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Bharatiya Itihas Kosh

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सर दिनकर राव
१९ वीं शताब्दी में हुए गवालियर के महाराज सिन्धया का दीवान। सिपाही-विद्रोह के समय दिनकर राव ने सिन्धिया और उसकी सेना को अंग्रेजों का भक्त बनाये रखा। इससे अंग्रेजों को बहुत सुविधा प्राप्त हुई।

सर पियरे कवागनरी
ब्रिटिश भारतीय सरकार का राजदूत, जिसे दूसरे अफगान-युद्ध (१८७८-८० ई.) का पहला चरण समाप्त होने पर कुर्रम संधि (१८७९ ई.) के बाद काबुल में नियुक्त किया गया। वह जुलाई १८७९ ई. में अपना पद सँभाल ने काबुल पहुँचा, लेकिन छः सप्ताह बाद ही अमीर की विद्रोही अफगान फौजों ने उसकी हत्या कर दी। इस कृत्य से शत्रुता फिर भड़क उठी और दूसरा अफगान-युद्ध एक वर्ष तक और चलता रहा।

सरफराज खाँ
नवाब मुर्शिदकुली खाँ (दे.) का दौहित्र, जो १७३९-४० ई. में बंगाल का नवाब रहा। १७४० ई. में वह अपने अधीनस्थ नायब अलीवर्दी खाँ द्वारा पराजित होकर मारा गया और अलीवर्दी खाँ (दे.) बंगाल का नवाब बना।

सरमैन, जान
ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेवा में नियुक्त एक नवयुवक लिपिक। वह जुलाई १७१५ ई. में बादशाह फर्रुखशियर (दे.) के दरबार में दूतमंडल को साथ लेकर गया, जिसमें एक आर्मीनियाई ख्वाजा सरहिंद तथा एक अंग्रेज एडवर्ड स्टीफेन्सन सम्मिलित था। हघबार्कर मंडल का सचिव था। ३० दिसम्बर १७१६ ई. को मुगल बादशाह ने दूतमंडल को तीन फरमान प्रदान किये, जो बंगाल, हैदराबाद तथा अहमदाबाद के मुगल सूबेदारों को सम्बोधित थे। इनके द्वारा कम्पनी को केवल तीन हजार रु. के वार्षिक खिराज पर निःशुल्क व्यापार करने का अधिकार दे दिया गया। इसके अतिरिक्त अन्य कई व्यापारिक सुविधाएँ भी प्रदान की गयीं। सरमैन ने बादशाह फर्रुखशियर से जो फरमान प्राप्त किया, वह इतना महत्त्वपूर्ण था कि उसे भारत में ब्रिटिश व्यापार का मैग्ना चार्टा (अधिकार पत्र) कहा जाता है।

सर विलियम जोन्स
(१७४६-९४)-एक प्रसिद्ध ब्रिटिश प्राच्यविद्याविद् तथा न्यायमूर्ति। जन्म इंग्लैंड में। उन्होंने आक्सफोर्ड में शिक्षा पायी तथा विविध यूरोपीय भाषाओं के अतिरिक्त अरबी, फारसी, यहूदी तथा चीनी भाषाएँ भी सीखीं। १७७० ई. में ही फारसी में लिखित नादिरशाह की जीवनी का अनुवाद फ्रेंच भाषा में किया। १७७४ ई. में बैरिस्टरी पास की और इंग्लैड के कानून के कुछ पहलुओं पर किताबें लिखीं, जिनकी काफी चर्चा हुई। १७८३ ई. में वे कलकत्ता में सुप्रीमकोर्ट के जज नियुक्त हुए और 'सर' की उपाधि से विभूषित किये गये।
बंगाल पहुँचते ही उन्होंने जनवरी १७८४ ई. में बंगाल एशियाटिक सोसाइटी की स्थापना की और कलकत्ता में १७९४ ई., जीवनान्तक उसके अध्यक्ष रहे। सुप्रीमकोर्ट के जज की हैसियत से वे शीघ्र इस बात की आवश्यकता अनुभव करने लगे कि हिन्दुओं के मामलों का निर्णय करने के लिए हिन्दू कानूनों के ग्रंथ देखने चाहिए। इसके लिए उन्होंने संस्कृत सीखना शुरू किया और शीघ्र ही उस भाषा पर इतना अधिकार कर लिया कि वे १७८९ ई. में कालिदास के 'शकुंतला' नाटक का अंग्रेजी अनुवाद करने में सफल हो गये और उन्होंने मनुसंहिता का (स्मृति) का भी अंग्रेजी में अनुवाद किया, जो १७९४ ई. में प्रकाशित हुआ। हितोपदेश (दे.) तथा गीतगोविन्द (दे.) का भी अंग्रेजी अनुवाद किया। साथ ही उन्होंने अंग्रेजी में फारसी भाषा का व्याकरण (१७७१ ई.), मुसलिम उत्तराधिकार कानून तथा मुसलिम दायाधिकार कानून (१७८२) ई. नामक ग्रन्थों की भी रचना की।
भारत में फारसी भाषा के विद्वान् तो बहुत से अंग्रेज हुए, परन्तु सर विलियम जोन्स पहले व्यक्ति थे जिन्होंने बड़ी निष्ठा के साथ संस्कृत भाषा सीखी और हिन्दुओं की इस प्राचीन भाषा तथा साहित्य से यूरोपीय विद्वानों को परिचित कराया। उन्होंने इस कार्य द्वारा एक प्रकार से तुलनात्मक भाषा-विज्ञान की नींव डाली।

