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Bharatiya Itihas Kosh

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ब्रिटिश प्रशासन तंत्र
१८६१ ई. के इंडियन कौंसिल ऐक्ट (भारतीय परिषद् कानून) के द्वारा भारत की विधायनी प्रणाली में भी महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किये थे। सिपाही-विद्रोह से प्रकट हो गया था कि भारतीय प्रशासन तंत्र में ऐसी व्यवस्था आवश्यक है जिसके द्वारा भारतीय लोकमत को जाना जा सके। अतः १८६१ ई. के कानून में इस बात का प्राविधान किया गया कि विधायी कार्यों के लिए वाइसराय की परिषद् की सदस्य संख्या ६ से १२ तक बढ़ा दी जाये और इनमें से आधे सदस्य गैरसरकारी होने चाहिए। यद्यपि विधि-निर्माण के अधिकार विभिन्न रीतियों से सीमित कर दिये गये थे, तथापि यह सिद्धान्त स्वीकार कर लिया गया था कि गैरसरकारी भारतीयों को कानून बनाने में, जिनसे वे शासित होते हैं, शामिल किया जाना चाहिए। तीन भारतीयों यथा महाराजा पटियाला, राजा बनारस तथा ग्वालियर के सर दिनकर राव को लेजिस्लेटिव कौंसिल अर्थात् वाइसराय की विधान परिषद् में मनोनीत किया गया।
१८६१ ई. के इंडियन कौंसिल्स ऐक्ट के द्वारा बम्बई और मद्रास सरकारों को भी प्रांत की शांति और उत्तम शासन-व्यवस्था के लिए कानून बनाने के सीमित अधिकार प्रदान कर दिये गये और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए गवर्नर की कार्यकारिणि परिषद् की सदस्य संख्या चार से आठ तक बढ़ा दी गयी जिनमें से कम से कम आधे गैर-सरकारी होते थे।
१८६१ ई. के ऐक्ट में गवर्नर-जनरल तथा उसकी परिषद् को इसी प्रकार की विधान परिषदें न केवल शेष तीन सूबों यथा बङ्गाल, पश्चिमोत्तर प्रदेश (बाद में संयुक्त प्रांत अथवा उत्तर प्रदेश) तथा पंजाब में गठित करने वरन् अन्य उन नये सूबों में भी गठित करने का अधिकार दिया गया जो इस कानून के अन्तर्गत बाद में निर्मित हों। विधान परिषदें बंगाल में १८६२ ई. में, पश्चिमोत्तर प्रदेश में १८८६ ई. में तथा पंजाब में १८९८ ई. में गठित हुई। १८६१ ई. के एक्ट में यद्यपि कानून बनाने में गैर-सरकारी भारतीयों से विचार-विमर्श करने के सिद्धान्त को स्वीकार कर लिया गया था, तथापि सरकार के नियंत्रण को शिथिल करने का इरादा लेशमात्र भी नहीं था, बल्कि प्रवृत्ति इसके विपरीत दिशा में थी, जैसा कि १८७० ई. के इंडियन कौंसिल ऐक्ट से प्रकट हुआ। इस एक्ट के द्वारा गवर्नर-जनरल तथा उसकी कार्यकारिणी को न केवल विधान परिषद् से परामर्श लिये बिना ही कानून बनाने का अधिकार प्राप्त हो गया, वरन् वाइसराय को यह अधिकार भी दे दिया गया कि भारत-स्थित ब्रिटिश साम्राज्य के हितमें अथवा उसकी सुरक्षा और शान्ति के लिए यदि वह आवश्यक समझे तो वह अपनी कार्यकारिणी द्वारा बहुमत से किये गये निर्णयों की भी अवहेलना कर सकता था। वाइसराय को इस प्रकार मुगलों की भाँति पूर्ण स्वेच्छाचारी शासक बना दिया गया। १८७४ ई. में वाइसराय की कार्यकारिणी परिषद् में एक साधारण छठां सदस्य बढ़ाया गया। उसके जिम्मे सार्वजनिक-निर्माण विभाग कर दिया गया।
