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Bharatiya Itihas Kosh

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एडवर्ड्स, विलियम
इंग्लैण्ड के राजा जेम्स प्रथम का राजदूत, जो सम्राट जहाँगीर के दरबार में १६१५ ई. में भारत आया था। जहाँगीर ने उसकी बड़ी आवभगत की, लेकिन उसे सम्राट से कोई रियायत न प्राप्त हो सकी।

एडवर्ड सप्तम
१९०३ से १९११ ई. तक इंग्लैण्ड के राजा तथा भारत के सम्राट्। उनके राज्याभिषेक के उपलक्ष्य में लार्ड कर्जन ने दिल्ली में एक दरबार किया। इंग्लैण्ड का संवैधानिक राजा होने के कारण, उन्हें भारत के मामले में ब्रिटिश सरकार के भारतमंत्री की सलाह से कार्य करना पड़ता था। १९०८ ई. में, जब ब्रिटिश सम्राट् द्वारा भारतीय शासन को अपने हाथ में लिये ५० वर्ष पूरे हो चुके थे, उन्होंने भारतीय प्रजा तथा देशी राजाओं के नाम एक घोषणा प्रकाशित की, जिसमें विगत ५० वर्षों के दौरान ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत में की गयी सेवाओं का गर्वपूर्वक उल्लेख किया गया था। घोषणा के अंत में यह वादा किया गया था कि भारत में प्रतिनिधित्वपूर्ण शासन संस्थाओं का विस्तार किया जायगा। इस शाही घोषणा का कार्यान्वयन १९०९ ई. में इण्डियन कौंसिल ऐक्ट के रूप में किया गया। इसमें उन संवैधानिक सुधारों की व्यवस्था की गयी थी जिनकी सिफारिश ब्रिटिश सरकार के भारत मंत्री लार्ड मार्ले तथा भारत के गवर्नर-जनरल लार्ड मिण्टो द्वितीय ने की थी। निजी तौरपर सम्राट् एडवर्ड सप्तम इन 'सुधारों' के विरुद्ध थे, लेकिन एक संवैधानिक शासक के नाते उन्होंने अपनी उत्तरदायी सरकार की नीति और कार्यों पर अपनी स्वीकृति देकर विवेकपूर्ण कार्य किया।

एडवर्ड्स, सर हर्बर्ट
(१८१९-६८ ई.)- ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सेवा में १८४१ ई. में भारत आया और पंजाब में नियुक्त हुआ। उसने प्रथम सिख युद्ध (१८४५-४६ ई.) के दौरान एक सिविलियन अधिकारी की हैसियत से मुदकी तथा सुबराहान की लड़ाइयाँ देखीं। १८४८ ई. में जब वह मुल्तान में था वहाँ के सिख दीवान मूलराज ने विद्रोह कर दिया और एग्न्यू तथा ऐण्डरसन नामक दो अंग्रेज अफसर मार डाले गये। उसने एक फौज इकट्ठी करके मूलराज को दो लड़ाइयों में पराजित कर दिया और कई महीने तक मुल्तान पर अधिकार बनाये रखा। अंत में ब्रिटिश सेना उसकी मदद के लिए पहुँच गयी। उसकी सेवाओं की ब्रिटिश संसद में भी प्रशंसा हुई। पेशावर के कमिश्नर की हैसियत से उसने १८५५ तथा १८५७ ई. में अफगानिस्तान के अमीर दोस्त मुहम्मद खाँ से संधि करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की, जिसका फल यह हुआ कि १८५७ ई. के प्रथम स्वाधीनता-संग्राम (कथित सिपाही-विद्रोह) के दौरान अमीर तटस्थ रहा। स्वास्थ्य खराब हो जाने के कारण उसने १८६५ ई. में अवकाश ले लिया और स्वदेश वापस चला गया। उसे साहित्य से भी अनुराग था। उसने अपने कार्यकाल के आरम्भ में "ब्राह्मणी-बुल्स लेटर्स इन इण्डिया टु हिज कजिन जान-बुल इन इंग्लैण्ड" नामक पुस्तक लिखी। बाद में १८४८-४९ ई. में "ए इयर आन द पंजाब फ्राण्टियर" नामक एक और पुस्तक लिखी।
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एनफील्ड रायफिल
एक नये प्रकार की रायफिल, जो १८५६ ई. में ब्रिटिश भारतीय सेना के सैनिकों को प्रयोग के लिए दी गयी। इन रायफिलों में ग्रीज लगे हुए कारतूस प्रयुक्त होते थे, जिन्हें प्रयोग के पहले मुंह से काटना पड़ता था। सिपाहियों का विश्वास था कि इन कारतूसों में गाय अथवा सुअरकी चर्बी का प्रयोग किया गया है, अतएव इसे दाँत से काटने पर हिन्दू और मुसलमान सिपाहियों का धर्म नष्ट होता है। इसके कारण भारतीय सेना में विद्रोह की भावना उत्पन्न हुई। प्रथम भारतीय स्वाधीनता-संग्राम (१८५७ ई.) के मूल में यह भी एक कारण था।

