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Bharatiya Itihas Kosh

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बहलोल लोदी
१४५१ से ८९ ई. तक दिल्ली का सुल्तान। वह लोदी कबीले का अफगान था, इसलिए लोदी उसका उपनाम बन गया। १४५१ ई. में जब सैयद राजवंश के सुल्तान आलम शाह ने दिल्ली का तख्त छोड़ा, उस समय बहलोल लाहौर और सरहिन्द का सूबेदार था। उसने अपने वजीर हमीद खॉ की मदद से दिल्ली के तख्त पर कब्जा कर लिया। वह दिल्ली का पहला अफगान सुल्तान था, जिसने लोदी राजवंश की शुरूआत की। बहलोल के सुल्तान बनने के समय दिल्ली सल्तनत नाममात्र की थी। बहलोल शूरवीर, युद्धप्रिय और महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति था। उसने जौनपुर, मेवात, सम्भल तथा रेवाड़ी पर अपनी सत्ता फिर से स्थापित की और दोआब के सरदारों का दमन किया। उसने ग्वालियर पर भी कब्जा कर लिया। इस प्रकार उसने दिल्ली सल्तनत का पुराना दरबार एक प्रकार से फिरसे कायम कर दिया। वह गरीबों से हमदर्दी रखता था और विद्वानों का आश्रयदाता था।
दरबार में शालीनता और शिष्टाचार के पालन पर जोर देकर तथा अमीरों को अनुशासन में बांध करके उसने सुल्तान की प्रतिष्ठा को काफी ऊँचा उठा दिया। उसने दोआब के विद्रोही हिन्दुओं का कठोरता के साथ दमन किया, बंगाल के सूबेदार तोगरल खाँ को हराकर मार डाला और उसके प्रमुख समर्थकों को बंगाल की राजधानी लखनौती के मुख्य बाजार में फांसी पर लटकवा दिया। उपरांत अपने पुत्र बुगरा खां को बंगाल का सूबेदार नियुक्त करके यह चेतावनी दे दी कि उसने भी यदि विद्रोह करने का प्रयास किया तो उसका भी हश्र वही होगा जो तोगरल खां का हो चुका है।
बलबन ने अपना ध्यान सल्तनत की सुरक्षा पर केन्द्रित किया, जिसके लिए उस समय पश्चिमोत्तर सीमा पर मंगोलों से खतरा था। वे किसी भी समय भारत पर आक्रमण कर सकते थे। अतः बलबन ने अपने बड़े लड़के मुहम्मद खां को मुल्तान का हाकिम नियुक्त किया और स्वयं भी सीमा के आसपास ही पड़ाव डालकर रहने लगा। उसका डर बेबुनियाद नहीं था। मंगोलों ने १२७९ ई. में भारत पर आक्रमण करने का प्रयास किया, किन्तु शाहजादा मुहम्मद खां ने उन्हें पीछे खदेड़ दिया। १२८५ ई. में पुनः आक्रमण कर वे मुल्तान तक बढ़ आये, और शाहजादे पर हमला करके उसे मार डाला। सुल्तान के लिए, जो अपने बड़े बेटे को बहुत ही प्यार करता था और यह उम्मीद लगाये बैठा था कि वह उसका उत्तराधिकारी होगा, यह भीषण आघात था। बलबन की अवस्था उस समय अस्सी वर्ष हो चुकी थी और पुत्रशोक में उसकी मृत्यु हो गयी। उसकी गणना दिल्ली के सबसे शक्तिशाली सुल्तानों में होती है। (बरनी कृत तारिखे फिरोजशाही)