इस बीच भारतीय लोकमत उत्तरोत्तर जागृत होता जा रहा था। पश्चीमी शिक्षा के फलस्वरूप सार्वजनिक मंचों और समाचारपत्रों के माध्यम से जनता अपनी भावनाओं को प्रकट करने लगी थी। कलकत्ता, मद्रास तथा बम्बई में लार्ड कैनिंग के शासनकाल में विश्वविद्यालयों की स्थापना हो चुकी थी। १८६९ ई. में स्वेज नहर के खुल जाने और १८७० ई. में इंग्लैंड और भारत के बीच सीधा तार-सम्बन्ध स्थापित हो जाने से दोनों देशों के बीच की दूरी कम हो गयी और बड़ी संख्या में भारतीय इंग्लैंड जाने लगे और वहाँ पर प्रचलित उदार राजनीतिक भावना से अनुप्राणित होकर वे स्वदेश लौटने लगे। इसके फलस्वरूप भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (दे.) की स्थापना हुई, जिसका प्रथम अधिवेशन बम्बई में १८७५ ई. में हुआ। शिक्षित भारतीयों ने अभूतपूर्व राष्ट्रीय एकता का परिचय देते हुए दृढ़तापूर्वक न केवल यह मांग की कि देश की नौकरियों में उन्हें अधिक स्थान दिया जाय वरन् इस बात की भी माँग की कि समुचित संख्या में जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों को विधान परिषद् में शामिल कर उनके अधिकार-क्षेत्र को बढ़ाया जाय; उन्हें परिषद् में वार्षिक बजट पर बहस करने तथा प्रशनोत्तरों द्वारा सरकार से सूचनाएँ प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त हो।

ब्रिटिश प्रशासन तंत्र
प्रबुद्ध लोकमत के दबाव के फलस्वरूप ब्रिटिश पार्लियामेण्ट ने १८९२ ई. में इंडियन कौंसिल्स ऐक्ट बनाया, जिसके फलस्वरूप गवर्नर-जनरल की विधान परिषद् तथा प्रादेशिक गवर्नरों की परिषदों के गैर-सरकारी सदस्यों की संख्या में वृद्धि कर दी गयी। यद्यपि कुछ सदस्यों का सरकार द्वारा मनोनयन जारी रखा गया, तथापि उनमें से कुछ को परोक्ष रूप में निर्वाचित करने का भी प्राविधान कर दिया गया। ऐक्ट के द्वारा विधान परिषदों को वार्षिक बजट पर बहस करने तथा प्रश्नों द्वारा सूचनाएँ प्राप्त करने का भी अधिकार प्राप्त हो गया। निर्वाचन के सिद्धांत को स्वीकार कर और विधान परिषदों को कार्यकारिणी पर कुछ नियंत्रण प्रदान कर, इंडियन कौंसिल एक्ट १८९२ ई. ने भारत में शासन-सुधारों का मार्ग प्रशस्त कर दिया।
भारतीय लोकमत प्रशासन व्यवस्था को और अधिक उदार बनाने के लिए निरन्तर दबाव डालता रहा। अगला महत्त्वपूर्ण परिवर्तन १९०९ ई. के भारतीय शासन विधान द्वारा किया गया। इसे मार्ले मिन्टो सुधार कहते हैं। इस कानून में योग्य भारतीयों को पहले की अपेक्षा अधिक संख्या में सरकार में शामिल करने का प्राविधान किया गया। इसके फलस्वरूप एक भारतीय (सर सत्येन्द्र प्रसन्न सिन्हा, बाद में रायपुर के लार्ड सिन्हा) की वाइसराय की कार्यकारिणी परिषद् में तथा बंगाल की कार्यकारिणी परिषद् में राजा किशोरीलाल गोस्वामी की नियुक्ति हुई थी। इसी प्रकार मद्रास और बम्बई प्रांतों की कार्यकारिणी परिषदों