logo
भारतवाणी
bharatavani  
logo
Knowledge through Indian Languages
Bharatavani

Bharatiya Itihas Kosh

Please click here to read PDF file Bharatiya Itihas Kosh

वेद
हिन्दुओं के सबसे प्राचीन धर्मग्रंथ और संभवतः विश्व की प्राचीनतम पुस्तक। सनातनी हिन्दू वेदों को नित्य, शाश्वत और अपौरुषेय मानते हैं। वैदिक मंत्रों के साथ जिन ऋषियों के नाम मिलते हैं, वे उनके रचयिता नहीं, द्रष्टा थे। वेदों की गणना 'श्रुति' (जो सुना गया हो) में की जाती है, क्योंकि उन्हें गुरु-शिष्‍य परंपरा से सुनकर कंठस्थ किया जाता था। वेद चार हैं। यथा, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। वेद हिन्दू धर्म के मूलाधार हैं। वर्तमान हिन्दू धर्म मूल वैदिक धर्म से काफी परिवर्तित हो चुका है, फिर भी वेदों को अब भी प्रमाण माना जाता है। प्रत्येक वेद चार भागों में विभक्त है। यथा, संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक तथा उपनिषद्। संहिता-भाग में मंत्रों का संग्रह मिलता है और वह सूक्तों में विभाजित है। उदाहरणार्थ, ऋग्वेद संहिता में १०२८ सूक्त हैं जो १० मंडलों में विभक्त हैं। ब्राह्मण भाग में यज्ञानुष्ठान का विस्तृत विवरण मिलता है और वह प्रायः गद्य में होता है। मुख्य ब्राह्मण-ग्रंथों में ऋग्वेद से सम्बन्धित ऐतरेय और कौषीतकि, सामवेद से सम्बन्धित ताण्ड्य और जैमिनीय, यजुर्वेद से सम्बन्धित तैत्तिरीय और शतपथ और अथर्ववेद से सम्बन्धित गोपथ ब्राह्मण हैं।
आरण्यक-ग्रंथ अरण्य (वन) में रहनेवाले वानप्रस्थ लोगों के द्वारा पढ़े जाने के योग्य हैं। इनमें कर्मकांड की अपेक्षा आध्यात्मिक रहस्यों का विवेचन अधिक मिलता है। आरण्यक-ग्रंथ ब्राह्मण-ग्रंथों के ही भाग हैं, इसीलिए प्रत्येक ब्राह्मण-ग्रंथ के साथ उसका आरण्यक भी उसी नाम से मिलता है।
उपनिषद् ग्रंथों में ब्रह्मविद्या का प्रतिपादन किया गया है। वे प्रायः गद्य में हैं। उनके उपदेशों को कर्मकांड-प्रधान धर्म की प्रतिक्रिया माना जाता है। उनमें परम तत्त्व का विवेचन है, जिसका ज्ञान मोक्ष-प्राप्ति के लिए आवश्यक माना जाता था।
चारो वेदों में ऋग्वेद सबसे प्राचीन माना जाता है, उसका निर्माण-काल अभी तक ठीक-ठीक निर्धारित नहीं हो सका है। कुछ विद्वान् उसका निर्माण-काल ईसवी सन् से ४००० वर्ष पूर्व मानते हैं। अन्य विद्वानों का मत है कि उसका निर्माण-काल बिहिस्तान अभिलेख (दे.) अथवा जरथुस्त्र को अपना पैगम्बर माननेवाले ईरानियों के धर्मग्रंथ अवेस्ता से ५०० वर्ष से अधिक प्राचीन नहीं हो सकता। जो भी हो, इतना मानना होगा कि ऋग्वेद हिन्दुओं का प्राचीनतम ग्रंथ है और उससे हमें प्राचीन भारतीय आर्यों के धार्मिक, सामाजिक तथा आर्थिक जीवन के बारे में प्राचीनतम जानकारी मिलती है। (बाल गंगाधर तिलक कृत ओरियन; ए. बी. कीथ कृत रिलीजन एण्ड फिलासफी आफ दि वेदाज; आर. सी. मजूमदार कृत दि वेदिक एज, कैम्ब्रिज हिस्ट्री आफ इंडिया, खंड १; आर. सी. दत्त कृत ऋग्वेद संहिता) )

