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Bharatiya Itihas Kosh

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लिटन, लार्ड, प्रथम
भारत का (१८७६ से १८८० ई. तक) वाइसराय तथा गवर्नर-जनरल। वह विद्वान् शासक था और उसका व्यक्तित्व बाहर से देखते ही विशिष्ट प्रतीत होता था। परंतु उसका प्रशासनकाल उज्ज्वल नहीं कहा जा सकता। जिस समय उसने शासनभार सँभाला, देश में भयंकर अकाल फैला था। सारा दक्षि‍ण भारत दो वर्ष, १८७६ से १८७८ ई. तक भयंकर रूप से पीड़ित रहा। दूसरे वर्ष अकाल मध्य-भारत तथा पंजाब में भी फैल गया। इसने लगभग पचास लाख व्यक्तियों को अपने अंक में समेट लिया। सरकार ने अकाल के मुँह से लोगों की जानें बचाने के लिए जो उपाय किये वे अपर्याप्त थे।
अकाल के ही समय वाइसराय ने १८७७ ई. में दिल्ली में एक अत्यन्त शानदार दरबार किया जिसमें महारानी विक्टोरिया को भारत की सम्राज्ञी घोषित किया गया। बाद में उसने जनरल रिचर्ड स्ट्रैची की अध्यक्षता में अकाल के कारणों तथा सहायता के प्रश्न पर विचार करने के लिए अकाल कमीशन नियुक्त किया। इसकी रिपोर्ट के आधार पर एक अकाल कोड का निर्माण किया गया जिसमें भविष्य में अकाल का सामना करने के लिए कुछ ठोस सिद्धान्त निर्धारित किये गये।
लार्ड लिटन के शासनकाल में सारे ब्रिटिश भारत तथा देशी रियासतों में एक समान नमक-कर निर्धारित किया गया। इससे नमक की तस्करी बंद हो गयी और सिंधु नदी पर स्थित अटक से लेकर दक्षिण में महानदी तक २५०० मील की दूरी में नागफनी की कँटीली झाड़ी चुंगी के बाड़ के रूप में खड़ी की गयी थी, उसे हटाना संभव हो गया। वस्तुतः लंकाशायर की सूती कपड़ा मिलों के हित में परंतु प्रकट रूप में मुक्त व्यापार के नाम लार्ड लिटन ने अपनी एक्जीक्यूटिव कौंसिल की अवहेलना करके, सूती कपड़ों के आयात पर लगाया गया ५ प्रतिशत कर हटा दिया और इस प्रकार भारत के सूती वस्त्र उद्योग का विस्तार रोक दिया। १८७८ ई. में उसने भारतीयों द्वारा अपने देशी भाषा के पत्रों में सरकार के कार्यों की प्रतिकूल आलोचनाओं को रोकने के लिए वर्नाकुलर प्रेस ऐक्ट (दे.) पास किया। यह प्रतिक्रियावादी कानून था जिसे चार वर्ष बाद उसके उत्तराधिकारी लार्ड रिपन ने रद्द कर दिया।
लार्ड लिटन का सबसे दुर्भाग्यपूर्ण और अनुचित कार्य था १८७८ ई. में अफ़गानिस्तान के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर देना। दूसरा अफ़गान-युद्ध (१८७८-८८ ई.) (दे.) साम्राज्यवादी उद्देश्यों की पूर्ति के लिए छेड़ा गया था और इसमें धन और जन की भारी हानि हुई। इस युद्ध का भारी खर्चा अधिकांश में भारतीय करदाता को उठाना पड़ा जो लार्ड लिटन के प्रशासन पर एक काला धब्बा छोड़ गया।

लिटन, लार्ड, द्वितीय
१९२२ ई. में बंगाल का गवर्नर होकर भारत आया और १० अप्रैल से ७ अगस्त १९२५ तक कार्यवाहक वाइसराय के रूप में कार्य किया। इस प्रकार जिस पद को कई वर्षों पूर्व उसके पिता ने सुशोभित किया था, उसे उसने भी सुशोभित किया। उसने पुनः बंगाल के गवर्नर का पद सँभाल लिया और १९२७ ई. में अवकाश ग्रहण किया। उसके प्रशासनकाल में कलकत्ता विश्वविद्यालय के ऊपर सरकारी नियंत्रण के प्रश्न पर सर आशुतोष मुखर्जी से एक विवाद हुआ, जिससे उसके प्रशासन की प्रतिष्ठा नहीं बढ़ी।

