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Bharatiya Itihas Kosh

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एलारा
दक्षिण में प्राचीन चोल वंश का एक राजा, जो ईसवी से पूर्व दूसरी शताब्दी में हुआ। कहा जाता है कि उसने श्रीलंका पर विजय प्राप्त की थी। वह अत्यधिक न्यायप्रिय था।

एलिनबरो, लार्ड
१८४२ ई. से १८४४ ई. तक भारत का गवर्नर-जनरल। इसके पूर्व वह बोर्ड आफ कण्ट्रोल का अध्यक्ष रह चुका था। वह भारत में लार्ड आकलैण्ड (दे.) के बाद गवर्नर-जनरल हुआ। उस समय भारत की अंग्रेज सरकार पहले अफगान-युद्ध (दे.) (१८४२-४४ ई.) में संलग्न थी। लार्ड एलिनबरो ने अफगानिस्तान से ब्रिटिश भारतीय सेना को वापस बुलाते हुए किसी को यह आभास नहीं होने दिया कि ब्रिटिश सेना हार कर वापस आयी है। इसके बाद ही एलिनबरो ने अन्यायपूर्ण ढंग से सिंध पर चढ़ाई बोल दी। सर चार्ल्स नैपियर के नेतृत्‍व में सिंध के अमीरों को पराजित कर दिया और १८४३ ई. में सिंध को ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया गया।
लार्ड एलिनबरो ने इसके बाद शिन्दे के राज्य में भी हस्तक्षेप किया और १८७४ ई. की विस्मृत एवं निरस्त संधि का आधार लेकर ग्वालियर के राज्य पर चढ़ाई करने के लिए अंग्रेजी सेना भेज दी। शिन्दे की फौजें महाराजपुर और पनियार के युद्धों में पराजित हुई। लार्ड एलिनबरो ने यद्यपि ग्वालियर के राज्य को ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य में नहीं मिलाया, तथापि उसे अंग्रेजों का आश्रित राज्य अवश्य बना लिया। उस समय ग्वालियर की गद्दी पर एक नाबालिग शासक था, अतएव यह व्यवस्था की गयी कि राज्य का प्रशासन एक रीजेन्सी कौंसिल के हाथ में होगा जिसके सभी सदस्य भारतीय होंगे और वे ग्वालियर स्थित ब्रिटिश रेजीडेण्ट की सलाह पर शासन चलायेंगे ग्वालियर राज्य की फौज की संख्या घटाकर ९ हजार कर दी गयी, तथा १० हजार अंग्रेजी सेना वहाँ तैनात कर दी गयी। इस प्रकार ग्वालियर राज्य व्यवहारतः अंग्रेज सरकार के अधीन हो गया।
लार्ड एलिनबरो की इन कारवाइयों को ब्रिटेन स्थित कोर्ट आफ डाइरेक्टर्स ने पसंद नहीं किया और कम्पनी के इतिहास में पहली बार गवर्नर-जनरल को वापस बुला लिया गया। लार्ड एलिनबरो को स्वदेश वापस लौट जाना पड़ा। ब्रिटेन वापस जाकर भी लार्ड एलिनबरो भारतीय मामलों में दिलचस्पी लेता रहा। १८५३ ई. में जब इण्डियन सिविल सर्विस में भर्ती के लिए प्रतियोगिता परीक्षा आरम्भ की गयी तो उसने उसका तीव्र विरोध किया, लेकिन इस विरोध का कोई फल नहीं निकला।

एलिफैण्टा की गुफाएँ
बम्बई के निकट, पौराणिक देवताओं की अत्यन्त भव्य मूर्तियों के लिए विख्यात हैं। इन मूर्तियों में त्रिमूर्ति सर्वश्रेष्ठ है।

