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Bharatiya Itihas Kosh

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सलीम चिश्ती, शेख
प्रसिद्ध मुसलमान सूफी संत, जो आगरा के निकट सीकरी की सूखी चट्टानों पर निवास करता था। बादशाह अकबर पुत्र की लालसा से उसके चरणों पर जा गिरा। शेख ने उसको तीन पुत्रों का आशीर्वाद दिया। यह भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हुई और अकबर ने अपने ज्येष्ठ पुत्र का नाम शेख के नाम पर सलीम रखा। अकबर को विश्वास हो गया कि शेख के चरणों के निकट का स्थल उसके लिए भाग्यशाली सिद्ध होगा और इसी कारण उसने सीकरी में एक भव्य मस्जिद तथा नये नगर का निर्माण कराया। उसने इस स्थल का नाम फतेहपुर सीकरी रखा और उसे ही अपनी राजधानी बनाया।

सलीम, शाहजादा
अकबर के ज्येष्ठ पुत्र और उत्तराधिकारी का प्रारम्भिक नाम। सिंहासन पर बैठने के उपरान्त उसने जहाँगीर (दे.) की उपाधि ग्रहण की तथा इसी नाम से विख्यात भी हुआ।

सलीमा बेगम
बाबर की पुत्री और अकबर की फूफी। १५५७-५८ ई. में उसका विवाह पहले बैरम खाँ के साथ हुआ था, किन्तु बैरम खाँ के पतन और उसकी मृत्यु के उपरान्त अकबर ने स्वयं उससे विवाह कर लिया। वह अकबर की मृत्यु के बाद भी जीवित रही और उसका देहान्त १६१२ ई. में हुआ। वह सुसंस्कृत महिला थी तथा अकबर के हरम में उसका विशिष्ट स्थान था। अकबर और शाहजादा सलीम के प्रारम्भिक सम्बन्ध अच्छे न थे परन्तु उसके प्रयास से दोनों में १६०३ ई. में मेल हो गया।

सलीवान, लारेंस
ईस्ट इण्डिया कम्पनी का एक डाइरेक्टर तथा राबर्ट क्लाइव (दे.) का विरोधी।

सविनय अवज्ञा आन्दोलन
ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध भारतीय राष्‍ट्रीय कांग्रेस द्वारा चलाये गये जनआंदोलन में से एक। १९२९ ई. तक भारत को ब्रिटेन के इरादे पर शक होने लगा कि वह औपनिवेशिक स्वराज्य प्रदान करने की अपनी घोषणा पर अमल करेगा कि नहीं। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने लाहौर अधिवेशन (१९२९) में घोषणा कर दी कि उसका लक्ष्य भारत के लिए पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त करना है। महात्मा गांधी ने अपनी इस मांग पर जोर देने के लिए ६ अप्रैल १९३० ई. को सविनय अवज्ञा आन्दोलन छेड़ा, जिसका उद्देश्य कुछ विशिष्ट प्रकार के गैरकानूनी कार्य सामूहिक रूप से करके ब्रिटिश सरकार को झुका देना था।
कानूनों को जानबूझ कर तोड़ने की इस नीति का कार्यान्वयन औपचारिक रूप से उस समय हुआ जब महात्मा गांधी ने अपने कुछ चुने हुए अनुयायियों के साथ 'साबरमती आश्रम' से समुद्र तट पर स्थित डाँडी नामक स्थान तक कूच किया और वहाँ पर लागू नमक कानून को तोड़ा।
लिबरलों और मुसलमानों के बहुत बड़े वर्ग ने इस आन्दोलन में भाग नहीं लिया, किन्तु देश का सामान्य जन इस आंदोलन में कूद पड़ा। हजारों नर-नारी और आबाल-वृद्ध कानूनों को तोड़ने के लिए सड़कों पर आ गये। संपूर्ण देश गंभीर रूप से आंदोलित हो उठा। ब्रिटिश सरकार ने आंदोलन को दबाने के लिए सख्त कदम उठाये और गांधीजी सहित अनेक कांग्रेसी नेताओं व उनके समर्थकों को जेल में डाल दिया। आन्दोलनकारियों और सरकारी सिपाहियों के बीच जगह-जगह जबरदस्त संघर्ष हुए। शोलापुर जैसे स्थानों पर औद्योगिक उपद्रव और कानपूर जैसे नगरों में साम्प्रदायिक दंगे भड़क उठे। हिंसा के इस विस्फोट से गाँधी जी चिन्तित हो गये। वे इस आन्दोलन को बिलकुल अहिंसक ढंग से चलाना चाहते थे। सरकार ने भी गांधी जी व अन्य कांग्रेसी नेताओं को रिहा कर दिया और वाइसराय लार्ड इरविन और गांधी जी के बीच सीधी बातचीत का आयोजन करके समझौते की अभिलाषा प्रकट की। गांधी जी और लार्ड इरविन में समझौता हुआ, जिसके अन्तर्गत सविनय अवज्ञा आन्दोलन वापस ले लिया गया। हिंसा के दोषी लोगों को छोड़कर आंदोलन में भाग लेनेवाले सभी बंदियों को रिहाकर दिया गया और कांग्रेस गोलमेज सम्मेलन के दूसरे अधिवेशन (१९३१) में भाग लेने को सहमत हो गयी।
परन्तु गोलमेज सम्मेलन का यह अधिवेशन भारतीयों के लिए निराशा के साथ समाप्त हुआ। इंग्लैण्ड से लौटने के बाद तीन हफ्तों के अन्दर ही गांधीजी को गिरफ्तार कर जेल में ठूँस दिया गया और कांग्रेस पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। इस काररवाई से १९३२ ई. में सविनय अवज्ञा आन्दोलन फिर भड़क उठा। आंदोलन में भाग लेने के लिए हजारों लोग फिर निकल पड़े, किंतु ब्रिटिश सरकार ने सविनय अवज्ञा आन्दोलनों के इस दूसरे चरण को बर्बरतापूर्वक कुचल दिया। आंदोलन तो कुचल दिया गया, लेकिन उसके पीछे छिपी विद्रोह की भावना जीवित रही, जो १९४२ ई. में तीसरी बार फिर भड़क उठी।

