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Bharatiya Itihas Kosh

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औरंगजेब
भारत का छठा मुगल बादशाह (१६५९-१७०७ ई.)। वह शाहजहाँ (दे.) (१६२७-१६५९ ई.) का तीसरा पुत्र था। जब वह शाहजादा था तभी से महत्त्वपूर्ण प्रशासकीय और सैनिक पदों पर था। दक्षिण में दो बार और अफगानिस्तान में एक बार वह बादशाह का प्रतिनिधि रह चुका था। इन पदों पर काम करते हुए उसने बड़ी योग्यता साहस और परिश्रम का परिचय दिया। उसमें ये गुण बहुतायत से थे जिनका परिचय उसने बादशाह होने पर भी दिया। १६५७ ई. में जब उसका पिता शाहजहाँ बीमार पड़ा, उस समय वह दक्षिण में बादशाह का प्रतिनिधि था। उसके बड़े भाई दाराशिकोह को शाहजहाँ दिल्ली के तख्त पर बैठाना चाहता था, वह उसके पास था। शाहजहाँ का दूसरा पुत्र शुजा बंगाल में शासक था और चौथा तथा सबसे छोटा पुत्र मुराद गुजरात में बादशाह का प्रतिनिधि था। जैसे ही शाहजहाँ की बीमारी की खबर मिली, शुजा ने बंगाल में अपने को बादशाह घोषित कर दिया और गुजरात में मुराद ने भी वैसा ही किया। इन परिस्थितियों में औरंगजेब ने भी तख्त पाने की कोशिश करने का निश्चय किया। उसने मुराद से सुलह करके यह तय किया कि दोनों मिलकर कोशिश करें और विजयी होने पर सल्तनत को आपस में बाँट लें। इस तरह उत्तराधिकार के लिए शाहजहाँ के चारों पुत्रों में भ्रातृयुद्ध शुरू हो गया। औरंगजेब और मुराद की संयुक्त सेना ने उज्जैन के निकट अप्रैल १६५८ ई. में धर्मर और मई १६५८ ई. में सामूगढ़ की लड़ाइयों में शाही सेना को पराजित कर दिया। सामूगढ़ की लड़ाई में शाहजादा दारा खुद मौजूद था और हार के बाद वह भाग कर आगरा चला गया। विजयी भाइयों की संयुक्त सेना दाराशिकोह का पीछा करती हुई आगरा पहुँची और ८ जून १६५८ ई. को आगरा किले तथा उसके खजाने का समर्पण हो गया। बूढ़ा बादशाह शाहजहाँ जीवनपर्यंत बंदी बना रहा। औरंगजेब ने १६५७ ई. में गुजरात के दीवान की हत्या के अभियोग में मुराद को फांसी दिलवा दी। इसी बीच में शुजा को दारा के लड़के सुलेमान ने फरवरी १६५८ ई. में बनारस के पास बहादुरपुर की लड़ाई में पराजित कर दिया। बाद में उसने फिर से कुछ फौज इकट्ठी कर ली। औरंगजेब ने खुद सेना का संचालन कर विरुद्ध बंगाल पर चढ़ाई की और उसे खजवा की लड़ाई में पराजित किया। औरंगजेब के सेनापति मीर जुमला ने शुजा का पीछा किया और उसे पहले दक्षिण की ओर और बाद में अराकान की ओर (मई १६६० ई.) भागने पर मजबूर किया, जहाँ उसका पूरा परिवार नष्ट हो गया। आगरा पर औरंगजेब का अधिकार हो जाने के बाद दाराशिकोह वहाँ से भागा। औरंगजेब की सेना ने उसे अप्रैल १६५९ ई. में दौराई की लड़ाई में पराजित किया और जून के महीने में दाराशिकोह धोखा देकर पकड़ लिया गया। औरंगजेब ने उसको जलील किया और उसके विरुद्ध धर्मद्रोही होने का अभियोग लगाकर ३० अगस्त १६५९ ई. को उसे भी फांसी पर चढ़ा दिया। इस प्रकार अपने सभी भाइयों में औरंगजेब अकेला बच गया। उसने अनौपचारिक रूप से २१ जुलाई १६५८ को बादशाह शाहजहाँ को आजीवन कैद में डाल कर गद्दी प्राप्त कर ली थी। जून १६५९ में वह औपचारिक रूप से तख्तनशीन हुआ और 'आलमगीर' (विश्व-विजेता ) का खिताब धारण किया।
