logo
भारतवाणी
bharatavani  
logo
Knowledge through Indian Languages
Bharatavani

Bharatiya Itihas Kosh

Please click here to read PDF file Bharatiya Itihas Kosh

सिपाही विद्रोह
प्रारंभ में विद्रोहियों को विशेष सफलता मिली। १० मई, १८५७ ई. को मेरठ से चलकर दूसरे ही दिन उन्होंने दिल्ली पर अधिकार कर लिया और बहादुरशाह द्वितीय को, जो केवल एक कठपुतली शासक मात्र था, दिल्ली का सम्राट् घोषित कर दिया गया। दिल्ली पर अधिकार कर लेने से विद्रोहियों की प्रतिष्ठा बढ़ गयी और अगले दो महीनों में यह विद्रोह अवध और रुहेलखण्ड में फैल गया। राजपूताने में स्थित नसीराबाद, ग्वालियर राज्य में नीमच, वर्तमान उत्तर प्रदेश में बरेली, लखनऊ, वाराणसी और कानपुर की छांवनियों के सिपाहियों ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। उधर बुन्देलखण्ड में विद्रोह का नेतृत्व करती हुई झाँसी की रानी ने उन सभी यूरोपियनों को, जो उसके हाथों में पड़ते गये, मार डाला। विद्रोह प्रारंभ होने पर सभी ओर से विद्रोही दिल्ली की ओर चल पड़े, केवल कानपुर में स्थित अंग्रेजी सैनिक छांवनी और लखनऊ में रेजीडेन्सी का घेरा डाल दिया गया। कानपुर के निकट बिठूर में नाना साहब को पेशवा घोषित किये जाने से स्पष्ट हो गया कि विद्रोहियों में किसी सुनिश्चित लक्ष्य का अभाव है। उनका लक्ष्य क्या था-मुगल सम्राट् को पुनः सिंहासनासीन करके भारत में मुसलमानी राज्य की पुनः स्थापना, अथवा ब्राह्मण पेशवा के अधीन हिंन्दू राज्य की स्थापना ? समस्त विद्रोह-काल में उद्देश्यों में यह अस्पष्टता बनी रही, जिससे उसकी शक्ति शिथिल होती गयी। प्रारम्भ में यह लक्ष्यहीनता स्पष्ट न थी और भारत में अंग्रेजी शासन के लिए वास्तविक भय उत्पन्न हो गया था। दिल्ली, कानपुर, लखनऊ और बुन्देलखंड इस विद्रोह के मुख्य केन्द्र बन गये थे। अंग्रेजी सत्ता, जो प्रारम्भिक प्रहारों से डाँवाडोल हो रही थी, धीरे-धीरे सिक्खों, गोरखों और दक्षिण भारत की सैनिक छावनियों से लाये गये सैनिकों द्वारा पुनः स्थापित हो गयी। १४ सितम्बर १८५७ ई. को दिल्ली पर उनका पुनः अधिकार हो गया और कानपुर पर २७ जून १८५७ को। २५ सितम्‍बर को लखनऊ का घेरा भी तोड़ दिया, किंतु शहर पूना विद्रोहियों के हाथों में पड़ जाने के कारण ५ नवम्बर को उस पर अधिकार हो सका। इसी बीच सर कालीन कैम्पबेल, सेनाध्यक्ष और सर ह्यूरोज सदृश दो विशेष अनुभवी अफसरों के नेतृत्व में अंग्रेजों की नयी सेना भी आ गयी।