सविनय अवज्ञा आन्दोलन
इस बार गांधीजी ने ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध 'भारत छोड़ो' -आन्दोलन छेड़ा। सरकार ने फिर ताकत का इस्तेमाल किया और गांधीजी सहित कांग्रेस कार्यसमिति के सभी सदस्यों को कैद कर लिया। इसके विरोध में देशभर में तोड़फोड़ और हिंसक आन्दोलन भड़क उठा। सरकार ने गोलियाँ बरसायीं, सैकड़ों व्यक्ति मारे गये और करोड़ों रुपये की सम्पत्ति नष्ट हुई। यह आन्दोलन फिर दबा दिया गया, लेकिन इस बार यह निष्फल नहीं रहा। इसने ब्रिटिश सरकार को यह दिखा दिया कि भारत की जनता अब उसकी सत्ता को ठुकराने और उसकी अवज्ञा के लिए कमर कस चुकी है और उस पर काबू पाना अब मुश्किल है। सन् ४२ में 'अंग्रेजों', भारत छोड़ो'- का जो नारा गांधीजी ने दिया था, उसके ठीक पांच वर्षों बाद अगस्त १९४७ में ब्रिटेन को भारत छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा।

सहकारिता आन्दोलन
मद्रास के एक सिविलियन (असैनिक अधिकारी) फ्रेडरिक निकल्सन के प्रस्ताव पर अपने देश में इसका आरम्भ हुआ। निकल्सन की सिफारिश पर सहकारिता प्रणाली की संभावनाओं और उपयोगिता का पता लगाने के लिए १९०१ ई. में एक समिति नियुक्त की गयी। १९०४ ई. में एक कानून पास हुआ, जिसका उद्देश्य सूदखोर महाजनों के फंदे से बचाकर लोगों को उचित दरों पर रुपया उधार दिलाने के वास्ते शहर और गाँवों में ऋण-समितियाँ गठित करना था। यहीं से भारत में सहकारिता आंदोलन का श्रीगणेश माना जाता है। शीघ्र ही इस आन्दोलन ने हर प्रांत में उल्लेखनीय प्रगति की। १९१२ ई. में आन्दोलन का विस्तार करने के विचार से सहकारिता कानून में संशोधन करके ऋण न देनेवाली सहकारी समितियों, केन्द्रीय वित्तीय समितियों और संघों को भी मान्यता दे दी गयी।
१९१९ ई. के शासन विधान के अन्तर्गत सहकारिता को प्रांतीय विषय बनाकर उसे भारतीय मंत्रियों के जिम्मे कर दिया गया। शनै:-शनै: सहकारिता आंदोलन की जड़ें जमने और कृषि ऋण समितियों, केन्द्रीय वित्तीय एजेन्सियों और प्रांतीय बैकों का गठन किया गया। कुछ प्रांतों में भूमि-बंधक बैकों की स्थापना हुई, जिनका उद्देश्य किसानों को पुराने कर्ज चुकाने के लिए उनकी भूमि बंधक बनाकर दीर्घकालिक ऋण देना है। १९२५ ई. के बाद अनाजों तथा अन्य फसलों के मूल्यों में भारी गिरावट आ जाने से सहकारिता आन्दोलन को गहरा धक्का लगा। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद यद्यपि कीमतें ऊपर चढ़ीं, लेकिन फिर भी यह आन्दोलन आशानुरूप प्रगति नहीं कर सका। यदि उपभोक्ता बाण्डों, खासकर कृषि-उत्पादनों की खरीद-फरोख्त करने और मध्यमवर्गीय लोगों को मकान बना नेकी सुविधाएँ प्रदान करने की दिशा में सहकारिता आंदोलन को अग्रसर किया जाय तो इसका काफी विस्तार हो सकता है। (जे. पी. नियोगी कृत हिस्ट्री आफ दि कोआपरेटिव मूवमेंट इन इंडिया)

