड़ा हो


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