बसी (बुसी), मारकुइस डि
एक प्रमुख फ्रांसीसी सेनापति, जिसने कर्नाटक में हुए आंग्ल-फ्रांसीसी युद्धों में हिस्सा लिया। उसका पुरा नाम चार्ल्स जोसेफ पार्टस्सियर, मारकुइस डि बुसी था। १७५१ ई. में डूप्ले के आदेशानुसार वह नये निजाम मुजफ्फरजंग को पदासीन करने उसकी राजधानी औरंगाबाद ले गया। मुजफ्फरजंग की मृत्यु के बाद सलावतजंग के गद्दीनशीन होने पर बुसी नये निजाम का परामर्शदाता बना। उसकी सरकार का उसने सात वर्षों तक बड़ी कुशलता के साथ संचालन किया। १७५३ ई. में बुसी ने निजाम सलावतजंग को सलाह दी कि वह फ्रांसीसी सेना का खर्च चलाने के लिए, जो निजाम के शत्रुओं से उसकी रक्षा करने के लिए तैनात की गयी थी और जिसके आधार पर निजाम के दरबार में फ्रांसीसी प्रभुत्व स्थापित हो गया था, उत्तरी सरकार का राजस्व उसके सुपुर्द कर दे। तीसरा आंग्ल-फ्रांसीसी युद्ध (१७५६-६३ ई.) शुरू होने पर १७५८ ई. में काउण्ट डि लाली (दे.) ने बुसी को निजाम के दरबार से वापस बुला लिया, जिससे निजाम के दरबार में फ्रांसीसी प्रभुत्व समाप्त हो गया। सर आयरकूट के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना ने फ्रांसीसियों को १७६० ई. में बिन्दवास की लड़ाई (दे.) में हराकर उत्तरी सरकार पर भी कब्जा कर लिया। इस लड़ाई में बुसी बन्दी बना लिया गया। बाद में रिहा होकर वह फ्रांस वापस लौट गया।
१७८३ ई. में उसे अंग्रेजों के विरुद्ध हैदरअली की सहायता करने के लिए पुनः भारत भेजा गया। इस समय तक बुसी वृद्ध हो चला था और बीमार रहता था। उसके आने के पहले ही हैदरअली की मृत्यु हो गयी। ऐसी परिस्थिति में वह घटनाक्रम को प्रभावित नहीं कर सका और अन्त में सेवानिवृत्त होकर फ्रांस लौट गया। निजाम सलावतजंग के परामर्शदाता के रूप में उसे प्रचुर धन प्राप्त हुआ था। उसके आधार पर उसने अपना शेष जीवन सुख से बिताया।