साइमन कमीशन
इसकी नियुति नवम्बर १९२७ ई. में हुई और अध्यक्ष सर जॉन (उपरांत वाई काउंट) साइमन के नाम पर उसका यह नाम पड़ा। इस कमीशन का उद्देश्य १९१९ ई. के भारतीय शासन-विधान की कार्यप्रणाली की जाँच करके उस पर एक रिपोर्ट देना था। इसके सभी सदस्य अंग्रेज होने तथा इसमें भारतीयों को न सम्मिलित किये जाने का तीव्र विरोध हुआ। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने इसके बहिष्कार का निश्चय किया, फलतः जहाँ कहीं भी कमीशन गया वहाँ लोगों ने हड़ताल की। तत्कालीन अंग्रेज सरकार ने इस अहिंसक आंदोलन को तत्कालीन अंग्रेज सरकार ने इस अहिंसक आंदोलन को तोड़ने के लिए हिंसा का सहारा लिया, जिससे जनरोष उबल पड़ा। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने १९२९ ई. के लाहौर अधिवेशन में अपना लक्ष्य पूर्ण स्वतन्त्रता घोषित किया।
साइमन कमीशन की रिपोर्ट मई १९३० ई. में प्रकाशित हुई। इससे अत्यधिक निराशा फैली, क्योंकि उसमें केवल प्रान्तों में ही पूर्ण उत्तरदायी सरकार बनाने की संस्‍तुति की गयी थी तथा केन्द्र में उस समय तक यथावत् अंग्रेज सरकार के नियंत्रण में शासन-व्यवस्था चालू रखने की सिफारिश की गयी थी, जब तक ब्रिटिश भारत तथा देशी रियासतों का एक संघ नहीं बन जाता और जिसकी निकट भविष्य में कोई आशा नहीं थी। राष्ट्रवादी भारतीयों ने कमीशन की संस्तुतियों को अस्वीकार कर दिया। इसका कुछ प्रभाव १९३५ ई. के भारतीय शासन-विधान पर पड़ा, जिनमें ब्रिटिश भारत और देशी रियासतों के एक संघ का प्राविधान किया गया। संघीय संविधान की यह परिकल्पना १९४७ ई. में देश के स्वतंत्र होने पर भारतीय गणतन्त्र के संविधान में साकार हुई।

साइरस (कुसष अथवा क्रस)
फारस का बादशाह (५५८ से ४३० ईसापूर्व) कहा जाता है कि उसने गदरोशिया या बलूचिस्तान के रास्ते भारत पर चढ़ाई की, किन्तु असफल रहा। बताया जाता है उसने प्राचीन नगर कपिशा को ध्वस्त किया था जो आधुनिक अफगानिस्तान में स्थित है। यह भी कहा जाता है कि उस समय काबुल नदी की घाटी में बसे कुछ भारतीय गणराजाओं से उसने कर वसूल किया।

सातकर्णि प्रथम
सातवाहन वंश का तीसरा शासक तथा कृष्ण का पुत्र। कुछ विद्वान् उसे सिन्धुक अथवा सिभुक का पुत्र भी मानते हैं। उसने सम्पूर्ण दक्षिण तथा पूर्वी मालवा के भू-भागों पर राज्य किया। यद्यपि उसकी शक्ति एवं सत्ता को एक बार खारवेल (दे.) ने चुनौती दी थी, फिर भी उसने अश्वमेध यज्ञ किया। इस वंश का वह इतना प्रतापशाली शासक सिद्ध हुआ कि उसके उपरान्त के कई उत्तराधिकारी शासकों ने उसी के नाम (सातकर्णि) का विरुद धारण किया।


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