सिपाही विद्रोह
कैम्पवेल ने अवध और रुहेलखण्ड में विद्रोह का दमन किया और सर ह्यूरोज ने बुन्देलखण्ड में। उसने झाँसी की रानी को लगातार कई युद्धों में परास्त किया, परन्तु रानी वीरतापूर्वक लड़ती हुई वीरगति को प्राप्त हुई। तात्या टोपे को, जो नाना साहब का सेनापति था, बन्दी बनाकर फाँसी दे दी गयी। १४ सितम्बर को जब दिल्ली पर अंग्रेजों का पुनः अधिकार हुआ, बहादुरशाह द्वितीय को बन्दी बनाकर रंगून भेज दिया गया, जहाँ उसकी मृत्यु हो गयी। उसके दो पुत्रों और पौत्रों को कर्नल हाड्सन ने बिना किसी न्यायिक जाँच के गोली से उड़ा दिया। नाना साहब नेपाल की तराई के जंगलों की ओर भाग गया और फिर उसका पता न लगा। ८ जुलाई १८५८ ई. को तत्कालीन गवर्नर-जनरल लार्ड कैनिंग ने विद्रोह की समाप्ति और शांति-स्थापना की घोषणा की।
विद्रोह काल में दोनों ही पक्षों की ओर से अत्यन्त अमानुषिक अत्याचार हुए। उस काल की कटु स्मृतियों ने यूरोपियनों और भारतीयों के बीच ऐसी खाई पैदा कर दी, जो दीर्घकाल तक पट नहीं सकी। इस विद्रोह के फलस्वरूप भारत में कम्पनी का राज्य समाप्त हो गया और भारत का प्रशासन कम्पनी से इंग्लैण्ड की महारानी के हाथों में आ गया। महारानी विक्टोरिया ने इस परिवर्तन की घोषणा की और सभी को क्षमा करने तथा धार्मिक स्वतंत्रता, देशी राजाओं के अधिकारों की रक्षा एवं गोद प्रथा के अंत की नीति को त्याग देने का वचन दिया।
अंग्रेजों की सफलता और विद्रोहियों की विफलता के कई कारण थे। सर्वप्रथम, विद्रोह कुछ वर्गों तक सीमित था। इस विद्रोह का क्षेत्र पश्चिम में पंजाब, पूर्व में बंगाल, उत्तर में अवध और दक्षिण में नर्मदा नदी तक ही सीमित था। यह विद्रोह केवल सैनिकों तक ही सीमित था, देशी नरेश और भारत की साधारण जनता इससे अलग रही। दूसरे, विद्रोहियों का कोई एक मूल उद्देश्य न था और न उन्हें किसी केन्द्रीभूत तथा कुशल नेतृत्व के संचालन का सुयोग प्राप्त था। तीसरे, वे भली प्रकार संगठित भी न थे। प्रत्येक दल का अपना नेता होता था, जो अपने ही बलपर युद्ध करता था। चौथे, सिक्खों ने अपनी थोड़े दिन पूर्व हुई पराजय के लिए विद्रोही सिपाहियों को कारण मानकर स्वामिभक्ति की भावना से अंग्रेजों का पूरा साथ दिया। वस्तुतः यह उन्हीं की सहायता का परिणाम था कि दिल्ली पर अंग्रेजों का पुनः अधिकार हुआ और विद्रोह की रीढ़ टूट गयी। पाँचवें, यद्यपि विद्रोही अत्यधिक वीरता से लड़े, पर उन्होंने अपने में से कोई सुयोग्य सेनानायक न चुना। इसके विपरीत अंग्रेजों में अनुशासन तथा एक व्यक्ति के निर्देशन में कार्य करने के गुण थे। उन्हें हैरलाक, निकोल्सन, औट्रम तथा लारेन्स सदृश अनेक प्रतिभाशाली पदाधिकारियों और सेनानायकों का निर्देशन प्राप्त था। अन्त में एक कारण यह भी दिया जा सकता है कि विद्रोही लोग भारतीय समाज के एक अल्पांश मात्र थे। अंग्रेजों की विजय भारतीय जनता के बहुत भारी अंश की सक्रिय एवं निष्क्रिय सहायता के फलस्वरूप हुई, क्योंकि उन्हें विद्रोही सिपाहियों के कार्यों एवं गतिविधियों में कोई ऐसी विशेषता नहीं दिखलाई दी, जिससे प्रेरित होकर सभी उनका साथ देते। (सिपाही विद्रोह पर अंग्रेजी में अनेक ग्रंथ रचे गये हैं। होम्स, मैलीसन, सेन, मजूमदार और वीर सावरकर के ग्रंथ उल्लेखनीय हैं।)