औरंगजेब की बड़ी बेगम दिलरास बानो के पाँच लड़के थे। उनमें से मुहम्मद को १६७६ ई. में गुप्तरीति से फांसी पर चढ़ा दिया गया। मुअज्जम उसका उत्तराधिकारी बना। आजम औरंगजेब की मृत्यु के बाद होनेवाले उत्तराधिकार युद्ध में मारा गया। अकबर ने अपने पिता के विरुद्ध विद्रोह कर दिया और उसे देश छोड़कर फारस भागना पड़ा, जहाँ १७०४ ई. में वह मर गया और कामबख्श १७०९ ई. में उत्तराधिकार-युद्ध के दौरान मारा गया।
अपने पूर्वाधिकारियों की भाँति औरंगजेब ने मुगल साम्राज्य को बढ़ाने के लिए अथक् प्रयास किया। १६६१ ई. में उसने पालामऊ को जीतकर अपने साम्राज्य में मिला लिया। अगले वर्ष सेनापति मीर जुमला के नेतृत्व में मुगल सेना ने आसाम में गढ़गाँव पर चढ़ाई बोल दी जो उस समय अहोम राजाओं की राजधानी थी। अहोम राजा को मुगलों से सन्धि करनी पड़ी और वर्तमान दरंग जिले का काफी बड़ा हिस्सा मुगलों को देना पड़ा। हर्जाने की बड़ी रकम के अलावा सालाना नजराना देने की शर्त भी उसे माननी पड़ी। १६६६ ई. में मुगलों ने बंगाल की खाड़ी के संद्वीप और चटगाँवको जीत लिया। १६६७ ई. में पश्चिमोत्तर सीमापर अफगानों ने विद्रोह कर दिया, उसे १६७५ ई. तक दबा दिया गया। औरंगजेब के दरबार में मक्का के शरीफ और फारस के शाह, बलख, बुखारा, कासगर, खीवा और अबीसीनिया जैसे दूरवर्ती मुस्लिम देशों के राजदूत उपस्थित रहते थे।
१६७९ ई. में मुगलों और राजपूतों में लड़ाई शुरू हो गयी जिसमें मेवाड़ के राणा ने मारवाड़ के राजा का साथ दिया। इस लड़ाई का अन्त १६७८१ ई. में दिल्ली और मेवाड़ की सन्धि से हुआ। १६८६ ई. में बीजापुर और १६८९ ई. में गोलकुंडा जीतकर मुगल साम्राज्य में मिला लिया गया। १६८९ ई. में शिवाजी के पुत्र और उत्तराधिकारी सम्भाजी को मुगलों ने पकड़ कर मार डाला और उसकी राजधानी राजगढ़ पर अधिकार कर लिया। उसके पुत्र और उत्तराधिकारी युवक शाहू को मुगल दरबार में बंदी बनाकर रखा गया। १६९१ ई. में विजयी औरंगजेब ने तंजौर और त्रिचिनापल्ली के हिन्दू राजाओं को खिराज देने के लिए बाध्य किया। इस प्रकार मुगल साम्राज्य दक्षिण तक फैल गया।
इन विजयों के बावजूद सम्राट् औरंगजेब मुगलों का अन्तिम बड़ा बादशाह हुआ और दक्षिण के बुरहानपुर में १७०७ ई. में अपनी मृत्यु के पहले औरंगजेब के सामने ही मुगल साम्राज्य का विघटन शुरू हो गया। औरंगजेब ने बहुत से क्षेत्रों को अपने साम्राज्य में मिला लिया था जिससे वह इतना विशाल हो गया था कि उसको एक व्यक्ति द्वारा एक केन्द्र से शासित करना दुःसाध्य था। जैसा सर यदुनाथ सरकार ने लिखा है, "एक अजगर की भाँति मुगल साम्राज्य ने इतना अधिक क्षेत्र लील लिया कि उसको वह हजम नहीं कर सका।" औरंगजेब की मृत्यु के पहले १६६७-७५ ई. के बीच अफगानों से युद्ध के परिणामस्वरूप सल्तनत की आर्थिक स्थिति अत्यन्त शोचनीय हो गयी। राजनीतिक दृष्टि से भी अफगानों से