जब किसी चीज के अर्ध भाग को कोई व्यक्ति अकेले ही ले ले और शेष वस्तु सारे सदस्यों में वितरित करे, ऐसा व्यक्ति अपनी स्वार्थ को ध्यान में रखकर करता है।
व्यक्ति की स्वार्थपरता को लक्ष्य करके यह कहावत कही जाती है।
जगधर-ऐसा व्यक्ति, जो किसी वस्तु का आधा भाग स्वयं हड़प जाए
आन गाँव जाय, आन नाव धराय।
अन्य गाँव जाना, अन्य नाम रखाना।
जब कोई व्यक्ति अपना गाँव छोड़कर किसी अन्य गाँव में जाकर रहने लगता है, तब वहाँ के लोग उसकी अच्छाई-बुराई शीघ्र नहीं समझ पाते, ऐसी स्थिति में यदि गुणी व्यक्ति की बेइज्जती होने लगे या अवगुणी व्यक्ति को इज्जत मिलने लगे तब इस धोखे के कारण वहाँ के लोग उसे कुछ का कुछ नाम देने लगते हैं।
परदेश में किसी की प्रतिष्ठा अपेक्षाकृत बढ़ जाने अथवा घट जाने पर यह कहावत कही जाती है।
आन-दूसरा, जाय-जाना, नाव-नाम, धराय-धराना
आन बियाय, आन पथ खाय।
कोई बच्चा पैदा करे और कोई पथ्य खाए।
प्रसव करने वाली स्त्री को पौष्टिक सामग्री से बनाए गए लड्डुओं का सेवन कराया जाता है, जिससे उसका खून बढ़े और स्वास्थ्य सुधरे। अन्य किसी स्त्री द्वारा ऐसे लड्डुओं का सेवन किया जाना निष्प्रयोजन तथा दूसरे का हक छीनना है।
कष्ट पाने वाले या वास्तविक अधिकारी को उससे संबंधित फल न मिलकर किसी और को मिलने पर यह कहावत कही जाती है।
आन-दूसरा, बियाय-प्रसव करना, पथ-पथ्य, खाय-खाना
आप जाय जजिमानो ला ले जाय।
स्वयं जाना तथा यजमान को भी ले जाना।
पंडित जी अपने साथ अपने यजमान को ले डूबे, जिससे उनकी हानि तो हुई ही, यजमान को भी हानि का भागीदार बनना पड़ गया।
जब कोई व्यक्ति पंडित जी के समान अपना नुकसान तो कराता ही है, साथ अपने मित्रों का भी नुकसान कराता है, तब उस व्यक्ति के लिए यह कहावत कही जाती है।
जाय-जाना, जजिमान-यजमान
आप राज न बाप राज, मूँड़ मुँड़ाय दमाद के राज।
न अपना राज्य, न अपने बाप का राज्य, दामाद के राज्य में सिर घुटाया।
कोई व्यक्ति अपने और अपने बाप के कार्य-क्षेत्र में की कार्य न कर के दामाद के कार्य-क्षेत्र में उस कार्य को करते हुए हानि उठाता है।
किसी अपरिचित स्थान में या ऐसे क्षेत्र में जिसमें स्वयं का कोई अनुभव न हो तो अपना व्यापार प्रारंभ कर के घाटा उठाने पर यह कहावत कही जाती है।
मूंड़-सिर, मुंड़ाय-मुंडन, दमाद-दामांद
आप रूप भोजन, पर रूप सिंगार।
भोजन अपनी पसंद से और श्रृंगार दूसरों की पसंद से।
भोजन अपनी इच्छा के अनुसार करना चाहिए और श्रृंगार दूसरों की पसंद के अनुसार करना चाहिए।
श्रृंगार के संबंध में सीख देने के लिए इस कहावत का प्रयोग होता है कि सजावट दूसरों को दिखाने के लिए होती है और भोजन निजी स्वास्थ्य के लिए होता है।
सिंगार-श्रृंगार
आपन कारन मलिया जेंवावै खीर।
अपनी गरज के लिए मनुष्य महाब्राम्हण को खीर खाने के लिए आमंत्रित करता है।
व्यक्ति की गरज महाब्राम्हण से होने के कारण उसके लिए परोसी गई खीर वह स्वयं न खाकर महाब्राम्हण को खाने के लिए कहता है, जिससे वह उस पर प्रसन्न होकर आवश्यकता पूरी कर दे।
जब कोई व्यक्ति किसी वस्तु के लिए अटक जाता है, तब वह निम्न स्तर वाले की खुशामद करता है। ऐसे परिपेक्ष्य में यह कहावत कही जाती है।
पके आम मिलने पर पोपला बहुत प्रसन्न होता है। जब तक आम पकते रहे, तब तक पोपला उन्हें खाकर आनंदित रहा। आम झड़ते ही पोपला भी मर गया। पोपले को मरना तो था ही, परंतु वह उचित अवसर पर मरा अर्थात् पके आमों का स्वाद लेने के बाद ही।
जब संयोगवश कोई काम बन जाए, तब यह कहावत कही जाती है।
आमा-आम, झरती-झरना, भोभला-पोपला, मरती-मरना
आमा गेदरावत हे, भोभला मेंछरावत हे।
आम पक रहे हैं, पोपला व्यक्ति खुश हो रहा है।
पोपले के लिए सबसे बढ़िया खाद्य पदार्थ आम है, जिसे पकता देखकर वह बहुत प्रसन्न होता है।
मनचाहे काम को पूरा होते देखकर जो व्यक्ति प्रसन्न होता है, उस के लिए यह कहावत कही जाती है।
आमा-आम, भोभला-पोपला, गेदरावत हे-पक रहा है, मेंछरावत हे-प्रसन्न होता है।
आय न जाय, चतुरा कहाय।
आता-जाता तो कुछ नहीं, चतुर कहलाता है
कई व्यक्ति ऐसे होते हैं जिन्हें अपने काम के संबंध में कुछ भी पता नहीं होता पर वे चालाक समझे जाते हैं।
ऐसा व्यक्ति जो किसी काम के संबंध में नहीं जानता, परंतु उस काम के लिए अपने को होशियार कहता है, उसकी बातों को समझ जाने पर उस के लिए यह कहावत कही जाती है।