सिमुक (शिशुक)
सातवाहन वंश का प्रवर्तक। पुराणों के अनुसार वह शुग वंश के अंतिम शासक का समकालीन था, किन्तु उसकी तिथि अनिश्चित है। संभवतः वह दूसरी शताब्दी ई. पू. के प्रारंभ में हुआ होगा। उसका राज्य मद्रास (तामिलनाडु) के बेलारी जिले में था और उसमें पश्चिमी दक्षिणापंथ के कुछ भू-भाग भी सम्मिलित थे। उसके उपरांत उसका भाई कृष्ण सिंहासनासीन हुआ।

सिराजुद्दौला
अप्रैल १७५६ ई. से जून १७५७ ई. तक बंगाल का नवाब। वह अलीवर्दी खाँ (दे.) का प्रिय दोहता तथा उत्तराधिकारी था, किन्तु नाना की गद्दी पर उसके दावे का उसके मौसेरे भाई शौकतजंग ने जो उन दिनों पूर्णिया का सूबेदार था, विरोध किया। सिंहासनासीन होने के समय सिराजुद्दौला की उम्र केवल २० वर्ष की थी। उसकी बुद्धि अपरिपक्व थी, चरित्र भी निष्कलंक न था तथा उसे स्वार्थी, महात्त्वाकांक्षी और षड्यन्त्रकारी दरबारी घेरे रहते थे। तो भी अंग्रेजों द्वारा उसे जैसा क्रूर तथा दुश्चरित्र चित्रित किया गया है, वैसा वह कदापि न था। वह बंगाल की स्वाधीनता को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए मर मिटनेवाले देशभक्तों में न था, जैसाकि कुछ राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने सिद्ध करने का प्रयास किया है।