एम्‍प्‍टहिल, लार्ड
मद्रास का गवर्नर, जिसने १९०४ ई. में लार्ड कर्जन के अवकाश पर जानेपर ६ महीने भारत के वाइसराय के रूप में काम किया था।

एलगिन, लार्ड
मार्च १८६२ ई. में लार्ड केनिंग के स्थान पर भारत का गवर्नर जनरल तथा वाइसराय बनाया गया। लेकिन इस पदपर कुछ ही समय रहने के पश्चात् नवंबर १८६३ ई. में उसकी मृत्यु हो गयी। उसकी कब्र धर्मशाला (पंजाब) में बनी हुई है। लार्ड एलगिन के जमाने की मुख्य घटना यह है कि उसने पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त में कबायलियों के विद्रोह को दबाने के लिए 'अम्बेला अभियान' चलाया था।

एलगिन, लार्ड, द्वितीय
१८९४ से १८९९ ई. तक भारत का गवर्नर-जनरल तथा वाइसराय। अपने पिता की भाँति वह इसके पूर्व किसी महत्त्वपूर्ण पदपर नहीं रहा और न उसमें कोई विशेष व्यक्तिगत योग्यता थी। इसके अलावा उसका भाग्य भी खराब था उसी के कार्यकाल में १८९६ ई. में बंबई में प्लेग की महामारी फैली और १८९६-९७ ई. में देशव्यापी अकाल पड़ा। इन दोनों विपत्तियों को रोकने में अथवा जनता को राहत पहुँचाने में उसका प्रशासन सफल नहीं हुआ। नतीजा यह हुआ कि प्लेग और अकाल के कारण अकेले ब्रिटिश भारत में १० लाख व्यक्ति काल के गाल में समा गये। इसके अलावा बम्बई में प्लेग फैलने से अंग्रेजों के हाथ-पैर इतने फूल गये कि उन्होंने सेना की सहायता से उसे रोकने के लिए अत्यन्त कठोर कदम उठाये। अंग्रेज अधिकारी लोगों को घरों से निकालने के लिए जनानखाने तक में घुस जाते थे। इससे भारतीय जनता में बड़ी कटुता उत्पन्न हुई। फल यह हुआ कि पूना में दो अंग्रेज, जिनमें एक सिविलियन तथा दूसरा सैनिक अधिकारी था, मार डाले गये। इस घटना ने राजनीतिक रूप ग्रहण कर लिया।
लार्ड एलगिन द्वितीय के जमाने में ही यह तथ्य भी नग्न रूप में सामने आया कि भारत सरकार की वित्तीय नीति किस प्रकार अंग्रेज उद्योगपतियों के लाभ के लिए चलायी जाती है। १८९५ ई. में बजट में संभाव्य घाटे को रोकने के लिए सभी प्रकार के आयात पर ५ प्रतिशत शुल्क लगाया गया। केवल लंकाशायर से भारत आनेवाले कपड़े पर यह शुल्क नहीं लगाया गया। इस पक्षपातपूर्ण नीति का भारतीयों द्वारा घोर विरोध किया गया। फल यह हुआ कि अगले बजट में लंकाशायर से आयातित कपड़े पर भी शुल्क लगाने का निश्चय किया गया, लेकिन उसके साथ भारत में बने कपड़े पर भी उत्पादन-शुल्क लगा दिया गया। इससे यह स्पष्ट हो गया कि ब्रिटिश सरकार भारत के कपड़ा-उद्योग के विकास को पसन्द नहीं करती। लार्ड एलगिन द्वितीय ने १८९५ ई. में गिलगिट के पश्चिम और हिन्दूकुश पर्वत के दक्षिण में स्थित चित्राल रियासत में उत्तराधिकार के प्रश्न पर अनावश्यक रीति से हस्तक्षेप किया जिसके फलस्वरूप उसे पश्चिमोत्तर प्रदेशमें लम्बा और खर्चीला युद्ध चलाना पड़ा। इस युद्ध में ब्रिटिश भारतीय सेना की विजय अवश्य हुई और भारत-अफगान सीमा से लेकर चित्राल तक सैनिक यातायात के लिए सड़क का निर्माण कर दिया गया, लेकिन चित्राल के आन्तरिक मामले में अंग्रेज सरकार के हस्तक्षेप से आसपास के मोहमन्द और अफरीदी कबीलों में रोष फैल गया और उन्होंने १८९७ ई. में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। लार्ड एलगिन द्वितीय को उस विद्रोह का दमन करने के लिए कठिन संघर्ष करना पड़ा और अन्त में ३५ हजार फौज लगा देनी पड़ी, तब कहीं वे काबू में आये। १८५७ ई. के भारतीय स्वाधीनता-संग्राम के पश्चात् अंग्रेजों के लिए यह सबसे कठिन संघर्ष सिद्ध हुआ। लार्ड एलगिन द्वितीय के कार्यकाल में एक महत्त्वपूर्ण सैनिक सुधार हुआ। समस्त भारतीय सेना के लिए एक प्रधान सेनापति नियुक्त किया गया और उसके अधीन बंगाल, मद्रास, बम्बई तथा पंजाब एवं पश्चिमोत्तर प्रान्त में तैनात पलटनों को सँभालने के लिए चार लेफ्टिनेण्ट-जनरल नियुक्त किये गये। लार्ड एलगिन द्वितीय के कार्यकाल में केवल यही एक महत्त्व का सुधार हुआ।