एलिस, विलियम
१७६२ ई. में उस समय पटना स्थित अंग्रेजी फैक्टरी का मुखिया, जब बंगाल के नवाब मीर कासिम (दे.) ने बंगाल, बिहार और उड़ीसा में समस्त वयापारियों पर से चुंगी हटा ली। इसका नतीजा यह हुआ कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी और उसके कर्मचारियों के गैरकानूनी व्यापार से जो लाभ होता था, वह समाप्त हो गया। कम्पनी के जिन कर्मचारियों को इस अवैध व्यापार से भारी लाभ होता था, उन्होंने नवाब की आज्ञा का तीव्र विरोध किया। विलियम एलिस इस गैरकानूनी व्यापार का सबसे उग्र पक्षधर था। उसने नवाब की आज्ञा के विरोध में पटना नगर पर कब्जा करने का प्रयास किया। नवाब के सैनिकों ने उसका प्रतिरोध किया। फलतः एलिस अपनी छोटी-सी सेना के साथ परास्त हो गया और वह स्वयं मारा गया। इन्हीं घटनाओं के फलस्वरूप १७६३ ई. में नवाब मीर कासिम तथा ईस्ट इण्डिया कम्पनी के बीच युद्ध छिड़ गया।

एशियाटिक सोसाइटी आफ बंगाल
स्थापना, प्राच्य विद्याध्ययन में अभिरुचि रखनेवाले विद्वानों की संस्था के रूप में १७८४ ई. में कलकत्ते में सर विलियम जोन्स द्वारा। गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्सने इसमें पूरी सहायता की। इस संस्था की ओर से केवल भारत ही नहीं बल्कि एशिया से सम्बन्धित विभिन्न अनुसंधान-कार्यों को प्रोत्साहित किया गया। इस संस्था के पास अच्छा पुस्तकालय है जिसमें प्रकाशित पुस्तकों के अतिरिक्त हस्तलिखित पाण्डुलिपियाँ संगुहीत हैं। इस संस्था की ओर से एक पत्र भी प्रकाशित किया जाता है और सैकड़ों बहुमूल्य पुस्तकों को पुनः प्रकाशित करके उनको लुप्त होने से बचाया गया है। इस संस्था की ओर से संस्कृत और फारसी की पाण्डुलिपियों का अंग्रेजी में अनुवाद भी प्रकाशित कराया गया है। सिपाही विद्रोह के बाद जब सत्ता ईस्ट इण्डिया कम्पनी से इंग्लैण्ड के राजा के पास चली गयी, उस समय से इस संस्था का नाम रायल एशियाटिक सोसाइटी आफ बंगाल' हो गया, लेकिन १९४७ ई. में स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद इसका नाम फिर से 'एशियाटिक सोसाइटी आफ बंगाल' हो गया है।

ऐम्हर्स्ट, लार्ड
भारत का गवर्नर-जनरल (१८२३-२८ ई.)। उसके शासनकाल में प्रथम बर्मा-युद्ध (१८२४-२८ ई.) हुआ जिसके परिणामस्वरूप आसाम, अराकान और तेनासरीम ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिये गये। लार्ड ऐम्हर्स्ट युद्ध का संचालन सही ढंग से नहीं कर सका, जिससे भारतीय एवं अंग्रेजी सेना को बहुत नुकसान उठाना पड़ा और लड़ाई लम्बी चली। इस लड़ाई के दौरान दो घटनाएं घटीं। पहले ४७ वीं पलटन के देशी तोपखाने के सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया क्योंकि उनको जबर्दस्ती समुद्रपार भेजा जा रहा था। उनकी कुछ दूसरी शिकायतें भी थीं। उनका विद्रोह अंग्रेजतोपखाने और दो अंग्रेज पलटनों की मदद से निर्दयतापूर्वक कुचल दिया गया। दूसरी घटना यह घटी कि भरतपुर की गद्दी के एक दावेदार दुर्जन सिंह ने १८२४ ई. में विद्रोह कर दिया और अपने को 'राजा' घोषित कर दिया। अंग्रेजों ने १८२५ ई. के शुरू में भरतपुर किले पर चढ़ाई करके उसे अपने कब्जे में ले लिया। लार्ड ऐम्हर्स्ट के समय में १८२४ ई. में कलकत्ते में गवर्नमेन्ट संस्कृत कालेज की स्थापना की गयी। बाद में एम्हर्स्ट ने पारिवारिक कारणों से गवर्नर-जनरल के पद से इस्तीफा दे दिया।

ओदन्तपुरी
उड्यंतपुर भी कहते हैं, यह बिहार में स्थित है। आठवीं शताब्दी के मध्य में बंगाल और बिहार में पालवंश के संस्थापक गोपाल ने यहां एक महाविहार की स्थापना की थी। यह एक महत्त्वपूर्ण विद्या-केन्द्र बन गया। तेरहवीं शताब्दी के आरम्भ में बख्तियार (दे.) के पुत्र मुहम्मद के नेतृत्व में मुसलमान आक्रमणकारियों ने इसे नष्ट कर दिया।