युद्ध बड़ा मंहगा पड़ा। इसके बाद ही बादशाह को राजपूतों से युद्ध करना पड़ा और वह उनके विरुद्ध पठान सैनिकों का इस्तेमाल नहीं कर सका। इसके परिणामस्वरूप शिवाजी (१६२७-८० ई.) के विरुद्ध मुगल साम्राज्य के पूरे साधनों का इस्तेमाल नहीं हो सका जो दक्षिण में स्वतंत्र मराठा राज्य की स्थापना कर रहा था। मथुरा और उसके पड़ोस के क्षेत्रों में १६६९ ई. में जाटों ने विद्रोह का झंडा फहरा दिया। इसके बाद १६७१ ई. में बुंदेलखंड और मालवा में विद्रोह हुए। पटियाला रियासत के नारनौल में सतनामियों ने और अलवर के क्षेत्रमें मेवातियों ने १६७२ ई. में विद्रोह कर दिया। इन सभी विद्रोहों का सख्ती से दमन किया गया, लेकिन इनसे यह तो प्रकट ही हो गया कि मुगल साम्राज्य के विरुद्ध जनता में व्यापक रूप से रोष फैल रहा था। पंजाब में सिख शक्तिशाली होते जा रहे थे। औरंगजब के आदेश से सिखों के गुरू तेगबहादुर को इस्लाम धर्म स्वीकार न करने पर फाँसी दे दी गयी। इस नृशंस कार्य से सिखों में बदला लेने की भावना भड़क उठी और वे मुगल साम्राज्य के शत्रु बन गये। आसाम में अहोमों पर १६६३ ई. में जो सन्धि थोपी गयी थी, उसको तोड़कर उन्होंने १६७१ ई. में अपने उन सब इलाकों को वापस ले लिया जिन्हें उनसे छीन लिया गया था। सम्भाजी को फांसी देने और शाहू को बंदी बना लेने से मराठों की राष्ट्रीय आकांक्षाओं को नष्ट नहीं किया जा सका और उन्होंने पहले सम्भाजी के नेतृत्व में मुगलों के विरुद्ध अपना संघर्ष जारी रखा और अपनी खोयी हुई अधिकांश भूमि को औरंगजेब के जीवन काल में ही वापस ले लिया। उन्होंने यह दिखा दिया कि औरंगजेब मराठों का दमन नहीं कर सकता है। १६८१ से १७०७ ई. तक औरंगजेब ने दक्षिण में जो सैनिक अभियान चलाया उससे उसको उतनी ही आर्थिक क्षति उठी पड़ी, जितनी नैपोलियन को स्‍पेन के अभियान में उठानी पड़ी थी। इसी प्रकार १६७९-८० ई. के राजपूत-युद्ध में यद्यपि औरंगजेब की विजय हुई तथापि उससे यह तो प्रकट ही हो गया कि औरंगजेब ने राजपतों का वह समर्थन खो दिया है जिसे अकबर ने अपने विवेक से प्राप्त किया था और जिनकी शक्ति के आधार पर मुगल साम्राज्य की शक्ति बढ़ी थी। औरंगजेब ने अपने प्रपितामह की नीति पूरे तौर से त्याग दी। अकबर की नीति के प्रतिकूल उसने मजहब को सल्तनत के ऊपर कर दिया और अपनी शाही ताकत का प्रयोग न तो अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए, न अपने खानदान के लाभ के लिए और न अपनी रियाया के लाभ के लिए वरन् इस्लाम के प्रसार के लिए किया। वह कट्टर सून्नी मुसलमान था और उसने कुरान की शिक्षाओं के अनुसार अपने जीवन को ढालने तथा हुकूमत चलाने का प्रयास किया। वह ईमान का इतना पक्का था कि उसने मजहब के मामले में अपने को, अथवा अपने खानदान को कभी नहीं बख्शा। उसने खान-पान और पोशाक के मामले में कुरान की शिक्षाओं का पालन किया और एक पक्के मुसलमान की तरह जीवन बिताया। उसने विरासत में मिली अपनी सल्तनत को 'दारुल इस्लाम' (इस्लामी राज्य) बनाने का प्रयास किया। इस नीति के परिणामस्वरूप ही