एलफिन्स्टिन, जनरल विलियम जार्ज कीथ
(१७८२-१८७२ ई.) ब्रिटिश सेना में १८०४ ई. में प्रविष्ट। उसने वाटरलू के युद्ध में तथा अन्य अनेक लड़ाइयों में भाग लिया। पहले अफगान-युद्ध में तथा अन्य अनेक लड़ाइयों में भाग लिया। पहले अफगान-युद्ध के समय १८३९ ई. में वह ब्रिटिश भारतीय सेना के बनारस डिवीजन का कमाण्डर था। उसे भी अफगानिस्तान भेजा गया। १८४१ ई. के अन्त में वह काबुल पर चढ़ाई करनेवाली ब्रिटिश-भारतीय सेना का प्रधान सेनापति बनाया गया। जब अफगानों ने २३ दिसंबर १८४१ ई. में सर डब्‍लू. मैकनाटन की हत्या कर दी, तो एलफिन्स्टन अपने बुढ़ापे और खराब स्वास्थ्य के कारण अपनी सेना की सुरक्षा का उपाय न कर सका। जब ब्रिटिश सेना काबुल से वापस लौटने के लिए बाध्य हो गयी तो उसने अन्य अंग्रेज अफसरों के साथ अपने को बंधक के रूप में अकबर खाँ के हवाले कर दिया। इससे अंग्रेजों की प्रतिष्ठा की भारी हानि हुई। अप्रैल १८४२ ई. में जब वह भारत वापस लौट रहा था, तो रास्ते में ही नजीरा में उसकी मृत्यु हो गयी।

एलफिन्स्टन, जान बैरन
(१८०७-६०) -आरम्भ में १८३७ से १८४२ ई. तक मद्रास का गवर्नर। इस दौरान कोई विशेष घटना नहीं घटी। लेकिन जब वह १८५३ से १८६० ई. तक बम्बई का गवर्नर रहा, तब भारत में प्रथम स्वाधीनता-संग्राम छिड़ा। उसने बड़ी चतुराई से बम्बई प्रांत में विद्रोहाग्नि नहीं फैलने दी और मध्य भारत के कुछ भागों में विद्रोह को दबाने में सहायता दी।

एलफिन्स्टन, माउण्ट स्टुअर्ट
(१७७९-१८५९) विख्यात इतिहासकार और प्रशासक। वह ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सेवा में १७९५ ई. में लिपिक की हैसियत से भारत आया। बहुत शीघ्र वह पेशवा वाजीराव द्वितीय के दरबार में सहायक ब्रिटिश रेजीडेण्ट हो गया। उसने असई तथा आरगाँव के युद्धों में भारी वीरता दिखायी। १८०४ से १८०८ ई. तक नागपुर में रेजीडेण्ट रहा। बाद में १८११ ई. में पूना का रेजीडेण्ट बनाया गया, जहाँ उसने भारी कूटनीतिक चातुर्य का परिचय दिया। तीसरे मराठा युद्ध (दे.) (१८१७-१९ ई.) में उसने भारी संगठन-शक्ति और साहस का परिचय दिया। इस युद्ध में उसके घर पर आक्रमण हुआ, उसके पुस्तकालय को नष्ट कर दिया गया, लेकिन उसने हिम्मत नहीं हारी और अन्त में खड़की की लड़ाई (१८१७ ई.) में बाजीराव द्वितीय को पराजित कर दिया। युद्ध समाप्त होने पर उसे बम्बई का गवर्नर बना दिया गया। इस पद पर वह अवकाश ग्रहण करने के समय (१८२७ ई.) तक बना रहा। गवर्नर की हैसियत से उसने बम्बई प्रान्त में अनेक सुधार लागू किये और प्रान्त में शिक्षा का प्रसार किया। बम्बई का एलफिन्स्टन कालेज उसके ही सम्मान में स्थापित किया गया था। उसने १८४१ ई. में अंग्रेजी में 'भारतका इतिहास' नामक अपनी विख्यात पुस्तक लिखी।


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