बहमनी राज्य और राजवंश
दक्षिण में बहमनी राज्य और राजवंश का आरम्भ दिल्ली के सुल्तान मुहम्मद तुगलक (१३२५-५१ ई.) के एक अधिकारी हसन (उपनाम जफरशाह) ने १३४७ ई. में किया। तुगलक के अत्याचारों और उसकी सनकों के कारण दक्षिण के मुसलमान अमीरों ने विद्रोह कर दिया। हसन ने इस विद्रोह का फायदा उठाया और वहाँ अपना राज्य स्थापित कर लिया। हसन अपने को फारस के वीर योद्धा बहमन का वंशज मानता था, इसीलिए उसका वंश बहमनी कहलाने लगा। तख्त पर बठने के बाद हसन ने अलाउद्दीन बहमन शाह का खिताब धारण कर लिया और अपनी राजधानी कुलबर्ग अथवा गुलबर्ग में बनायी। उसने ११ वर्ष (१३४७-५८ ई.) शासन किया। उसकी मृत्यु के समय बहमनी राज्य उत्तर में पेनगंगा से दक्षिण में कृष्णा नदी के किनारे तक और पश्चिम में गोवा से पूर्व में भोंगिर तक फैल गया था।
बहमनी राजवंश में हसन के अतिरिक्त १३ अन्य सुल्तान हुए थे। इनमें मुहम्मद प्रथम (१३५८-७३ ई.) मुजाहिद (१३७३-७७ ई.); दाउद (१३७८ ई.); मुहम्मद द्वितीय (१३७८-९७ ई.); ग्यासुद्दीन (१३९७ ई.); शम्सुद्दीन (१३९७ ई.); फिरोज (१३९७-१४२२ ई.) अहमद द्वितीय (१४२२-३५ ई.); अलाउद्दीन (१४३५-५७ ई.); हमायू (१४५७-६१ ई.); निजाम (१४६१-६३ ई.); मुहम्मद तृतीय (१४६३-८२) और महमूद (१४८२-१५१८ ई.) शामिल हैं।
बहमनी सल्तनत की अपने पड़ोसी विजयनगर के हिन्दू राज्य से लगातार अनबन चलती रही। विजयनगर राज्य उस समय तुंगभद्रा के दक्षिण और कृष्णा के उत्तरी क्षेत्र में फैला हुआ था और उसकी पश्चिमी सीमा बहमनी राज्य से मिली हुई थी। विजयनगर राज्य के दो मजबूत किले मुगदल और रायचूर बहमनी सीमा के निकट स्थित थे। इन किलों पर बहमनी सल्तनत और विजयनगर राज्य दोनों दाँत लगाये हुए थे। इन दोनों राज्यों में धर्म का अन्तर भी था। बहमनी राज्य इस्लामी और विजयनगर राज्य हिन्दू था। बहमनी सल्तनत की स्थापना के बाद ही इनदोनों राज्यों में लड़ाइयाँ शुरू हो गयीं और वे तबतक चलती रहीं, जबतक बहमनी सल्तनत कायम रही। बहमनी सुल्तानों द्वारा पड़ोसी हिन्दू राज्य को नष्ट करने के सभी प्रयास निष्फल सिद्ध हुए, यद्यपि इन युद्धों में अनेक बार बहमनी सुल्तानों की विजय हुई और रायचूर के दोआब पर विजयनगर के राजाओं के मुकाबले में बहमनी सुल्तानों का अधिकार अधिक समय तक रहा।
बहमनी सुल्तानों में तख्त के लिए प्रायः रक्तपात होता रहा। चार सुल्तानों को कत्ल कर दिया गया, दो अन्य को गद्दी से जबरन उतारकर अंधा कर दिया गया। १४ सुल्तानों में से केवल पाँच अपनी मौत से मरे। नवें सुल्तान अहमद ने राजधानी गुलबर्ग से हटाकर बीदर बनायी, जहाँ उसने अनेक आलीशान इमारतों का निर्माण कराया।
बहमनी राज्य की आबादी में मुसलमान अल्पसंख्यक थे, इलिए सुल्तानों ने राज्य के बाहर के मुसलमानों को वहाँ आकर बसने के लिए प्रोत्साहित किया। परिणामस्वरूप बहुत से विदेशी मुसलमान वहाँ जाकर बस गये जो अधिकतर शिया थे। उनमें से बहुत से लोगों को राज्य के महत्त्वपूर्ण पदों पर नियुक्त किया गया। विदेशी मुसलमानों के बढ़ते हुए प्रभाव से ईर्ष्यालु होकर दक्खिनी और अबीसीनियाई मुसलमान, जो ज्यादातर सुन्नी थे, उनसे शत्रुता रखने लगे। दसवें सुल्तान अलाउद्दीन द्वितीय (१४३५-५७ ई.) के शासनकाल में दक्खिनी और विदेशी मुसलमानों के संघर्ष ने अत्यन्त उग्र रूप धारण कर लिया। १४८१ ई. में १३ वें सुल्तान मुहम्मद तृतीय के राज्यकाल में मुहम्मद गवाँ को फाँसी दे दी गयी जो ग्यारहवें सुल्तान हमायूँ के समय से बहमनी सल्तनत का बड़ा वजीर था और उसने राज्य की बड़ी सेवा की थी। मुहम्मद गवाँ की मौत के बाद बहमनी सल्तनत का पतन शुरू हो गया। अगले और आखिरी सुल्तान महमूद के राज्यकाल में बहमनी राज्य के पाँच स्वतन्त्र राज्य बरार, बीदर, अहमदनगर, गोलकुंडा और बीजापुर बन गये, जिनके सूबेदारों ने अपने को स्वतन्त्र सुल्तान घोषित कर दिया। इन पाँचों राज्यों ने १७ वीं शताब्दी तक अपनी स्वतन्त्रता बनाये रखी। तब इन सबको मुगल साम्राज्य में मिला लिया गया।
बहमनी सल्तनत से भारत को कोई खास फायदा नहीं पहुँचा। कुछ बहमनी सुल्तानों ने इस्लामी शिक्षा को प्रोत्साहन दिया और राज्य के पूर्वी भाग में सिंचाई का प्रबन्ध किया। लेकिन उनकी लड़ाइयों, नरसंहार और आगजनी से प्रजा को बहुत नुकसान पहुँचा। इस सल्तनत में साधारण प्रजा की दशा बहुत दयनीय थी, जैसा कि रूसी व्यापारी एथानासियस निकितिन ने लिखा है, जिसने बहमनी राज्य का चार वर्ष (१४७०-७४ ई.) तक भ्रमण किया। उसने लिखा है कि भूमि पर जनसंख्या का भार अत्यधिक है, जबकि अमीर लोग समृद्धि और ऐश्वर्य का जीवन बिताते हैं। वे जहाँ कहीं जाते हैं, उनके लिए चांदी के पलंग पहले से ही रवाना कर दिये जाते हैं। उनके साथ बहुत से घुड़सवार और सिपाही, मशालची और गवैये चलते हैं। बहमनी सुल्तानों ने गाविलगढ़ और नरनाल में मजबूत किले बनवाये और गुलवर्ग एवं बीदर में कुछ मस्जिदें भी बनवायीं। बहमनी सल्तनत के इतिहास से प्रकट होता है कि हिन्दू आबादी को सामूहिक रूप से जबरन मुसलमान बनाने का सुल्तानों का प्रयास किस प्रकार विफल सिद्ध हुआ। (मीडोज टेलर- (मैन्युअल आफ इण्डियन हिस्ट्री; किंग-हिस्ट्री आफ दि बहमनी किंगडम् और निकितिन-इण्डिया इन दि फिफटींथ सेंचुरी)