लिनलिथगो, लार्ड
भारत का (१९३६ से १९४३ ई. तक) वाइसराय तथा गवर्नर-जनरल। उसने १९३६ के गवर्नमेन्ट आफ इंडिया ऐक्ट (दे.) के पास होने के बाद पदग्रहण किया, जिसमें ब्रिटिश भारत की स्वशासनयुक्त प्रांतीय सरकारों तथा देशी रियासतों की एक संघ सरकार बनाने की व्यवस्था की गयी थी। अभी तक देशी रियासतों का सीधा संबन्ध ब्रिटिश सम्राट् से था। लार्ड लिनलिथगो ने केन्द्र में प्रस्तावित संघ सरकार तथा प्रांतों में उत्तरदायी स्वशासनयुक्त सरकारों की स्थापना करके समूचे ऐक्ट क़ो क्रियान्वित करने का प्रयास किया। प्रांतीय चुनाव १९३७ ई. में सम्पन्न हुए, जिनमें ग्यारह में से पाँच प्रांतों में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुआ तथा दो अन्य प्रांतों में भी वह सरकार बना सकने की स्थिति में थी। इन परिस्थियों में नये संविधान के प्रांतों से सम्बन्धित भाग को क्रियान्वित कर दिया गया। किन्तु प्रस्तावित संघ सरकार में देशी रियासतों को सम्मिलित करने के प्रश्न पर वार्ता चलाने में काफी समय लग गया। इस बीच १९३९ ई. में द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू हो गया और संविधान के संघ सरकार से सम्बन्धित भाग का क्रियान्वयन स्थगित कर दिया गया।
द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ जाने पर लार्ड लिनलिथगो पर दोहरा कार्यभार आ पड़ा। एक ओर तो उसे भारत में जनमत को अपने पक्ष में बनाने का प्रयास करना पड़ा जो अत्यंत विक्षुब्ध हो गया था; दूसरी ओर उसे भारत में ब्रिटेन के पक्ष में युद्धप्रयत्नों को संगठित करना पड़ा। युद्ध में इंग्लैण्ड के विरुद्ध जापान के कूद पड़ने से उसकी कठिनाइयाँ और बढ़ गयीं। १९४१ ई. में जापान ने मलयेशिया पर आक्रमण कर सिंगापुर पर अधिकार कर लिया। इन प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद लार्ड लिनलिथगो ने भारत को न केवल आवश्यक युद्धसामग्री भेजने का केवल अड्डा बना दिया बल्कि ब्रिटिश भारतीय सेना की शक्ति १,७५,००० से बढ़ा कर बीस लाख से अधिक कर दी और इन सेनाओं को दक्षिण पूर्व एशिया तथा पश्चिम एशिया के युद्ध क्षेत्रों में भेज दिया, जिसकी वजह से ब्रिटिश पराजय धीरे-धीरे ब्रिटिश विजय में परवर्तित हो गयी। परंतु युद्धप्रयत्नों के फलस्वरूप जहाँ एक ओर खर्च में उत्तरोत्तर भारी वृद्धि होती गयी, वहीं दूसरी ओर बंगाल में सर्वक्षार नीति का अनुसरण करने के कारण १९४३ ई. में भयंकर अकाल पड़ गया। लार्ड लिनलिथगो की सरकार इस अकाल सामना करने में असफल रही और शीघ्र ही लार्ड लिनलिथगो का स्थान लार्ड वेवेल (दे.) ने ग्रहण कर लिया जिसने अपने फौजी अनुभव और चुस्ती से काम कर स्थिति का सामना किया।
लार्ड लिनलिथगो ने क्षुब्ध भारतीय जनमत को कौशलपूर्ण ढंग से शांत रखकर भारत में आंतरिक शांति बनाये रखने का जो प्रयत्न किया, उसमें उसे आंशिक सफलता मिली। अक्तूबर १९३९ ई. में उसने घोषणा कि भारत के संवैधानिक विकास का लक्ष्य औपनिवेशिक स्वराज्य की स्थापना है। उसने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस तथा मुसलिम लीग की माँगों की परस्पर विरोधी बातों पर जोर देकर तथा भारत को क्रिप्स-प्रस्ताव स्वीकार कर लेने के लिए राजी करने के उद्देश्य से १९४२ ई. में सर स्ट्रेफर्ड क्रिप्स (दे.) को भारत आमंत्रित करके देश के अंदर कोई खुली बगावत नहीं होने दी। फिर भी ब्रिटिश सरकार ने भारत को स्वाधीनता प्रदान करने की कोई निश्चित तिथि की घोषणा करने से बार-बार इनकार करके महात्मा गांधी को 'भारत छोड़ो आंदोलन' शुरू करने के लिए विवश कर दिया। महात्म गांधी ने मांग की कि ब्रिटेन को तुरंत भारत पर अपनी प्रभुसत्ता का परित्याग करके यहाँ से चले जाना चाहिए। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भी इस माँग का समर्थन किया। जवाब में लार्ड लिनलिथगो ने महात्मा गांधी को कैद कर लिया और समूची कांग्रेस वर्किंग कमेटी को नजरबंद कर दिया। लार्ड लिनलिथगो ने १९४३ में भारत से अवकाश ग्रहण किया और चार वर्ष बाद भारत को स्वाधीन कर दिया गया। इससे प्रकट होता है कि उसने बलप्रयोग के द्वारा भारत में ब्रिटेन की प्रभुसत्ता को बनाये रखने का जो प्रयत्न किया, वह कितना व्यर्थ था।