वेदांग
वेदों के पूरक या सहायक अंग। ये ग्रंथ सूत्र-शैली में लिखे गये हैं और छः विषयों का निरूपण करते हैं, यथा शिक्षा (ध्वनि शास्त्र), कल्प (धार्मिक आचार), व्याकरण, छन्द, निरुक्त (व्युत्पत्ति शास्त्र) तथा ज्योतिष।

वेदान्त
उपनिषदों में प्रतिपादित दर्शन। वेद का अंतिम भाग होने से उपनिषद-ग्रंथों को वेदान्त भी कहा गया है और इसीलिए उसमें प्रतिपादित दर्शन सामान्यरूप से वेदान्त दर्शन कहा जाता है। इसका प्रतिपादन मुख्य रूप से बादरायण ने अपने ब्रह्मसूत्र में किया है और उसके सबसे प्रसिद्ध व्याख्याकार शंकराचार्य (दे.) हैं। उन्होंने अपने अद्वैतवादी वेदान्त-दर्शन का सार निम्न श्लोकार्द्ध में दे दिया है-
ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापर:। (ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है, यह जगत मिथ्या है। जीव और ब्रह्म में कोई भेद नहीं है।)
उनके कथनानुसार ईश्वर की उपासना करने अथवा उसका ध्यान करने से स्वर्ग-सुख की प्राप्ति हो सकती है, किंतु, मोक्ष की प्राप्ति उसी को होती है जो ब्रह्म विद्या को जानता है, जो जानता है कि जीवात्मा और ब्रह्म एक है।
भिन्न-भिन्न आचार्यों ने वेदान्तसूत्रों की व्याख्या भिन्न-भिन्न रीति से की है। उदाहरण के लिए रामानुजाचार्य (दे.) ने शंकराचार्य के अद्वैतवाद के स्थान पर विशिष्टाद्वैतवाद का प्रतिपादन किया है। उनके मतानुसार विष्णु अथवा नारायण ही परब्रह्म हैं जो जगत के प्रत्येक पदार्थ में तथा सभी जीवात्माओं में परिव्याप्त हैं। उनकी भक्ति तथा सत्कर्म करने से मुक्ति प्राप्त होती है। मुक्ति का अर्थ है ईश्वर का सामीप्य-लाभ करे उसके बैकुंठलोक में नित्य वास करना। उनका यह मत विशिष्टाद्वैत कहलाता है। वेदांत दर्शन के यही दो मुख्य सम्प्रदाय हैं, शंकर का अद्वैतवाद तथा रामानुज का विशिष्टाद्वैतवाद। इनके अलावा निम्बार्काचार्य तथा मध्वाचार्य आदि ने भी उसकी भिन्न-भिन्न व्याख्याएँ की हैं:

वेन्तुरा, जनरल
एक इटालियन सेनानायक, जो महाराज रणजीत सिंह (दे.) की सेवा में नियुक्त था। उसने सिक्ख पैदल सेना का पुनर्गठन किया। रणजीत सिंह ने उसके साथ बड़ी उदारता का व्यवहार किया और उसे सूबेदार बना दिया तथा जागीर भी प्रदान की। किन्तु १८३९ ई. में रणजीत सिंह की मृत्यु हो जाने पर वह पंजाब छोड़कर चला गया। (एन. के. सिन्हा कृत रणजीत सिंह)।

वेरेलेस्ट, हेनरी
बंगाल का गवर्नर (१७६७-६९ ई.)। सामान्य योग्यता का व्यक्ति होते हुए भी वह पदोन्नति प्राप्त करने के गुर जानता था। वह कम्पनी की सेवा में लिपिक के रूप में बंगाल आया, किन्तु गवर्नर राबर्ट क्लाइव (दे.) के दूसरे कार्यकाल में उसकी चार सलाहकारों की प्रवर समिति का सदस्य बन गया। १७६७ ई. में क्लाइव के अवकाश ग्रहण करने पर वह उसका उत्तराधिकारी बना। निजी व्यापार चलाने के अतिरिक्त वह गवर्नर के रूप में प्रतिवर्ष २७०९३ पौण्ड का वेतन भी लेता था। उसके प्रशासन-काल में प्रजा को दोनों हाथ से लूटा गया। फलतः १७६९-७० ई. में बंगाल में भयंकर दुर्भिक्ष (दे.) फैला जिसके परिणामस्वरूप एक तिहाई जनसंख्या नष्ट हो गयी।