सरहिन्द
सिक्खों के इतिहास में ख्यातिप्राप्त पंजाब का एक नगर।

सर्वसेन
वाकाटक सम्राट् प्रवरसेन प्रथम का द्वितीय पुत्र। सम्राट् ने वत्सगुल्म अथवा वाशिय (आधुनिक बरार) का अधीनस्थ शासक नियुक्त किया और उसी के द्वारा वाकाटक राजवंश की वाशिय-शाखा की नींव पड़ी।

सर्वेन्ट्स आफ इण्डिया सोसाइटी
का संगठन गोपाल कृष्ण गोखले ने १९०५ ई. में किया। इसका उद्देश्य देश-सेवार्थ कर्मठ समाज-सेवियों को प्रशिक्षण देना तथा भारतीय जनसमुदाय के यथार्थ हितों की वैधानिक विधियों से उन्नति करना था। संस्था के सदस्यों को किसी न किसी प्रकार की निःस्वार्थ देशसेवा करने का प्रशिक्षण देकर उन्हें उसके योग्य बनाया जाता था। इसके प्रथम अध्यक्ष गोखले और उनके उत्तराधिकारी श्रीनिवास शास्त्री ने पूरे मनोयोग से अपने आपको भारत की राजनीतिक प्रगति को तीव्रतर करने में लगा दिया। इस संस्था के तीसरे विशिष्ट सदस्य नारायण मल्हार जोशी ने जनजीवन के सुधार एवं शिक्षा प्रसारार्थ १९१२ ई. में बम्बई में सामाजिक सेवा संघ की स्थापना की।
जोशी ने ही १९२० ई. में अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस की नींव डाली, किन्तु इसका झुकाव धीरे-धीरे साम्यवाद की ओर होने के कारण जोशी को सर्वेन्ट्स आफ इंडिया सोसाइटी से अलग होना पड़ा।
सर्वेन्ट्स आफ इंडिया सोसाइटी के चौथे उल्लेखनीय सदस्य पंडित हृदयनाथ कुंजरू थे। उन्होंने प्रयाग में सेवासमिति की स्थापना की। एक अन्य पाँचवें सदस्य श्रीराम बाजपेयी ने १९१४ ई. में सेवासमिति बालचर संघ का संगठन किया, जिसका उद्देश्य भारत में बालचर आन्दोलन का श्रीगणेश करना था। सर्वेन्ट्स आफ इंडिया सोसाइटी के इन पाँचों उल्लेखनीय सदस्यों के कार्यकलापों से स्पष्ट है कि भारत में राष्ट्रीय जीवन को विशिष्ट स्वरूप देने में इस संस्था ने महत्त्वपूर्ण योगदान किया है।

सर्वोच्च न्यायालय
१९४९ ई. के भारतीय संविधान अधिनियम के अन्तर्गत इसकी स्थापना की गयी तथा २६ जनवरी १९५० ई. को इसका कार्य प्रारम्भ हुआ। भारत का प्रधान न्यायाधीश (सर हरिलाल कानिया भारत का पहला प्रधान न्यायाधीश था) इसका अध्यक्ष होता है। इसकी सहायता के लिए कई अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति की जाती है जो ६५ वर्ष की अवस्थात क पदासीन रहते हैं। इस न्यायालय में सीधे मुकदमें भी दायर होते हैं और अपीलें भी की जाती हैं। यह भारत की सबसे बड़ी अपील अदालत है और इसके निर्णयों पर कोई अपील नहीं की जा सकती। यह न्यायालय भारतीय संविधान में निरूपित किसी मूलभूत अधिकार का परिपालन कराने के लिए भी आदेश जारी कर सकता है।

सलावतजंग
हैदराबाद के शासक आसफ़जाह निज़ामुलमुल्क का तृतीय पुत्र। फ्रांसीसियों की सहायता से १७५१ ई. में वह निजाम बना तथा दस वर्षों तक शासन करता रहा। प्रारम्भ में उसकी सत्ता फ्रांसीसी सैनिकों के बलपर टिकी रही और फ्रांसीसी सेनानायक बुसी उसके दरबार में रहने लगा। सलावतजंग ने फ्रांसीसी सैनिकों पर होनेवाले व्यय के बदले उत्तरी-सरकार का जिला बुसी को दे रखा था। किन्तु १७४८ ई. में जब बुसी को हैदराबाद से वापस बुला लिया गया और फोर्ड के नेतृत्व में अंग्रेज़ी सेना ने पूर्वी तट के मार्ग से आकर मसुलीपट्टम पर अधिकार कर लिया तब सलावतगंज अंग्रेजों से मिल गया और उनकी सहायता के आश्वासन पर उत्तरी सरकार का जिला उनको सैनिक व्यय के लिए दे दिया। फिर भी १७६० ई. में मराठों ने उद्गीर के युद्ध में सलावतजंग को बुरी तरह परास्त किया और उसे अपने राज्य के कई महत्त्वपूर्ण भू-भाग मराठों को दे देने पड़े। इस घटना के उपरान्त ही १७६१ में उसके भाई निजाम अली ने उसकी हत्या कर दी।


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