उसने हिन्दुओं के प्रति असहिष्णुता की नीति अपनायी और उनका दमन किया। हिन्दुओं पर उसने १६७९ ई. में फिर से 'जजिया' लगा दिया, जिसे अकबर ने १५६४ ई. में उठा लिया था। उसने सल्तनत के ऊँचे पदों पर हिन्दुओं को नियुक्त करना बन्द कर दिया और उनके ऊपर करों का बोझ बढ़ा दिया। उसने हिन्दुओं को नये मंदिर बनाने से रोक दिया और बहुत से पुराने मंदिरों को तोड़ डाला, जिनमें मथुरा का केशवदेव का मंदिर और बनारस का विश्वनाथ का मंदिर भी था। उसने मारवाड़ के राजा जसवन्त सिंह के नाबालिग लड़के को जबरन अपने कब्जे में करके उसे मुसलमान बनाने की कोशिश की। उसने हिन्दुओं के लिए अपमानजनक कानून कायदे बनाये और हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियों को मसजिदों की सीढ़ियों के नीचे रखवाया ताकि उन पर मुसलमानों के पैर पड़ें।
औरंगजेब ने यद्यपि लगभग आधी शताब्दी (१६५८-१७०७ ई.) तक शासन किया, तथापि वह इस खतरे को नहीं देख सका कि फिरंगियों की ताकत बढ़ती जा रही है। फिरंगियों ने उसके शासनकाल में भारत के विभिन्न भागों में अपनी बस्तियाँ स्थापित कर ली थीं। औरंगजेब इस बात को समझ नहीं सका कि इन फिरंगियों की ताकत बढ़ने से सल्तनत को खतरा पहुँचेगा। उसने समुद्री मार्गों से फिरंगियों को आने से रोकने के लिए एक शक्तिशाली जंगी बेड़ा बनाने की आवश्यकता नहीं महसूस की। अतएव इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि उसकी मृत्यु के आधी शताब्दी के बाद ही फिरंगियों की ही एक कौम ने बड़ी चालाकी और मक्कारी के साथ हिन्दुओं के असंतोष, मुगलों के अधीनस्थ मुसलमान सूबेदारों की स्वतंत्र शासक बन जाने की महत्त्वाकांक्षा तथा हिन्दुस्तानियों की आपसी फूट से लाभ उठाकर मुगलवंश को समाप्त कर दिया और उसके स्थान पर भारत में अंग्रेजी राज्य की स्थापना कर दी। मुगलों में जो बड़े-बड़े बादशाह हुए, उनमें औरंगजेब अंतिम था। (जे. एन. सरकार - हिस्ट्री आफ औरंगजेब, खंड १-४; एडवर्ड्स एण्ड गैरेट-मुगल रूल इन इंडिया; ईलियट एण्ड डासन, खंड ७, पृ. २११-५३३ पर काफी खां लिखित मुंतखाब-उल-लुवाब)

औरंगजेब ने यद्यपि लगभग आधी शताब्दी (१६५८-१७०७ ई.) तक शासन किया, तथापि वह इस खतरे को नहीं देख सका कि फिरंगियों की ताकत बढ़ती जा रही है। फिरंगियों ने उसके शासनकाल में भारत के विभिन्न भागों में अपनी बस्तियाँ स्थापित कर ली थीं। औरंगजेब इस बात को समझ नहीं सका कि इन फिरंगियों की ताकत बढ़ने से सल्तनत को खतरा पहुँचेगा। उसने समुद्री मार्गों से फिरंगियों को आने से रोकने के लिए एक शक्तिशाली जंगी बेड़ा बनाने की आवश्यकता नहीं महसूस की। अतएव इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि उसकी मृत्यु के आधी शताब्दी के बाद ही फिरंगियों की ही एक कौम ने बड़ी चालाकी और मक्कारी के साथ हिन्दुओं के असंतोष, मुगलों के अधीनस्थ मुसलमान सूबेदारों की स्वतंत्र शासक बन जाने की महत्त्वाकांक्षा तथा हिन्दुस्तानियों की आपसी फूट से लाभ उठाकर मुगलवंश को समाप्त कर दिया और उसके स्थान पर भारत में अंग्रेजी राज्य की स्थापना कर दी। मुगलों में जो बड़े-बड़े बादशाह हुए, उनमें औरंगजेब अंतिम था। (जे. एन. सरकार - हिस्ट्री आफ औरंगजेब, खंड १-४; एडवर्ड्स एण्ड गैरेट-मुगल रूल इन इंडिया; ईलियट एण्ड डासन, खंड ७, पृ. २११-५३३ पर काफी खां लिखित मुंतखाब-उल-लुवाब)