वेलेजली, आर्थर (बाद में ड्यूक आफ वेलिंगटन) (१७६१-१८५२)
भारत के गवर्नर-जनरल लार्ड वेलेजली (दे.) का छोटा भाई। वह १७९७ ई. में अर्थात् अपने भाई के आगमन से एक वर्ष पहले फौजी अधिकारी के रूप में भारत आया और १८०५ ई. तक कम्पनी की सैन्य सेवा में रहा। उसने तत्कालीन युद्धों में, विशेष रूप से दूसरे मराठा-युद्ध (दे.) में भाग लिया, जिसमें उसने १८०३ ई. में असई (दे.) तथा आरगाँव (दे.) के युद्धों में मराठों को पराजित करके विशेष नामवरी पायी। उसने भोंसला के साथ देवगाँव (दे.) की संधि तथा शिन्दे के साथ सुर्जी अर्जुनगाँव (दे.) की संधि करने में विशेष कूटनीतिक चातुर्य का परिचय दिया। भारत से वापस लौटने पर उसने स्पेन के प्रायद्वीप के युद्ध में विजय प्राप्त करके तथा वाटरलू के युद्ध में नैपोलियन को पराजित करके विशेष ख्याति प्राप्त की। १८२८ ई. में वह कुछ समय के लिए इंग्लैण्ड का प्रधानमंत्री बन गया। मृत्युपर्यन्त सैनिक मामलों में तथा भारत के मामलों में उससे बराबर परामर्श लिया जाता रहा। उसकी मृत्यु १८५२ ई. में हुई।

वेलेजली, मारक्विस रिचर्ड कोली
१७९८ ई. से १८०५ ई. तक भारत का गवर्नर-जनरल। वह भारत के ब्रिटिश शासकों में सबसे महान् माना जाता है। उसने युद्धों के द्वारा तथा शांति रीति से राज्यों का अधिग्रहण करके भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का अभूतपूर्व विस्तार किया। उसने अहस्तक्षेप (दे.) की नीति त्यागकर भारतीय राजाओं को अंग्रेजों का आश्रित बना देने के उद्देश्य से आक्रामक नीति अपनायी। उसने भारतीय राजाओं को अंग्रेजों से आश्रित संधि (इसे सहायक संधि भी कहते हैं) करने के लिए विवश किया। जो भारतीय राजे इस संधि को स्वीकार कर लेते थे उन्हें कम्पनी सरकार आश्वासन देती थी कि वह उनकी सभी भीतरी तथा बाहरी शत्रुओं से रक्षा करेगी। इसके बदले में उन्हें अपने राज्य में अंग्रेजी सेना तथा अपने दरबार में अंग्रेज रेजिडेंट रखने के लिए राजी होना पड़ता था। इसके साथ ही उन्हें प्रतिज्ञा करनी पड़ती थी कि वे अंग्रेजों के सिवाय अन्‍य किसी विदेशी ताकत से कोई सम्बन्ध नहीं रखेंगे और ब्रिटिश सरकार की पूर्ण अनुमति के बिना किसी विदेशी को नौकर नहीं रखेंगे।
निजाम ने इस आश्रित संधि को स्वीकार कर लिया और इस प्रकार वह शांतिपूर्ण रीति से अंग्रेजों का पूर्णतया आश्रित बन गया। मैसूर के टीपू सुल्तान (दे.) ने इस प्रकार की संधि करने से इन्कार कर दिया। फलतः वेलेजली ने चौथा मैसूर-युद्ध (दे.) छेड़ दिया, जिसमें टीपू परास्त होकर वीरगति को प्राप्त हुआ। उसकी मृत्यु के उपरांत मैसूर तथा उसके आसपास के इलाकों को छोड़कर उसका समस्त राज्य ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया गया। मैसूर की गद्दी पर एक हिन्दू राजा को बिठा दिया गया और उसे भी आश्रित संधि करने के लिए विवश किया गया।

