भूगर्भशास्त्रीय दृष्टि से भारतीय प्रायद्वीप का दक्षिणी भाग, जो बाद में उससे अलग हो गया। भारत से इसके घनिष्ठ सांस्कृतिक सम्बन्ध रहे हैं, किन्तु राजनीतिक अस्तित्व अलग रहा है। भारतीय साहित्य के विभिन्न कालों में इसका वर्णन विभिन्न नामों से हुआ है। पालिग्रंथों और अशोक के अभिलेखों में इसका उल्लेख 'तपोवन' कहकर पुकारा है। रामायण में इसे लंका कहा गया है, जिसका शासक राक्षसराज रावण था और आधुनिक यूरोपवासियों ने इसे 'सीलोन' की संज्ञा दी, जो श्रीलंका शब्द का अपभ्रंश है। संस्कृत में इसका एक नाम सिंहल है और बंगाल में प्रचलित अनुश्रुति के अनुसार यह नाम विजयसिंह नामक एक निर्वासित बंगाली राजकुमार के आधार पर रखा गया है, जिसने इस द्वीप पर विजय प्राप्त की थी। इतिहास में इस घटना का कोई प्रमाण नहीं मिलता है।
श्रीलंका और भारत के बीच सदैव घनिष्ठ व्यापारिक सम्बन्ध रहे हैं। ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में इन दोनों देशों में उस समय सांस्कृति सम्बन्ध भी प्रगाढ़ हो गये जब मगध सम्राट् अशोक के पुत्र या भाई महेन्द्र ने श्रीलंका के नरेश देवानाम् प्रिय तिस्स (तिष्य) को सपरिवार बौद्धधर्म की दीक्षा दी। इसके बाद से श्रीलंका बौद्धधर्म का प्रमुख केन्द्र बन गया। यहीं पर ८० ई. पू. में नरेश वत्तगमणि के शासनकाल में बौद्धों के धर्मग्रंथ 'त्रिपिटिक' को पहली बार लिपिबद्ध किया गया। अनुरुद्धपुर (अनुराधापुर) से बौद्ध धर्म का प्रचार और प्रसार न केवल सम्पूर्ण श्रीलंका में वरन् दक्षिण-पूर्व एशिया के विशाल भू-भाग में हुआ। यहाँ तक कि भारत के बौद्ध विद्वान् भी अपना अध्ययन पूरा करने के लिए श्रीलंका जाया करते थे। राजनीतिक परिवर्तनों के साथ स्थिति बदलती रही; ईसवी सन् की चौथी शताब्दी में श्रीलंका के नरेश मेघवर्मा के भारत के समकालीन यशस्वी सम्राट् समुद्रगुप्त (गुप्तकाल) के साथ सौहार्द्रपूर्ण सम्बन्ध थे। उसने बोध गया में श्रीलंका के तीर्थयात्रियों के निवासार्थ एक विहार बनाने के लिए समुद्रगुप्त से अनुमति प्राप्त की थी। छठी शताब्दी के आरम्भ में पल्लव नरेशसिंह विष्णु और उसके पौत्र नरसिंह वर्मा ने श्रीलंका पर शासन किया। इसके बाद फिर दसवीं और ग्यारहवीं शताब्दियों में चोलवंश के नरेश राजराज और राजेन्द्र प्रथम ने श्रीलंका पर शासन किया, लेकिन श्रीलंका शीघ्र ही पुनः स्वतंत्र हो गया। कुछ समय बाद श्रीविजय (दे.) के शैलेन्द्र राजाओं ने इसपर हमला कर दिया, लेकिन श्रीलंका ने हमले को विफल कर दिया।