में भी भारतीयों की नियुक्तियां की गयीं। १९०९ ई. के कानून में विधानपरिषदों की संरचना तथा उनके कार्यों में भी महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किये गये। केन्द्रीय विधान परिषद् की सदस्य संख्या बढ़ाकर साठ और बड़े प्रांतों की विधान परिषदों में निर्वाचित गैर सरकारी सदस्यों की अनुपातिक संख्या बढ़ा दी गयी, यद्यपि बहुमत मनोनीत सरकारी एवं गैरसरकारी सदस्यों का ही बनाये रखा गया। सदस्यों का निर्वाचन पहले की भाँति परोक्ष पद्धति से ही होता था, अब साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व का भी सूत्रपात कर दिया गया। निर्वाचन क्षेत्र पहले की तुलना में अधिक व्यापक बना दिये गये। विधान परिषदों को बजट पर बहस करने और उन पर तथा सेना, विदेशी मामले तथा देशी रजवाड़ों के प्रश्नों को छोड़कर, अन्य प्रश्नों पर प्रस्ताव लाने की भी अनुमति प्रदान कर दी गयी। प्रस्ताव सिफारिश के ही रूप में होते थे और उन्हें स्वीकार करने के लिए सरकार बाध्य नहीं थी, इस प्रकार १९०९ ई. का कानून भारत में उत्तरदायी सरकार की शुरुआत की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम था, फिर भी इस कानून के द्वारा भारत में उत्तरदायी शासन प्रणाली की स्थापना नहीं हुई और भारतीय प्रशासन पहले की भाँति पूर्णरूप से ब्रिटिश पार्लियामेन्ट के प्रति उत्तरदायी बना रहा।
अतः १९०९ ई. के शासन-सुधारों से भारतीय राजनीतिक आकांक्षाएँ सन्तुष्ट नहीं हो सकीं और असंतोष बढ़ता रहा। उसके बाद प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ गया और भारत ने अपनी राजभक्ति का परिचय देते हुए युद्ध में इंग्लैण्ड का साथ दिया और अपनी सरकार की नीतियों के निर्धारण में अधिक आवाज की माँग की। भारतीयों की माँगों को सन्तुष्ट करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने २० अगस्त १९१७ ई. को भारत मंत्री श्री एड्विन मान्टेग्यू के माध्यम से घोषणा की कि "सम्राट् की सरकार की यह नीति है कि प्रशासन की प्रत्येक शाखा में भारतीयों को अधिक स्थान दिया जाय तथा स्वायत्तशासी संस्थाओं को क्रमिक रूप से विकसित किया जाये ताकि ब्रिटिश साम्राज्य के अभिन्न अंग के रूप में भारत में उत्तरोत्तर उत्तरदायी सरकार की स्थापना हो सके।" यह एक युगान्तरकारी घोषणा थी जिसके द्वारा भारत में संसदीय पद्धति की उत्तरदायी सरकार की स्थापना का वचन दिया गया था। इस नीति के अनुसरण में १९१९ ई. के भारतीय शासन विधान ने भारतीय प्रशासन और भारतमंत्री के सम्बन्धों में कोई प्रभावी परिवर्तन नहीं किया। यद्यपि भारतमंत्री की परिषद् में भारतीयों की नियुक्ति का पथ प्रशस्त कर दिया गया, तथापि परिषद् को यथापूर्व भारतमंत्री के अधीनस्थ रखा गया। भारतमंत्री का भारतीय प्रशासन पर पूर्ण नियंत्रण, केवल प्रांतों के हस्तान्तरित विभागों के प्रशासन को छोड़कर, पूर्ववत् बना रहा। भारतमंत्री को केन्द्रीय और प्रादेशिक सरकारों के एजेंट की हैसियत