ओनेसि क्राइटोस
एक प्रसिद्ध ग्रीक इतिहासकार, जिसने भारत पर सिकन्दर के आक्रमण का वृत्तान्त लिखा है। वह सिकन्दर के साथ ३२६ ई. पू. में तक्षशिला तक आया था। यद्यपि उसके द्वारा लिखित इतिहास अब उपलब्ध नहीं है, तथापि उसके कुछ उद्धरण अन्य यूनानी इतिहासकारों की रचनाओं में उपलब्ध हैं।

ओर्मे राबर्ट (1728-1801 ई.)
भारत का एक अंग्रेज सैनिक इतिहासकार। उसका जन्म दक्षिण भारत में हुआ, पिता भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी में सर्जन था। वह १७४३ ई. में बंगाल में लिपिक नियुक्त हुआ। छुट्टी पर जहाज में इंग्लैण्ड जाते समय राबर्ट क्लाइव (दे.) से इसकी घनिष्ठ मैत्री हो गयी। यह मैत्री दीर्घ कालतक चली। वह १७५४ से १७५८ ई. तक मद्रास कौंसिल का सदस्य रहा और कलकत्ता पर फिर से अधिकार करने के लिए क्लाइव के नेतृत्व में, फौज भेजने का जो निर्णय किया गया, उसमें मुख्य रूप से उसी का हाथ था। उसका अंग्रेजी में लिखित 'हिन्दुस्तान में ब्रिटिश राष्ट्र की सन १७४५ से 'फौजी काररवाइयों का इतिहास' शीर्षक से विशाल ग्रंथ तीन खंडों में १७६३-७८ ई. में प्रकाशित हुआ। इसके पूर्व का वृत्तान्त 'ऐतिहासिक प्रकरण' शीर्षक से १७८१ ई. में प्रकाशित हुआ। उसने अपने ग्रंथों में अत्यन्त व्यौरेवार विवरण दिया है और उसके 'इतिहास' में उस काल का सबसे प्रामाणिक विवरण है। मेकाले ने अपना ग्रंथ लिखने में उससे बहुत सहायता ली है। उसने हस्तालिखित ग्रंथों का बहुमूल्य संग्रह किया था, जो अब इंडिया लाइब्रेरी में सुरक्षित है।