लियाकत अली खां
मुसलिम लीग का एक नेता तथा मि. जिन्ना (दे.) का दाहिना हाथ। वह १९४६ ई. में गठित अंतरिम सरकार में अर्थ-सदस्य नियुक्त किया गया। जब १९४७ ई. में भारत का विभाजन करके पाकिस्तान की स्थापना की गयी, वह उसका पहला प्रधानमंत्री बनाया गया। उसने भारत और पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के साथ किये जाने वाले व्यवहार के सम्बन्ध में पंडित नेहरू से एक समझौता किया। पाकिस्तान की स्थापना के बाद ही एक सार्वजनिक सभा में भाषण करते समय उसकी हत्या कर दी गयी। हत्यारे की भी घटनास्थल पर ही हत्या कर दी गयी। इसके फलस्वरूप हत्या के कारण का पता नहीं चल सका और न हत्यारे की निश्चित रीति से शिनाख़्त ही हो सकी।

लियाकत हुसेन
एक सच्चा राष्ट्रीयतावादी मुसलमान, जिसने बंग-भंग (१९०६-१९१२ ई.) (दे.) के विरुद्ध आंदोलन में प्रमुख भाग लिया।

ली कमीशन
इसकी नियुक्ति भारतमंत्री द्वारा १९२९ ई. में की गयी। इसका उद्देश्य उच्च सिविल सर्विस के वेतन एवं भत्ते के प्रश्न की तथा साथ-साथ उसके भारतीयकरण के प्रश्न की पड़ताल करना था। इसकी अध्यक्षता मार्ड ली ने की। इसके सदस्यों में तीन भारतीय भी थे। कमीशन ने अपनी रिपोर्ट मार्च १९२४ ई. में प्रस्तुत की। कमीशन ने इंडियन सिविल सर्विस के बुनियादी वेतन में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं प्रस्तावित किया। उसने उसके समुद्र पार के वेतन में भारी वृद्धि, फर्लो छुट्टी की अधिक सुविधाएँ तथा इंग्लैण्ड आने-जाने का पहले दर्जे का किराया देने की सिफारिश की। कमीशन की सिफारिशों के आधार पर इंडियन सिविल सर्विस के सदस्यों के वेतन में बारह प्रतिशत वृद्धि होती थी।
भारतीयकरण के प्रश्न पर ली कमीशन ने सिफारिश की कि अगले पन्द्रह वर्षों में सर्विस के सदस्यों में ३० प्रतिशत यूरोपीय तथा ५० प्रतिशत भारतीय का लक्ष्‍य होना चाहिए। इसके लिए २० प्रतिशत उच्च पदों पर नियुक्तियाँ प्रांतीय सिविल सर्विसों से पदोन्नति कर की जानी चाहिए तथा सीधी भर्ती में लिये जानेवाले सदस्यों में आधे भारतीय तथा आधे यूरोपीय होने चाहिए। ली कमीशन की रिपोर्ट का इम्पीरियल (केन्द्रीय) लेजिस्लेटिव असेम्बली में तीव्र विरोध किया गया, फिर भी सरकार ने उसे स्वीकार कर लिया। इसके फलस्वरूप उच्च सिविल सर्विसों के सदस्यों के वेतन और भते में काफी वृद्धि हो गयी, प्रगति बहुत धीमी रही।

लीड्स
एक अंग्रेज जौहरी, फिच (दे.) के साथ १५८३ ई. में भारत आया था और मुगल सरकार की ताबेदारी कर ली थी।

लीन्वायर
१७२० ई. से कई वर्षों तक पांडेचेरी का फ्रांसीसी गवर्नर। उसने पांडेचेरी को व्यापारिक केन्द्र के रूप में विकसित करने में भारी योगदान किया। वह राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं अथवा विजय अभिलाषा से प्रेरित नहीं था।

लीलावती
भास्कराचार्य के वृहद ग्रंथ 'सिद्धान्तशिरोमणि' का एक भाग, जिसकी रचना ११५० ई. में हुई। इसमें गणित तथा बीजगणित के सिद्धान्तों का विवेचन है। लीलावती का फारसी अनुवाद (दे.) अकबर के दरबारी फैजी ने किया था।

लुम्बिनीग्राम
कपिलवस्तु (दे.) के निकट स्थित, जहाँ लगभग ५६६ ई. पू. गौतमबुद्ध (दे.) का जन्म हुआ था। अशोक ने अपने राज्याभिषेक के बीसवें वर्ष में इस स्थान की यात्रा की थी और बुद्ध के जन्मस्थान पर एक शिलास्तम्भ स्थापित किया था। इस स्थान को अब सम्मिनदेई कहते हैं और यह नेपाल की तराई में हैं। अशोक का शिलास्तम्भ वहाँ अब भी वर्तमान है। इस स्थान की पवित्रता को ध्यान में ऱख कर अशोक ने इसे सभी प्रकार की बलि (कर) से मुक्त कर दिया था और भूमिकर भूमि की उपज के छठें भाग के बजाय आठवाँ भाग निर्धारित किया था।


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