से किये जानेवाले कार्यों से मुक्त कर दिया गया। यह दायित्व एक नये अधिकारी, हाईकमिश्नर, को सौंपा गया जिसकी नियुक्ति भारत सरकार करती थी। इसके अतिरिक्त भारतमंत्री तथा उपमंत्री का वेतन तथा उसके विभाग का व्यय, जो तब तक भारतीय राजस्व से वहन किया जाता था, आगे से ब्रिटिश पार्लियामेन्ट द्वारा स्वीकृत ब्रिटेन के बजट से वहन किये जाने का प्राविधान किया गया। इस प्रकार भारत पर ब्रिटिश पार्लियामेण्ट का नियंत्रण और सुदृढ़ बना दिया गया।
१९१९ ई. के विधान में भारत की प्रशासकीय व्यवस्था में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किये गये। वाइसराय तथा गवर्नर-जनरल यथापूर्व भारतमंत्री तथा पार्लियामेन्ट के प्रति उत्तरदायी बना रहा, किन्तु उसकी कार्यकारिणी परिषद् का आकार बढ़ा दिया गया और यह परम्परा प्रचलित की गयी कि उसके तीन सदस्य भारतीय होंगे। इस प्रकार भारतीय प्रशासन को प्रभावित करने की दृष्टि से भारतीयों की स्थिति पहले की अपेक्षा सुधर गयी। केन्द्रीय और प्रादेशिक सरकारों के कार्यों को यथासम्भव स्पष्ट रूप से विभाजित कर दिया गया और उनके आय के स्रोतों को भी निर्धारित कर दिया गया।

१९१९ ई. के विधान में भारत की प्रशासकीय व्यवस्था में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किये गये। वाइसराय तथा गवर्नर-जनरल यथापूर्व भारतमंत्री तथा पार्लियामेन्ट के प्रति उत्तरदायी बना रहा, किन्तु उसकी कार्यकारिणी परिषद् का आकार बढ़ा दिया गया और यह परम्परा प्रचलित की गयी कि उसके तीन सदस्य भारतीय होंगे। इस प्रकार भारतीय प्रशासन को प्रभावित करने की दृष्टि से भारतीयों की स्थिति पहले की अपेक्षा सुधर गयी। केन्द्रीय और प्रादेशिक सरकारों के कार्यों को यथासम्भव स्पष्ट रूप से विभाजित कर दिया गया और उनके आय के स्रोतों को भी निर्धारित कर दिया गया।

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ब्रिटिश प्रशासन तंत्र
केन्द्रीय विधानमंडल को भी पूरी तरह से नया रूप दिया गया। उसे दो सदनों में विभक्त कर दिया गया। अपर सदन का नाम कौंसिल आफ स्टेट (राज्यसभा) तथा निम्न सदन का नाम केन्द्रीय लेजिस्लेटिव असेम्बली (विधानसभा) रखा गया। कार्यकारिणी परिषद् के सदस्यों को गवर्नर-जनरल इन दोनों में से किसी एक सदन में मनोनीत कर सकता था। यद्यपि साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व की प्रणाली कायम रखी गयी, तथापि प्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली के सिद्धान्त को मान्यता प्रदान कर दी गयी और दोनों सदनों में निर्वाचित सदस्यों का बहुमत हो गया। मताधिकार सम्पत्ति सम्बधी योग्यता पर आधारित था जो कौंसिल आफ स्टेट के लिए निम्न सदन की अपेक्षा अधिक ऊँची थी, किन्तु अनुचित रूप से प्रतिबंधात्मक नहीं थी।