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कंदर्पनारायण
बंगाल प्रांत पर सोलहवीं शताब्दी में शासन करनेवाले बारह भूमियाँ लोगों में से एक। उसका इलाका चंद्रद्वीप कहलाता था जो आधुनिक वाकरगंज जिले के समतुल्य था। वाकरगंज अब बंगला देश में है। दीर्घकालीन प्रतिरोध के बाद उसे बादशाह अकबर की अधीनता स्वीकार कर लेनी पड़ी।

कंदहार (अथवा कंधार)
अफगानिस्तान का दूसरा बड़ा नगर। सामरिक दृष्टि से यह महत्त्वपूर्ण है क्योंकि भारत से अफगानिस्तान जानेवाली रेलवे लाइन यहीं पर समाप्त होती है। यह नगर महत्त्वपूर्ण मंडी भी है। पूर्व से पश्चिम को स्थलमार्ग से होनेवाला अधिकांश व्यापार यहीं से होता है। कंदहार में सोतों के पानी से सिंचाई की अनोखी व्यवस्था है। जगह-जगह कुएं खोदकर उनको सुरंग से मिला दिया गया है।
कंदहार का इतिहास उथल-पुथल से भरा हुआ है। पाँचवीं शताब्दी ई. पू. में यह फारस के साम्राज्य का भाग था। लगभग ३२६ ई. पू. में मकदूनिया के राजा सिकंदर ने भारत पर आक्रमण करते समय इसे जीता और उसके मरने पर यह उसके सेनापति सेल्यूकस के अधिकार में आया। कुछ वर्ष बाद सेल्यूकस ने इसे चंद्रगुप्त मौर्य (दे.) को सौंप दिया। यह अशोक के साम्राज्य का एक भाग था। उसका एक शिलालेख हाल में इस नगर के निकट मिला है। मौर्यवंश के पतन पर यह बैक्ट्रिया, पार्थिया, कुषाण तथा शक राजाओं के अंतर्गत रहा।
दसवीं शताब्दी में यह अफगानों के कब्जे में आ गया और मुसलिम राज्य बन गया। ग्यारहवीं शताब्दी में सुल्तान महमूद, तेरहवीं शताब्दी में चंगेज खां तथा चौदहवीं शताब्दी में तैमूर ने इस पर अधिकार कर लिया। १५०७ ई. में इसे बाबर ने जीत लिया और १६२५ ई. तक दिल्ली के मुगल बादशाहों के कब्जे में रहा। १६२५ ई. में फारस के शाह अब्बास ने इस पर दखल कर लिया। शाहजहाँ और औरंगजेब द्वारा इस पर दुबारा अधिकार करने के सारे प्रयत्न विफल हुए। कंदहार थोड़े समय (१७०८-३७ ई.) को छोड़कर १७४७ ई. में नादिरशाह की मृत्यु के समय तक फारस के कब्जे में रहा। १७४७ ई. में अहमदशाह अब्दाली (दे.) ने अफगानिस्तान के साथ साथ इस पर भी अधिकार कर लिया। किन्तु, उसके पौत्र जमानशाह (दे.) की मृत्यु के बाद कुछ समय के लिए कंदहार काबुल से अलग हो गया। 1839 ई. में ब्रिटिश भारतीय सरकार ने शाहशुजा (दे.) की ओर से युद्ध करते हुए इस पर दखल कर लिया और 1842 ई. तक अपने कब्जे में रखा। ब्रिटिश सेना ने १८७९ ई. में इस पर फिर दखल कर लिया, किन्तु १८८१ ई. में खाली कर देना पड़ा। तबसे यह अफगानिस्तान के राज्य का एक भाग है।

कम्पनी-राज की सिविल सर्विस (बाद को 'इंडियन सिविल सर्विस' )
