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Bharatiya Itihas Kosh

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सालाबाई की संधि
मई १७८२ ई. में ईस्ट इंडिया कम्पनी और मोहादजीं शिन्दे के बीच हुई। फरवरी १७८३ ई. में पेशवा की सरकार ने इसकी पुष्टि कर दी। इसके फलस्वरूप १७७५ ई. से चला आ रहा प्रथम मराठा-युद्ध समाप्त हो गया। सन्धि की शर्तों के अनुसार साष्टी टापू अंग्रेजों के अधिकार में ही रहा, परन्तु उन्होंने राघोवा (दे.) का पक्ष लेना छोड़ दिया और मराठा सरकार ने इसे पेंशन देना स्वीकार कर लिया। अंग्रेजों ने माधवराव नारायण को पेशवा मान लिया और यमुना नदी के पश्चिम का समस्त भू-भाग शिन्दे को लौटा दिया। अंग्रेजों और मराठों में यह सन्धि २० वर्षों तक शान्तिपूर्वक चलती रही, पर इससे अंग्रेजों को ही विशेष लाभ हुआ; क्योंकि अब उन्हें टीपू सुल्तान सदृश अन्य शत्रुओं से निश्चिन्ततापूर्वक निपटने तथा अपनी शक्ति एवं स्थिति सुदृढ़ करने का अवसर मिल गया।

सालारजंग, सर (१८२९-८३)
१८५७ ई. के सिपाही विद्रोह के दिनों में हैदराबाद के निजाम का प्रधानमन्त्री, जो विद्रोह के काल में अंग्रेज सरकार का पूर्ण भक्त रहा। इसी के फलस्वरूप उसे सरकार द्वारा 'सर' की उपाधि प्रदान हुई। सालारजंग कुशल प्रशासक भी था और उसने निजाम की शासन-व्यवस्था में अनेक सुधार किये। हैदराबाद में 'सालारगंज संग्रहालय' दर्शनीय है जिसमें विविध प्रकार की प्राचीन वस्तुएँ संगृहीत हैं।

सालुव तिम्म
विजयनगर के शासक कृष्णदेव राय (1503-30) का मंत्री और सेनापति। कृष्‍णदेव राय की सफलता में सालुव तिम्मकी नीति-कुशलता और रणचातुरी का बड़ा हाथ था। वह रामराजा (रामराय) (दे.) का पिता था जो 1565 ई. में तालीकोट के युद्ध में मारा गया था। सालुव तिम्म विद्वान् और लेखक भी था। उसने बाल भारत (दे.) नामक महाकाव्य पर 'मनोहर' (दे.) नामक टीका की रचना की थी।

सालुव नरसिंह
विजयनगर के सालुव अथवा द्वितीय राजवंश का संस्थापक तथा प्रथम शासक। नरसिंह विजय नगर के अधीनस्थ चन्द्रगिरि का अधिनायक था। वह संगम अथवा प्रथम राजवंश के अंतिम शासक प्रौढ़देव के काल में उच्च पदाधिकारी था। बहमनी वंश के सुल्तान और उड़ीसा के शासक की सेनाओं से निजयनगर राज्य की रक्षा करने में प्रौढ़देव को असमर्थ देखकर नरसिंह ने उसको अपदस्थ कर दिया और स्वयं सिंहासनासीन हो गया। उसने उड़ीसा के राजा और बहमनी सुल्तान द्वारा विजयनगर के अधिकृत भू-भागों में से अधिकांश को पुनः जीत लिया। सालुव नरसिंह दो पुत्रों को अपने विश्वासपात्र सेनापति नरेश नायक के संरक्षण में छोड़कर १४९०-९१ ई. में परलोकगामी हुआ।

सालुव वंश
विजयनगर का द्वितीय राजवंश। इसका शासनकाल अनुमानतः १४८६ से १५०३ ई. तक रहा। इसका प्रारम्भ लगभग १४८६ ई. में चन्द्रगिरि के नायक सालुव नरसिंह ने तत्कालीन अयोग्य शासक प्रौढ़देव को सिंहासनच्युत करके किया था। प्रौढ़देव के साथ ही विजयनगर के प्रथम अथवा संगम राजवंश का अन्त हो गया। सालुव नरसिंह के अतिरिक्त इस वंश में इम्मादी नरसिंह नामक केवल एक और शासक हुआ, जिसे लगभग १५०५ ई. में तुलुव के नरसा नरेश नायक के पुत्र वीर नरसिंह ने अपदस्थ कर दिया।