केन्द्रीय विधानमंडल को विधि-निर्माण के क्षेत्र में तथा वित्तीय मामलों में विस्तृत अधिकार प्रदान कर दिये गये, किन्तु साथ ही गवर्नर-जनरल को प्रमाणीकरण तथा अध्यादेश जारी करने के अधिकार प्रदान करके उसके इन अधिकारों को काफी हद तक सीमित भी कर दिया गया। दोनों सदनों के अधिकार समान थे, किन्तु अनुदानों को स्वीकार या अस्वीकार करने का अधिकार केवल निम्न सदन को था। इस प्रकार भारत के इतिहास में पहली बार एक निर्वाचित संसद की स्थापना हुई, जिसे प्रशासन को काफी हद तक नियंत्रित करने का अधिकार प्राप्त था।
१९१९ ई. के शासन-विधान ने प्रादेशिक शासन व्यवस्था में भी व्यापक परिवर्तन कर दिये। सभी १० प्रांतों को, जिनमें उस समय ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य विभक्त था, गवर्नरों वाला प्रांत बना दिया गया। इन प्रांतों का शासन गवर्नर कार्यकारिणी परिषद् की सहायता से चलाते थे, जिनमें कुछ गैरसरकारी भारतीय सदस्यों की नियुक्ति का प्राविधान कर दिया गया। गवर्नर की नियुक्ति सम्राट् द्वारा होती थी। उसे व्यापक अधिकार तथा विशेषाधिकार प्राप्त थे। वास्तव में प्रांतीय शासन की वास्तविक सत्ता उसी के हाथ में केन्द्रित थी। फिर भी नये विधान के अनुसार प्रांतों में पहली बार वैध शासन का प्रचलन किया। प्रशासकीय विभागों को दो भागों में विभक्त कर दिया गया। पुलिस, न्याय, भूमि राजस्व आदि विभागों को आरक्षित विषयों के अंतर्गत रखा गया तथा हस्तान्तरित विषयों के अंतर्गत स्वायत्त-शासन, शिक्षा, सार्वजनिक स्वास्थ, आबकारी आदि विभागों को कर दिया गया। आरक्षित विषयों के सम्बन्ध में प्राविधान किया गया कि इन विभागों का प्रशासन गवर्नर कार्यकारिणी परिषद् के सदस्यों के परामर्श और सहायता से चलायेगा जो पहले की भाँति गवर्नर-जनरल तथा भारतमंत्री के प्रति उत्तरदायी होंगे। किन्तु हस्तान्तरित विषयों का प्रशासन गवर्नर द्वारा अपने मन्त्रियों के परामर्श तथा सहायता से चलाने का प्राविधान किया गया। इन मंत्रियों की नियुक्ति गवर्नर प्रांतीय विधानमंडल के निर्वाचित सदस्यों में से ही कर सकता था। मंत्री अपने पद पर गवर्नर की खुशी पर बने रह सकते थे, किन्तु उनके लिए विधान मंडल का विश्वास बनाये रखना अनिवार्य था। विश्वास खो देने पर उन्हें बर्खास्त कर दिया जाता था।
प्रांतों में विधानमंडलों को व्यापक अधिकार प्रदान किये गये। उनके बहुसंख्यक सदस्य गैरसरकारी होते थे, जो प्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली के आधार पर निर्वाचित किये जाते थे। साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व तथा नामजदगी की प्रणाली को कायम रखा गया, किन्तु प्रांतीय विधानमंडलों के अधिकार काफी बढ़ा दिये गये। उनमें किसी भी प्रांतीय विषय के सम्बन्ध में विधेयक प्रस्तुत किया जा सकता था; किन्तु आरक्षित विषयों से सम्बन्धित विधेयक को उसके प्रतिकूल मतदान के बावजूद कानून बनाया जा सकता था, यदि गवर्नर यह प्रमाणित कर दे कि वह प्रांत की शांति एवं व्यवस्था के लिए आवश्यक है। लेकिन हस्तान्तरित विषयों से सम्बन्धित विधेयक केवल उसकी अनुमति से ही स्वीकृत हो सकते