एक प्राचीन नगर, जो अब भिलसा के नाम से विख्यात है और आधुनिक मध्यप्रदेश में साँची के निकट स्थित है।
विद्यासागर, पंडित ईश्वरचन्द्र
एक प्रख्यात शिक्षाविद् और समाज-सुधारक (१८२०-९१), जो बंगाल, मिदनापुर जिले के एक निर्धन ब्राह्मण परिवार में उत्पन्न हुए। गवर्नमेंट संस्कृत कालेज कलकत्ता में शिक्षा प्राप्त कर वे बाद को १८५१ ई. में उसी में प्रोफेसर हो गये और वहीं से १८५८ ई. में उन्होंने प्राचार्य के रूप में अवकाश प्राप्त किया। मूलतः वे संस्कृत के विद्वान् थे, किन्तु बाद में अंग्रेजी सीखी, जिसके वे आचार्य हो गये। १८४८ ई. में उन्होंने सर्वप्रथम 'वैताल पंचविंशति' नामक प्रथम बंगला गद्य रचना प्रकाशित की। इसके उपरान्त अन्य बंगला गद्य रचनाएँ प्रकाशित करायीं जिसके परिणामस्वरूप उन्हें बंगला गद्य साहित्य का पिता कहा जाता है। वे परम्परानिष्ठ हिन्दू थे, अतः ऐसे राजकीय समारोहों में भाग नहीं लेते थे, जिनमें धोती, चद्दर और चप्पल पहन कर जाना वर्जित था। सामाजिक जीवन सम्बन्धी उनके विचार उदार और प्रगतिशील थे। सामाजिक जीवन सम्बन्धी उनके विचार उदार और प्रगतिशील थे। उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि ब्रिटिश शासन पर जोर डालकर हिन्दू विधवा पुनर्विवाह कानून पास करवाना था। वे बड़े दानशील और परोपकारी और स्वाभिमानी थे। उन्होंने अनेक स्कूलों के साथ साथ 'मेट्रोपोलिटन कालेज' की भी नींव डाली जो अब 'विद्यासागर कालेज' कलकत्ता के नाम से प्रसिद्ध है और जहाँ हिन्दू विद्यार्थी नाममात्र के शुल्क पर उसी प्रकार शिक्षा ग्रहण करते थे जिस प्रकार गवर्नमेन्ट कालेजों में मुसलमान विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करते थे। वे संस्कृतिनिष्ठ ब्राह्मण होते हुए भी पाश्चात्य शिक्षा के प्रबल समर्थक थे और गवर्नमेन्ट संस्कृत कालेज, कलकत्ता को केवल संस्कृत पढ़ाई तक ही सीमित रखने के विरोधी थे। उन्होंने पाश्चात्य दर्शन तथा व्यावहारिक विज्ञान के अध्ययन को विद्यालय पाठयक्रम में सम्मिलित करने पर बल दिया, जिससे देशवासी भौतिक ज्ञान के क्षेत्र में पीछे न रहें। वे बंगाला के उन सपूतों में थे, जिन्होंने उन्नीसवीं शताब्दी में बंगला के पुनर्जागरण में प्रमुख योगदान किया।
विन, चार्ल्स डब्लू. डब्लू.
बोर्ड आफ कंट्रोल का अध्यक्ष, १८२७ ई. में जूरी ऐक्ट पास किया, जिसके द्वारा भारत की न्याय-व्यवस्था में धार्मिक भेदभाव प्रचलित किया गया। इस ऐक्ट में व्यवस्था थी कि यूरोपीय तथा भारतीय ईसाई जूरी बनकर ईसाइयों तथा गैरईसाइयों के मुकदमों की सुनवाई कर सकते हैं, परंतु गैरईसाइयों के, जैसे हिन्दू या मुसलमान जूरी बन कर ईसाइयों के मुकदमे की सुनवाई नहीं कर सकते। राजा राममोहन राय ने कानून की इस धारा के विरुद्ध याचिका प्रस्तुत की और अंततः यह धारा निरस्त कर दी गयी।
विनय पिटक
त्रिपिटक' नाम से प्रसिद्ध बौद्ध आगम ग्रंथों में से एक। विनय पिटक के अतिरिक्त अन्य पिटक ग्रंथ सुत्तपिटक और अभिधम्म पिटक हैं। विनय पिटक में बौद्ध भिक्षुओं के आचार-नियमों (विनय) का वर्णन है। यह तीन भागों में विभक्त है-सुत्तविभंग, परिवार और खन्धक। सुत्तविभंग में पातिमोक्ख (प्रातिमोक्ष) सम्मिलित है जिसमें उन अपराधों का वर्णन है जिनके करने से भिक्षु व भिक्षुणी पतित हो जाते हैं और उनके प्रायश्चित का विधान है। खन्धक भी दो भागों में विभक्त है- महावग्ग और चुल्लवग्ग।
विनिमय ३ (१८१८ ई. का)
भारतीयों का मूँह बन्द करने के लिए अंग्रेज सरकार द्वारा १८१८ ई. में प्रचलित। इस कानून के अन्तर्गत सरकार ऐसे किसी भी व्यक्ति को अनिश्चित काल के लिए कारागार में डाल सकती थी; जिसपर उसे सन्देह हो कि उस व्यक्ति के कार्यों से भारत में अंग्रेज सरकार की सुरक्षा और उसके हितों को हानि पहुँचेगी। प्रारम्भ में इसका उद्देश्य सशस्त्र विद्रोहों को दबाना था, परन्तु बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के आन्दोलन को दबाने में इसका विशेष प्रयोग किया गया। लाला लाजपतराय, कृष्णकुमार मित्र, सुभाषचन्द्र बोस आदि कितने ही देशभक्त इस कानून के अन्तर्गत बन्दी बने गये और उन्हें बर्मा निर्वासित किया गया।
विन्दवास का युद्ध
सर आरकूट (दे.) के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना और काउण्ट डि लाली (दे.) के नेतृत्व में फ्रांसीसी सेना के बीच १७६० ई. में हुआ। इस युद्ध में फ्रांसीसी निर्णायक रूप से परास्त हो गये। बुसी (दे.) बन्दी बन गया और लाली पाण्डिचेरी भाग गया, जहाँ उसे जनवरी १७६१ ई. में आत्मसमर्पण करने के लिए विवश किया गया। इस प्रकार विन्दवास के युद्ध में अंग्रेजों की विजय ने लम्बे समय से चले आनेवाले आंग्ल-फ्रांसीसी युद्ध का पटाक्षेप कर दिया। इससे भारत में फ्रांस की सत्ता सदा के लिए समाप्त हो गयी।
विम
कथसिस द्वितीय का नाम था।
विरूपाक्ष प्रथम
विजय नगर के शासक हरिहर द्वितीय (दे.) का पुत्र। १४०४ ई. में पिता की मृत्यु के बाद उसने सिंहासन पर अधिकार कर लिया, परन्तु शीघ्र ही अपने भाई बुक्क द्वितीय (दे.) द्वारा अपदस्थ कर दिया गया।
विरूपाक्ष द्वितीय
विजय नगर के प्रथम राजवंश का उपान्तिम राजा। दुराचारी होने के कारण उसके सबसे बड़े पुत्र ने उसका वध कर दिया, जो स्वयं बाद में अपने छोटे भाई पौढ़ देवराय द्वारा मार डाला गया। प्रौढ़ देवराय संगम राजवंश का अन्तिम शासक था।