सावरकर, विनायक दामोदर (१८८३-१९६६)
अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध भारत की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने वाले विनायक दामोदर सावरकर साधारणतया वीर सावरकर के नाम से विख्यात थे। १९४० ई. में उन्होंने पूना में 'अभिनव भारती' नामक एक ऐसे क्रांतिकारी संगठन की स्थापना की, जिसका उद्देश्य आवश्यकता पड़ने पर बल-प्रयोग द्वारा स्वतंत्रता प्राप्त करना था। जब वे विलायत में कानून की शिक्षा प्राप्त कर रह थे, तभी १९१० ई. में एक हत्याकांड में सहयोग देने के अभियोग में बन्दी बना लिये गये और विचाराधीन कैदी के रूप में एक जहाज द्वारा भारत रवाना कर दिये गये। परन्तु फ्रांस के मार्सेलीज़ बन्दरगाह के समीप जहाज से वे समुद्र में कूदकर भाग निकले, किन्तु पुनः पकड़े गये और भारत लाये गये। यहाँ एक विशेष न्यायालय द्वारा उनके अभियोग की सुनवाई हुई और उन्हें आजीवन कालेपानी की दुहरी सजा मिली। १९३७ ई. में उन्हें मुक्त कर दिया गया, परन्तु भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को उनका समर्थन न प्राप्त हो सका और १९४८ ई. में महात्मा गांधी की हत्या में उनका हाथ होने का संदेह किया गया। बाद में वे निर्देष सिद्ध हुए और उन्होंने राजनीति से संन्यास ले लिया। उन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना की, जिनमें 'भारतीय स्वातंत्र्य युद्ध', 'मेरा आजीवन कारावास' और 'अण्डमान की प्रतिध्वनियाँ' (सभी अंग्रेजी में) अधिक प्रसिद्ध हैं।

साष्टी
बम्बई के उत्तर एक द्वीप, जिसका क्षेत्रफल २४१ वर्गमील है। अब यह द्वीप बम्बई नगर से पुल तथा सड़कों द्वारा पूर्ण रूप से जुड़ गया है। साष्टी के प्राचीन गुहा-मन्दिर और भग्नावशेष दर्शनीय हैं। प्रथम मराठा युद्ध प्रारम्भ होने पर अंग्रेजों ने १७७५ ई. में साष्टी (दे.) पर अधिकार कर लिया और १७८३ ई. की साल्वाई की संधि के अनुसार यह द्वीप अंग्रेजों को दे दिया गया।

सि
कुषाण सम्राट् कथफिश द्वितीय (दे.) का राज प्रतिनिधि। उसने पामीर पार करके चीन पर आक्रमण किया, किन्तु पराजित हो गया।

सिंघण
देवगिरि के यादव वंश का सबसे शक्तिशाली शासक। १३ वीं शताब्दी के प्रारंभ में अपने पिता जैतुगी (जैत्रपाल) के उपरांत वह शासक हुआ तथा १२४६ ई. मृत्युपर्यन्त राज्य किया। उसने चारों दिशाओं में विजय यात्राएँ कीं। उसके राज्य में मध्य तथा पश्चिमी दक्षिणापथ के समस्त भू-भाग थे। वह साहित्य तथा कला का भी महान् पोषक था। उसके आश्रित विद्वान् शारंगधर ने संगीत पर 'संगीत संगीत रत्‍नाकर' नामक ग्रंथ लिखा, जिस पर सिंघण ने एक टीका लिखी। उसने भास्कराचार्य द्वारा रचित 'सिद्धान्तशिरोमणि' तथा ज्योतिष संबंधी अन्य ग्रंथों के अध्ययन के लिए एक विद्यालय की स्थापना की।

सिंह विष्णु, पल्लव
कांची के पल्लव वंश का प्रारंभिक शासक। उसने छठीं शताब्दी ई. के अंतिम चरण में राज्य किया। अभिलेखों के अनुसार उसने केवल पांड्य, चेर और चोल राजाओं को ही नहीं, बल्कि श्रीलंका के शासक को भी पराजित किया।


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