श्रीलंका पर मुस्लिम शासकों का आधिपत्य कभी नहीं रहा। ऐसा प्रतीत होता है पन्द्रहवीं शताब्दी के आरम्भ में उस पर विजयनगर नरेश देवराय द्वितीय (१४२५-४७ ई.) का शासन स्थापित हो गया था, किन्तु उसने शीघ्र ही फिर स्वतंत्रता प्राप्त कर ली। किन्तु सोलहवीं शताब्दी के मध्य में श्रीलंका के अधिकांश समुद्र तटवर्ती भू-भाग पर पुर्तगालियों का आधिपत्य हो गया, जो १५१० ई. में गोआ में अपने पैर जमा चुके थे। १६५८ ई. में पुर्तगालियों को खदेड़ कर डच लोग श्रीलंका में आ डटे। नेपोलियन से युद्ध के दौरान अंग्रेजों ने डचों को वहाँ से भगा दिया। वियना-संधि (१८१५) के अन्तर्गत श्रीलंका ब्रिटिश साम्राज्य का अंग हो गया। उसका शासन भारत के अधीन रखा गया। १९४७ ई. में भारत के स्वाधीन हो जाने पर भी श्रीलंका ब्रिटिश साम्राज्य का अंग बना रहा। बाद में उसे भी स्वाधीनता प्रदान कर दी गयी।
श्रीविजय
मलय द्वीपपुंज में भारतीयों ने जो राज्य स्थापित किया था, उसका भी नाम और उसके एक नगर का भी नाम। इसकी पहचान अब सुमात्रा के पलेमबांग नगर से की जाती है। (देखिये, 'प्रवासी भारतीय')।
श्रेणिक
मगध के सम्राट् बिम्बिसार (दे.) का दूसरा नाम।
श्वेत विद्रोह
भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी के गोरे सैनिकों के विद्रोह को इस नाम से पुकारा जाता है। राबर्ट् क्लाइव जब दूसरी बार बंगाल का गवर्नर बनकर आया तो उसने कम्पनी के डाइरेक्टरों के आदेश से भारत में कम्पनी की सेवा में नियुक्त अंग्रेज सैनिकों का भत्ता घटा दिया। इसपर उन्होंने विद्रोह कर दिया। क्लाइव ने बड़ी तत्परता और दृढ़ता से इस विद्रोह का दमन कर दिया।
श्वेत हूण
हूणों की एक शाखा, जो ५ वीं शताब्दी के मध्य में वंक्षु (आक्सस) नदी की घाटी में आ बसी थी। इन लोगों ने ४५५ ई. में भारत के गुप्त साम्राज्य पर आक्रमण किया, लेकिन तत्कालीन सम्राट् स्कन्दगुप्त (४५५-६७ ई.) ने उन्हें खदेड़ दिया। ४८४ ई. में वे फारस को रौंदने में सफल हो गये और अगले वर्षों में उन्होंने काबुल और कंधार पर अधिकार कर लिया। इतना ही नहीं, वे तोरमाण के नेतृत्व में आर्यावर्त तक घुस आये। उसके पुत्र मिहिरगुल (दे.) ने छठीं शताब्दी ई. के आरम्भ में गुप्त साम्राज्य को उखाड़ फेंका और पंजाब स्थित शाकल (सियालकोट) को राजधानी बनाकर उत्तरी भारत के एक भाग पर शासन करने लगा। हूणों का शासन अत्यंत नृशंस और बर्बर था।
५२८ ई. में मालवा के राजा यशोधर्मा (दे.) तथा गुप्त वंश के सम्राट् बालादित्य के नेतृत्व में कई राजाओं ने मिलकर मिहिरगुल को पराजित कर भारत में हूण-शासन का अंत कर दिया। भारतीय राज्य हाथ से निकल जाने पर श्वेत हूणों की शक्ति बहुत क्षीण हो गयी। अन्त में फारस के शाह खुसरो नौशेरवाँ ने ५६३ ई. और ५६७ ई. के बीच हूणों की रही-सही शक्ति को भी नष्ट कर दिया।
भारत में हूणों की शक्ति समाप्त हो जाने के बाद वे हिन्दुओं में घुल-मिल गये। विश्वास किया जाता है कि आठवीं शताब्दी में तथा उसके बाद जिन राजपूत वंशों का उत्कर्ष हुआ, उनके रक्त में हूणों का रक्त मिश्रित था। (मैकगवर्न. पृ. १०९ नोट)
श्वेताम्बर जैन
जैनों (दे.) का एक सम्प्रदाय। वर्धमान महावीर (दे.) की शिक्षाओं के बावजूद इस सम्प्रदाय के साधु श्वेत वस्त्र धारण करते हैं।