वह प्रशासकीय सेवा, जिसे ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भारत में अपना प्रशासन चलाने के लिए चालू किया था। इसका आरम्भ अत्यन्त छोटे रूप में हुआ। व्यापारियों की संस्था के रूप में कम्पनी ने अपनी सेवा में अंग्रेज युवकों को लिपिक के पद पर नियुक्त किया। ये ब्रिटिश युवक आम तौर से डायरेक्टरों द्वारा मनोनीत होते और कम्पनी के शेयरहोल्डरों से रिश्तेदारी के आधार पर चुने जाते थे। उनकी उम्र २० वर्ष से कम होती। उन्हें स्कूली शिक्षा या तो बिल्कुल मिली ही न होती या बहुत कम मिली होती। उनका वेतन भी बहुत कम होता था। १७५७ ई. में पलासी युद्ध के बाद जब कम्पनी के आधिपत्य में भारत का काफी बड़ा क्षेत्र आ गया तो उसने नवविजित क्षेत्रों का प्रशासन अपने इन लिपिकों के सुपुर्द कर दिया। इन नवनियुक्त अफसरों ने जबरदस्त भ्रष्टाचार और बेईमानी शुरू कर दी, अतः कमपनी ने उनसे एक करार (कावेनेंट) पर हस्ताक्षर करने को कहा, जिसमें कम्पनी की सेवा ईमानदारी और सच्‍चाई के साथ करने का वचन मांगा गया था। इसी आधार पर अंग्रेजी में इस करारशुदा सेवा को 'कावेनेंटेड सिविल सर्विस' कहा जाने लगा। बंगाल में लार्ड क्लाइव के दूसरी बार के प्रशासनकाल में कम्पनी ने पहली बार अपने अफसरों को उक्त करार करने को बाध्य किया। अफसरों ने शुरू में तो इस नयी व्यवस्था का विरोध किया किन्तु अंततः उन्हें झुकना पड़ा। लार्ड कार्नवालिस के प्रशासनकाल में यह कावेनेंटेड सिविल सर्विस (करारवाली सिविल सेवा ) भारत में कम्पनी के प्रशासनतंत्र का एक नियमित अंग बन गयी।
लार्ड कार्नवालिस ने इस सेवा में सिर्फ अंग्रेजों को ही भर्ती किया और उनके वेतन भी काफी बढ़ा दिये। कम्पनी के अंतर्गत सभी महत्त्वपूर्ण सिविल पदों पर अंग्रेजों की नियुक्ति होती और जिला कलेक्टरों, मजिस्ट्रेटों, जजों के पदों पर तो जैसे उनका एकाधिकार हो गया। बाद को जब विभागीय सचिवों और राजनयिक एजेंटों के पद चालू किये गये तो उन पर भी अंग्रेजों की ही नियुक्ति की गयी। लार्ड वेलेस्ली ने कावेनेंटेड सिविल सर्विस के सदस्यों का बौद्धिक स्तर ऊँचा उठाने के लिए एक निश्चित अवधि तक उनके प्रशिक्षण की व्यवस्था की। इसके लिए उसने कलकत्ता में फोर्ट विलियम कालेज की स्थापना की। किन्तु १८०५ ई. में यह कालेज बंद करना पड़ा, क्योंकि इसपर होनेवाले खर्च पर कम्पनी ने ऐतराज किया। इसके बाद के पचास वर्षों में कावेनेंटेड सिविल सर्विस के रंगरूटों को लंदन के हेलेबरी कालेज में प्रशिक्षण दिया जाता रहा। इनमें से कुछ रंगरूट तो वास्तव में अत्यन्त योग्य और सफल प्रशासक सिद्ध हुए, किन्तु सामान्य तौर से औसत सदस्यों में बहुत कमियाँ पायी जाती थीं, क्योंकि कावेनेंटेड सिविल सर्विस में कम्पनी के डायरेक्टरों द्वारा नामजद लोगों की भर्ती होती थी, जिन्हें योग्य प्रशासक बनने के लिए अपेक्षित शिक्षा बिल्कुल नहीं प्राप्त थी। फलतः स्वयं इंग्लैण्ड में ही यह मांग उठी कि सर्वोत्तम और सर्वाधिक मेधावी ब्रिटिश युवकों को ही प्रशासक बनाकर भारत भेजा जाना चाहिए।