बहराम ऐबा
उपनाम किशलू खाँ। वह सुल्तान मुहम्मद तुगलक (१३२५-५१ई.) के शासनकाल में उच्च, सिन्ध और मुल्तान का नाजिम था। १३२९ ई. में बहराम ऐबा ने सुल्तान के विरुद्ध उस समय विद्रोह किया जब वह देवगिरि में था। सुल्तान ने वहाँ से मुल्तान की ओर कूच किया और बहराम को पराजित करके बंदी बना लिया। सुल्तान ने उसका सिर काट कर शहर के फाटक पर टंगवा दिया जिससे किसी को फिर विद्रोह करने का साहस न हो।

बहराम खां
सुल्तान मुहम्मद तुगलक का दूध-भाई। सुल्तान ने उसे गयासुद्दीन बहादूर शाह के साथ पूर्वी बंगाल का सूबेदार बनाया। जब गयासुद्दीन ने सुल्तान के विरुद्ध विद्रोह किया, बहराम खां ने उसे पराजित कर मार डाला। इसके बाद बहराम पूर्वी बंगाल का एकमात्र सूबेदार बन गया। १३३६ ई. में उसकी मृत्यु हो गयी और उसके बाद ही पूर्वी बंगाल दिल्ली सल्तनत से स्वतंत्र हो गया।

बहाई सम्प्रदाय
बहाउल्लाह (१८१७-९२) के द्वारा प्रबतित। उसका जन्म फारस (ईरान) में हुआ था, परन्तु शाह के आदेश से उसे देश से निर्वासित कर दिया गया। इस सम्प्रदाय के मुख्य सिद्धांत हैं: ईश्वर अज्ञेय है, वह केवल अपने पैगम्बरों द्वारा अपने को व्यक्त करता है; इलहाम किसी एक युग तक सीमित नहीं है, वह हर युग में होता रहता है; हर हजार वर्ष के बाद पैगम्बरों का जन्म होता रहता है; वर्तमान युग के लिए ईश्वरीय आदेश है कि समस्त मानवजाति को एक मजहब तथा एक विश्व व्यवस्था के अंतर्गत संगठित कर दो। इस सम्प्रदाय का सबसे पहला मुखिया उसका संस्थापक बहाउल्लाह था। उसके बाद यह पद उसके वशजों को उत्तराधिकार के रूप में प्राप्त होना रहा। कट्टर मुसलमान बहाई सम्प्रदाय को नास्तिकों का सम्प्रदाय मानते हैं, फिर भी भारत तथा पाकिस्तान सहित ४० देशों में इस सम्प्रदाय के अनुयायी मिलते हैं। इस संप्रदाय की ओरसे अंग्रेजी में 'दि बहाई वर्ल्ड' नाम का एक पत्र भी प्रकाशित होता है।