सिराजुद्दौला
सिराजुद्दौला का उद्यम अपने व्यक्तिगत हितों की रक्षा हेतु था, किन्तु चारित्रिक दृढ़ता के अभाव में उसे लक्ष्य प्राप्ति में असफलता मिली। वास्तव में वह न तो कायर था और न युद्धों से घबराता ही था। अपने मौसेरे भाई शौकतजंग से युद्ध में उसे निर्णायक सफलता मिली और इसी युद्ध में शौकतजंग मारा गया। उसके अंग्रेजों से अप्रसन्न रहने के यथेष्ट कारण थे, क्योंकि अंग्रेजों ने उसकी आज्ञा के बिना कलकत्ता के दुर्ग की किलेबन्दी कर ली थी और उसके न्याय दंड के भय से भागे हुए राजा राजवल्लभ के पुत्र कृष्णदास को शरण दे रखी थी। कलकत्ता पर उसका आक्रमण पूर्णतः नियोजित रूप में हुआ। फलतः केवल चार दिनों के घेरे (१६ जूनसे २० जून १७२६ ई.) के उपरांत ही कलकत्ता पर उसका अधिकार हो गया। कलकत्ता स्थित अधिकांश अंग्रेज जहाजों द्वारा नदी के मार्ग से इसके पूर्व ही भाग चुके थे और जो थोड़े से भागने में असफल रहे, बन्दी बना लिये गये। उन्हें किले के भीतर ही एक कोठरी में रखा गया, जो काल कोठरी के नाम से विख्यात है और जिसके विषय में नवाब पूर्णतया अनभिज्ञ था।
काल कोठरी (दे.) से जिन्दा निकले अंग्रेजबंदियों को सिराजुद्दौला ने मुक्त कर दिया। किन्तु कलकत्ता पर अधिकार करने के बाद से उसकी सफलताओं का अन्त हो गया। वह फाल्टा की ओर भागनेवाले अंग्रेजों का पीछा करने और उनका वहीं नाश कर देने के महत्त्व को न समझ सका, साथ ही उसने कलकत्ता की रक्षा के लिए उपयुक्त प्रबन्ध न किया, ताकि अंग्रेज उस पर दुबारा अधिकार न कर सकें। परिणाम यह हुआ कि क्लाइव और वाटसन ने नवाब की फौज की ओर से बिना किसी विरोध के कलकत्ता पर जनवरी १७५७ ई. में पुनः अधिकार कर लिया। सिराजुद्दौला ने अंग्रेजों से समझौते की वार्ता प्रारंभ की, पर अंग्रेजों ने मार्च १७१७ ई. में पुनः उसकी सार्वभौम सत्ता की उपेक्षा की, और चन्द्रनगर पर, जहाँ फ्रांसीसियों का अधिकार था, आक्रमण करके अपना अधिकार कर लिया। सिराजुद्दौला ने अंग्रेजों के साथ अलीनगर की संधि भी कर ली, किन्तु अंग्रेजों ने इस संधि की पूर्ण अवहेलना करके नवाब के विरुद्ध उसके असंतुष्ट दरबारियों से मिलकर षड्यंत्र रचना प्रारंभ किया और १२ जून को क्लाइव के नेतृत्व में एक सेना भेजी।
सिराजुद्दौला ने भी सेना एकत्र करके अंग्रेजों का मार्ग रोकने का प्रयास किया, किन्तु २३ जून १७५७ ई. को पलासी के युद्ध में अपने मुसलमान और हिन्दू सेनानायकों के विश्वासघात के फलस्वरूप वह पराजित हुआ। पलासी से वह राजधानी मुर्शिदाबाद को भागा और वहाँ भी किसी ने उसके रक्षार्थ शस्त्र न उठाया। वह पुनः भागने पर विवश हुआ, पर शीघ्र ही पकड़ा गया और उसका वध कर दिया गया। सिराजुद्दौला का पतन अवश्य हुआ किन्तु उसने क्लाइव, वाटसन, मीरजाफर और ईस्‍ट इंडिया कम्पनी की भाँति, जो उसके पतन के षड्यंत्र में सम्मिलित थे, न तो अपने किसी मित्र को ही कभी धोखा दिया और न शत्रु को।

सिविल सर्विस
देखिये, 'इंडियन सिविल सर्विस'।

सीता
रामायण के कथानायक राम की पत्नी। उन्होंने हिन्दू स्त्रियों के सामने पतिव्रत धर्म का आदर्श प्रस्तुत किया।

सीताबल्डी का युद्ध
तृतीय मराठा-युद्ध (दे.) के दौरान नवम्बर १८१७ ई. में भोंसला शासक अप्पा साहब (दे.) तथा अंग्रेजों के बीच हुआ। इस युद्ध में भोंसला के नेतृत्व में मराठों की सेना पूर्णतया पराजित हुई और अप्पा साहब ने आत्मसमर्पण कर दिया।

सीथियन
मध्य एशिया में स्थित सीथिया के निवासी साधारणतया सीथियन कहे जाते हैं। किन्तु भारतीय ऐतिहासिक शब्दावली में सीथियन शब्द का प्रयोग शक एवं कुषाण सरीखी उन विदेशी जातियों के लिए हुआ है, जो दूसरी शताब्दी ई. पू. से दूसरी शताब्दी ई. तक भारत में आती रहीं।

सीदी
ये लोग भारत के पश्चिमी समुद्रपट पर स्थित जंजीर नामक स्थल पर अबीसीनिया के समुद्री डाकुओं के सरदार थे। फलतः शिवाजी (दे.) को उनका दमन करना पड़ा।


logo