अतः १८५३ ई. में कावेनेंटेड सिविल सर्विस में, जो अब 'इंडियन सिविल सर्विस' के नाम से पुकारी जाने लगी, प्रवेश सार्वजनिक प्रतियोगिता के माध्यम से सबके लिए खोल दिया गया। १८५५ ई. में लंदन में बोर्ड आफ कंट्रोल की देखरेख में पहली सार्वजनिक प्रतियोगिता हुई। सन् १८५८ से यह प्रतियोगिता सिविल सर्विस कमिश्नरों की देखरेख में होने लगी। इस प्रकार इंडियन सिविल सर्विस में सभी मेधावी ब्रिटिश युवकों के लिए प्रवेश का द्वार खुल गया, लेकिन चार्टर एक्ट, १८३२ ई. (दे.) और १८५८ ई. में महारानी के घोषणापत्र (दे.) के बावजूद भारतीय अब भी प्रवेश से वंचित रहे। १८६४ ई. में पहली बार एक भारतीय (महाकवि रवीन्द्र नाथ ठाकुर के बड़े भाई सत्येन्द्र नाथ ठाकुर ) लंदन में हुई इण्डियन सिविल सर्विस की प्रतियोगिता में सफल हुआ और उसने इंडियन सिविल सर्विस में स्थान प्राप्त किया। किन्तु इंडियन सिविल सर्विस में भारतीयों का प्रवेश अत्यल्प रहा और १८७६ में अधिकतम उम्र २३ वर्ष से घटा कर १९ वर्ष कर देने से यह प्रवेश असंभव नहीं तो और अधिक कठिन अवश्य बना दिया गया।
बहरहाल, इस समय तक भारत में पाश्चात्य शिक्षा का प्रसार हो गया था, इसलिए भारतीय विश्वविद्यालयों के नये स्नातकों द्वारा इंडियन सिविल सर्विस में प्रवेश की अधिक सुविधाएं माँगना स्वाभाविक था। भारतीयों ने यह माँग करना शुरू किया कि इंडियन सिविल सर्विस में प्रवेश के लिए लंदन के साथ ही साथ भारत में भी एक प्रतियोगिता परीक्षा होनी चाहिए और प्रवेश की अधिकतम उम्र पहले की तरह २३ वर्ष कर दी जाये। बाद में इस मांग पर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भी जोर दिया और शुरू के प्रायः सभी अधिवेशनों में इस माँग को दोहराया। लेकिन इसे बराबर नजरंदाज किया जाता रहा।
१८७८ ई. में भारतीय मांग को टालने के लिए एक नयी सेवा आरम्भ की गयी जिसे 'स्टेट्यूटरी सिविल सर्विस' का नाम दिया गया और इसमें भारतीयों की भर्ती की गयी। इस सेवा के लोग कम महत्त्ववाले कुछ ऊंचे पदों पर विशेषरूप से न्यायिक पदों पर, नियुक्त किये गये और उन्हें एक से पदों पर कार्य करने के बावजूद इंडियन सिविल सर्विस के सदस्यों के मुकाबले दो-तिहाई वेतन दिया जाता रहा। इसलिए इस सेवा से भी भारतीय माँग संतुष्ट नहीं हुई और १८८५ ई. में इस सेवा को समाप्त कर दिया गया। उम्र की १८८९ ई. में बढ़ाकर २३ वर्ष कर दी गयी किन्तु इंडियन सिविल सर्विस में प्रवेश के लिए भारत में भी प्रतियोगिता परीक्षा कराने की माँग १९२२ ई. तक नहीं मानी गयी। ब्रिटेन और भारत दोनों ही सरकारों का भरसक प्रयास अब भी यही रहा कि इंडियन सिविल सर्विस सेवा में बाहुल्य अंग्रेजों का ही बना रहे।
प्रधानमंत्री लायड जार्ज ने अगस्त १९२२ में कामन सभा (हाउस आफ कामन्स) में किये गये एक भाषण में इंडियन सिविल सर्वि‍स के अंग्रेज नौकरशाहों को भारतीय संवैधानिक ढांचे 'इस्‍पाती चौखटा' कहा और भविष्‍यवाणी की कि "अगर आप इस इस्पाती चौखटे को हटा लें तो पूरा ढांचा ही ढह जायेगा।" किन्तु पचीस वर्षों बाद इस इस्पाती चौखटे के बने रहने पर भी ढांचा ढह पड़ा।