बहाउद्दीन गुरशास्प
सुल्तान गयासुद्दीन तुगलक (१३२०-२५ ई.) का भांजा। जिस समय सुल्तान मुहम्मद तुगलक १३२५ ई. में गद्दी पर बैठा, बहाउद्दीन दक्षिण में सागर का हाकिम था। उसने मुहम्मद तुगलक को दिल्ली का सुल्तान मानने से इन्कार कर इसके विरुद्ध १३२६-२७ ई. में विद्रोह कर दिया। वह पराजित करके बंदी बना लिया गया और उसी रूप में दिल्ली भिजवा दिया गया, जहाँ जीवित दशा में ही उसकी खाल खिंचवा ली गयी और उसके शव को दिल्ली में घुमाया गया, ताकि राजद्रोह करनेवालों को चेतावनी मिल जाय।

बहादुरपुर की लड़ाई
फरवरी १६५८ ई. में दारा शिकोह के सबसे बड़े लड़के सुलेमान और बादशाह शाहजहाँ के दूसरे लड़के शुजा के बीच में हुई। शुजा ने शाहजहाँ की बीमारी की खबर मिलते ही अपने को बंगाल का स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया। इस लड़ाई में शहजादा शुजा पराजित हुआ और वह बंगाल वापस लौट गया।

बहादुर शाह
गुजरात का सुल्तान (१५२६-३७ ई.)। उसने मालवा के सुल्तान को पराजित कर उसके राज्य को १४३१ ई. में अपने राज्य में मिला लिया। उसने मेवाड़ पर भी चढ़ाई और १५३४ ई. में चित्तौड़ पर कब्जा कर लिया। लेकिन एक वर्ष बाद मुगल बादशाह हुमायूँ ने उसे पराजित कर दिया। बहादूर शाह ने गोवा भागकर अपने को बचाया। कुछ समय बाद हुमायूँ गुजरात से लौट गया और उसके बाद बहादूर शाह ने फिर से अपने राज्य पर अधिकार जमा लिया। मुगलों के आक्रमण के कारण उसने पुर्तगालियों को बेसीन सौंप कर उनसे सन्धि कर ली। जब बहादूर शाह ने अपने राज्य पर पूरी तरह फिर से दखल कर लिया तब उसमें और पुर्तगालियों में उन्हें दी गयी रियायतों को लेकर मतभेद पैदा हो गया, जिन्हे दूर करने के लिए पुर्तालियों ने बहादूर शाह को पुर्तगाली गवर्नर नूनो डा. कुन्हा से फरवरी १५३७ ई. में उसके जहाज पर जाकर मुलाकात करने पर सहमत कर लिया। लेकिन पुर्तगालियों ने बहादूर शाह को धोखा देकर जहाज से गिरा कर डुबो दिया और उसके उसके साथियों को मार डाला।

बहादूर शाह
१६वीं शताब्दी के अन्त में खानदेश का शासक। १६०० ई. में बादशाह अकबर ने जिस समय असीरगढ़ के किले का घेरा डाला, उस समय बहादूर शाह ने बडी योग्यतासे ६ महीने तक किले की रक्षा की, लेकिन बाद में बादशाह अकबर द्वारा व्यक्तिगत सुरक्षा का आश्वासन पाकर वह मुगल खेमे में जाकर सुलह की बातचीत करने के लिए राजी हो गया। लेकिन अकबर ने अपने वायदे को तोड़कर बहादूर शाह को नजरबन्द कर लिया और उसे किले में अपने आदमियों को आत्मसमर्पण करने का लिखित आदेश भेजने के लिए बाध्य किया। अकबर ने इस तरह छल से किले पर कब्जा कर लिया।


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