औपनिवेशिक स्वराज्य (डोमिनियन स्टेटस)
की मांग भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने पहली बार १९०८ ई. में की थी। उस समय इसका अर्थ केवल इतना ही था कि आन्तरिक मामलों में भारतीयों को स्वशासन का अधिकार दिया जाय, जैसा कि ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत कनाडा को प्राप्त था किन्तु ब्रिटिश भारतीय सरकार ने इस मांग को स्वीकार नहीं किया। २१ वर्ष बाद ३१ अक्तूबर १९२९ ई. को वाइसराय लार्ड इर्विन ने घोषणा की कि भारत में संवैधानिक प्रगति का लक्ष्य औपनिवेशिक स्वराज्य की प्राप्ति है। किन्तु 'औपनिवेशिक स्वराज्य' के स्वरूप की स्पष्ट परिभाषा नहीं की गयी। फलतः भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने इस प्रकार की अस्पष्ट और विलम्बित घोषणा पर सन्तोष प्रकट करने से इनकार कर दिया। कांग्रेस ने वर्ष के अन्त में अपने लाहौर अधिवेशन में भारत का लक्ष्य 'पूर्ण स्वाधीनता' घोषित किया। इस प्रकार भारत और ब्रिटेन के बीच की खाई बढ़ती ही रही। औपनिवेशिक स्वराज्य की घोषणा यदि २० वर्ष पहले की गयी होती, तो कदाचित् वह भारतीय आकांक्षाओं की पूर्ति कर देती। लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध के पूर्व बदलती हुई अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों के साथ बढ़ते हुए राष्ट्रवाद को औपनिवेशिक स्वराज्य की घोषणा सन्तुष्ट न कर सकी। इसके बाद भी ६ वर्ष तक ब्रिटिश सरकार ने उस घोषणा को लागू करने के लिए कुछ नहीं किया। अंत में जब १९३५ का 'गवर्नमेन्ट आफ इंडिया एक्ट' सामने आया तो वह कई दृष्टियों से औपनिवेशिक स्वराज्य के वादे की पूर्ति नहीं करता था।
नये शासन-विधान के अनुसार केन्द्र में द्वैध शासन की व्यवस्था की गयी थी जिसके अन्तर्गत विदेश विभाग और प्रतिरक्षा विभाग आदि पर निर्वाचित विधान-मंडल का कोई नियंत्रण नहीं रखा गया। दूसरी बात, इस शासन विधान में वाइसराय को अनेक निरंकुश अधिकार प्रदान किये गये थे। तीसरी बात, भारतीय विधान-मंडल द्वारा पारित अधिनियमों पर ब्रिटिश सम्राट की स्वीकृति आवश्यक थी। ब्रिटिश सरकार उक्त अधिनियमों पर स्वीकृति देने से इनकार भी कर सकती थी। इस प्रकार के प्रतिबन्धों से स्पष्ट था कि भारतीय शासन-विधान (१९३५) में औपनिवेशिक स्वराज्य की जो कथित व्यवस्था थी, वह १९३१ ई. के स्टेट्यूट आफ वेस्टमिंस्टरके अन्तर्गत औपनिवेशिक स्वराज्य की परिभाषा से बहुत निचले दर्जे की थी। इस स्टेट्यूट के अन्तर्गत आन्तरिक मामलों में उपनिवेश की प्रभुसत्ता को स्वीकार किया गया था और वैदेशिक मामलों में भी पूर्ण स्वशासन दिया गया था जिसके अनुसार उपनिवेश को विदेशों से संधि करने का अवाध अधिकार प्राप्त था। साथ ही युद्धादि में तटस्थ रहने और ब्रिटिश साम्राज्य से अलग होने का अधिकार भी उपनिवेशको दिया गया था। औपनवेशिक स्वराज्य में निहित उपर्युक्त समस्त अधिकार १९३५ के गवर्नमेन्ट आफ इंडिया एक्ट में नहीं प्रदान किये गये थे, अतएव वह भारतीय जनमत को संतुष्ट करने में पूर्णतया विफल हो गया। इसके अलावा शासन विधान में साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व के सिद्धान्त को इस प्रकार विकसित किया गया था कि उससे भारत के भावी विभाजन की स्पष्ट आधारशिला तैयार कर दी गयी ऐसी अवस्था में सर स्टैफर्ड क्रिप्स ने जब ११ मार्च १९४२ ई. को औपनिवेशिक स्वराज्य के लक्ष्य की पुनः घोषणा की, तो भारतीय राष्ट्रवादियों में उससे कोई उत्साह नहीं उत्पन्न हुआ।
द्वितीय विश्वयुद्ध में जब ब्रिटेन को धन-जन की घोर हानि पहुँची और भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन तीव्र से तीव्रतर होता गया, तो उसे १९३१ ई. के स्टेट्यूट आफ वेस्टमिंस्टर के अंतर्गत भारत और पाकिस्तान को पूर्ण औपनिवेशिक स्वराज्य देने की घोषणा करनी पड़ी। १५ अगस्त १९४७ ई. को भारत ने ब्रिटिश राष्ट्रमण्डल के अन्तर्गत पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त कर ली। यह स्थिति १९४९ ई. में और अधिक स्पष्ट हो गयी, जब भारत को सार्वभौम प्रभुसत्ता सम्पन्न स्वाधीन गणराज्य के रूप में मान्यता प्रदान कर दी गयी। भारत ने स्वेच्छा से राष्ट्रमण्डल में बने रहने का निर्णय किया। उसने घोषणा की कि वह शांति, स्वतंत्रता तथा प्रगति की नीति से अपने को आबद्ध रखेगा और ब्रिटिश सम्राट् को राष्ट्रमण्डल का प्रतीक-अध्यक्ष स्वीकार करेगा और जब भी वह अपने हित में राष्ट्रमण्डल से अलग होना आवश्यक समझेगा, उसे अलग होने का पूरा अधिकार होगा। (जी. एन. जोशी लिखित 'भारतीय संविधान' - १९५६ ई.)


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