असलियत यह थी कि इंडियन सिविल सर्विस के ब्रिटिश सदस्यों ने भारत के विकास और यहाँ तक कि उसके राजनीतिक भविष्य के विकास में भी निस्संदेह महत्त्वपूर्ण योग दिया, किन्तु वे अपने को भारत का अंग कभी न बना पाये। वे भारत के लिए बहुत मंहगे थे। उन्होंने आमतौर से भारतीयों को अपने से नीचा समझा। अपने अस्तित्व को बचाने के लिए उनका अंतिम प्रयास अत्यन्त घृणित था। उन्होंने भारत में साम्प्रदायिक तनाव इस हद तक बढ़ा दिया कि अगस्त १९४७ में आखिरकार जब उन्हें परिस्थितियों ने भारत छोड़ने को विवश कर दिया तो वे उसे दो टुकड़ों में बँटा हुआ और लहुलुहान छोड़कर गये। (एन. सी. राय कृत दि सिविल सर्विस इन इंडिया)

असलियत यह थी कि इंडियन सिविल सर्विस के ब्रिटिश सदस्यों ने भारत के विकास और यहाँ तक कि उसके राजनीतिक भविष्य के विकास में भी निस्संदेह महत्त्वपूर्ण योग दिया, किन्तु वे अपने को भारत का अंग कभी न बना पाये। वे भारत के लिए बहुत मंहगे थे। उन्होंने आमतौर से भारतीयों को अपने से नीचा समझा। अपने अस्तित्व को बचाने के लिए उनका अंतिम प्रयास अत्यन्त घृणित था। उन्होंने भारत में साम्प्रदायिक तनाव इस हद तक बढ़ा दिया कि अगस्त १९४७ में आखिरकार जब उन्हें परिस्थितियों ने भारत छोड़ने को विवश कर दिया तो वे उसे दो टुकड़ों में बँटा हुआ और लहुलुहान छोड़कर गये। (एन. सी. राय कृत दि सिविल सर्विस इन इंडिया)

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कठिओई
(कठ) एक गण जो पंजाब में चिनाव और रावी नदियों के बीच में रहता था। उसकी राजधानी सांगल थी, जो सम्भवतः आधुनिक गुरुदासपुर जिले में स्थित थी। मकदूनिया के राजा सिकंदर ने ३२६ ई. पू. में अपने आक्रमण के समय इस गणराज्य को भी हराया था।

कड़ा
इलाहाबाद जिले का एक नगर। यहाँ सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी (दे.) १२९६ ई. में अपने भतीजे ने एवं दामाद अलाउद्दीन खिलजी (दे.) के हाथों मारा गया।

कण्व (अथवा काण्वायन ) वंश
लगभग ७३ ई. पू. शुंगवंश के बाद मगध का शासनकर्ता। इसका संस्थापक वासुदेव शुंगवंश के अंतिम राजा देवभूति का ब्राह्मण अमात्य था। कण्ववंश में उसके संस्थापक सहित चार राजा हुए जिन्होंने पैतालीस वर्ष तक राज्य किया। उसके अंतिम राजा सुशर्मा को लगभग २८ ई. पू. में आंध्र वंश के संस्थापक सिभुक ने मार डाला।

कथावत्थु
पालि भाषा का एक प्रसिद्ध बौद्ध टीका ग्रन्थ। प्रो. र्हाइस डेविस ने इसका रचनाकाल अशोक का राज्यकाल (लगभग २७३-२३२ ई. पू.) माना है।

कथासरित्सागर
सोमदेव कवि की १०६३ और १०८१ ई. के बीच की रचना। इसमें भारतीय वणिकपुत्रों द्वारा दक्षिण-पूर्व एशिया के समुद्रो में साहसिक यात्राएँ करने के अनेक वर्णन मिलते हैं।

कदफिसस प्रथम
पूरा नाम कुजल-कर-कदफिसस, कुषाण वंश का पहला राजा। वह सम्भवतः ४० ई. में गद्दीपर बैठा तथा लगभग ३७ वर्ष तक राज्य किया। उसने अपने राज्य का विस्तार बैक्ट्रिया से आगे अफगानिस्तान में तथा भारत के उत्तर-पश्चिमी सीमा क्षेत्र में सिंधु नदी के उस पार तक किया।


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