वेलेजली, मारक्विस रिचर्ड कोली
पेशवा बाजीराव द्वितीय ने वसई (दे.) की संधि के द्वारा अंग्रेजों का आश्रित बनना स्वीकार कर लिया, परंतु अन्य मराठा सरदारों ने आश्रित संधि स्वीकार नहीं की। फलतः वेलेजली ने दूसरा मराठा-युद्ध (दे.) छेड़ दिया, जिसके परिणामस्वरूप भोंसला, शिन्दे तथा होल्कर के राज्यों का अधिकांश भाग ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया गया। इस प्रकार मध्य भारत, मालवा, गुजरात तथा दिल्ली ब्रिटिश शासन के अंतर्गत आ गये। वेलेजली ने कुशासन का आरोप लगाकर कर्नाटक, तंजौर तथा अवध के एक बड़े भू-भाग को भी ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया।
वेलेजली की अनवरत युद्धों तथा राज्य-विस्तार की नीति से नाराज होकर कोर्ट आफ डाइरेक्टर्स ने १८०५ ई. में उसे वापस बुला लिया। परंतु इसमें संदेह नहीं कि वेलेजली ने अपने कार्यकाल की समाप्ति पर भारत में अंग्रेजों का सार्वभौम प्रभुत्व स्थापित कर दिया था और पंजाब तथा सिंध को छोड़कर सारा भारत ब्रिटिश साम्राज्य के अंतर्गत आ गया था।

वेल्लोर में भारतीय सैनिकों का विद्रोह
भारतीय सेना के प्रारम्भिक निष्फल विद्रोहों में से एक। १८०६ ई. में वेल्लोर में तैनात भारतीय सैनिकों ने कुछ नये नियमों के विरुद्ध वेल्लोर में विद्रोह कर दिया। यह नये नियम उनके धार्मिक विश्वासों का अतिक्रमण करते थे। इस विद्रोह को अल्पकाल में ही बलपूर्वक दबा दिया गया, परन्तु इससे मिलनेवाली शिक्षा की अवहेलना की गयी, जिसका आगे चलकर भयानक परिणाम निकला।

वेवेल, (लार्ड पहले सर आर्कोबाल्ड) (१८८३-१९५० ई.)
लार्ड लिनलिथगो (दे.) के उत्तराधिकारी के रूप में १९४१ से १९४७ ई. तक भारत में गवर्नर-जनरल रहा। १९४३ से १९४३ ई. तक वह भारतीय सेना का प्रधान सेनापति भी रहा और जापानियों पर विजय प्राप्त कर उन्हें बर्मा और भारत से निकाला। उसका पहला प्रयास था युद्ध स्तर पर बंगाल के अकाल का सामना करना और खाद्य-स्थिति को सम्हालना। युद्ध की समाप्ति पर उसने कोशिश की कि १९३५ के भारतीय शासन विधान के अनुसार भारत की शासन सत्ता शांति‍पूर्ण ढंग से भारतीयों को हस्तांतरित कर दी जाय; किन्तु अंग्रेजों की नीयत के बारे में भारतीयों के मन में घुसे हुए संदेहों ने उसकी कार्य कठिन बना दिया। इसके साथ ही कांग्रेस और मुसलिम लीग के परस्पर अविश्वास के कारण भी उसके मार्ग में कठिनाइयाँ उत्पन्न हो गयीं।
वेवेल ने कांग्रेस और लीग के नेताओं की अनेक बैंठकें आयोजित कीं, फरवरी १९४६ ई. में बम्बई के नाविक विद्रोह का दमन किया, कैबिनेट मिशन (दे.) का स्वागत किया और उसकी योजना के विफल होने पर कांग्रेस की सहायता से जवाहरलाल नेहरू (दे.) के नेतृत्व में अन्तरिम सरकार (दे.) का गठन किया।
मुस्लिम लीग ने इसका विरोध किया और १६ अगस्त १९४६ ई. को 'प्रत्यक्ष काररवाई दिवस' मनाया, जिसके फलस्वरूप भारत में भीषण साम्प्रदायिक दंगे हुए और वेवेल उन्हें शीघ्रता से दबाने में असफल रहा। फलतः १९४७ ई. में लार्ड वेवेल को वापस बुला लिया गया और उसकी जगह लार्ड माउंटबेटन (दे.) को भेजा गया। १९५० ई. में इंग्लैण्ड में वेवेल का देहान्त हो गया।


logo