थे। इसी प्रकार प्रांत का पूरा बजट प्रांतीय विधानमंडल में प्रस्तुत किया जाना और उस पर विधानमंडल में बहस होना आवश्यक था, किन्तु हस्तान्तरित विषयों से सम्बन्धित अनुदानों पर जबकि उसकी स्वीकृति आवश्यक थी, आरक्षित विषयों से सम्बन्धित अनुदान को अस्वीकृत हो जाने पर भी गवर्नर अपने विशेषाधिकार से प्रमाणित करके पास कर सकता था। इस प्रकार विधि-निर्माण एवं वित्तीय मामलों में प्रांतीय विधानमंडलों के अधिकार, यद्यपि आरक्षित विषयों के सम्बन्ध में काफी सीमित थे, तथापि पहले की तुलना में काफी विस्तृत हो गये थे। केन्द्रीय एवं प्रांतीय विधानमंडलों में व्यापक मताधिकार के आधार पर प्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली की शुरुआत तथा उन्हें बहस करने और निर्णय लेने के व्यापक अधिकार प्रदान किया जाना १९१९ ई. के शासनविधान की महत्त्वपूर्ण विशेषता थी। इस शासनविधान ने अनेक प्रतिबंधों के बावज्द ब्रिटिश भारत को संसदीय लोकतांत्रिक शासन-प्रणाली के पथ पर निश्चित रूप से अग्रसर कर दिया।

ब्रिटिश प्रशासन तंत्र
फिर भी १९१९ ई. के शासन-विधान से, जो १९२१ ई. में कार्यान्वित हुआ, भारतीयों की राष्ट्रीय आकांक्षाओं को सन्तुष्ट नहीं किया जा सका। भारतीय लिबरलों ने इन शासन-सुधारों को स्वीकार कर लिया और उन्हें कार्यान्वित करने का भी प्रयास किया; किन्तु भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने उन्हें नितांत अपर्याप्त मानकर अस्वीकार कर दिया। महात्मा गांधी, जो उस समय तक कांग्रेस के मान्य नेता बन गये थे और खिलाफत आन्दोलन (दे.) का भी नेतृत्व कर रहे थे, असहयोग आन्दोलन शुरू कर दिया। यह आंदोलन शीघ्र ही सारे देश में फैल गया। किन्तु १९२४ ई. तक खिलाफत आन्दोलनकारी कांग्रेस से अलग हो गये और ब्रिटिश सरकार भी पशु-बल के आधार पर असहयोग आन्दोलन का दमन करने में सफल हो गयी। फिर भी कांग्रेस ने झुकना तो दूर, अपने १९२७ ई. के मद्रास अधिवेशन में भारत का लक्ष्‍य 'पूर्ण स्वाधीनता' घोषित किया। अपनी इस घोषणा को उसने और अधिक स्पष्ट शब्दों में १९२९ ई. के लाहौर अधिवेशन में दोहराया। १९३० ई. में महात्मा गांधी ने सविनय-अवज्ञा आन्दोलन (दे.) आरम्भ कर दिया। ब्रिटिश सरकार ने पुनः कठोर दमन की नीति अपनायी, महात्मा गांधी सहित सभी कांग्रेस नेताओं को कैद कर लिया और हजारों लोगों को जेलों में ठूँस दिया। फलस्वरूप सविनय-अवज्ञा आन्दोलन धीरे धीरे शिथिल पड़ गया, किन्तु देश में असंतोष बना रहा। असन्तुष्ट भारत को सन्तुष्ट करने की आशा में ब्रिटिश पार्लियामेण्ट ने १९३५ ई. में नया भारतीय शासन विधान पास किया, जिसके द्वारा भारतीय प्रशासनतंत्र में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किये गये। १९३५ ई. के शासन-विधान में भारत सरकार को पहले की भाँति वाइसराय तथा गवर्नर जनरल को भारत मंत्री के प्रति उत्तरदायी बनाकर ब्रिटिश पार्लियामेण्ट के अधीन रखा गया। इसके साथ उसमें तत्कालीन भारतीय शासन-विधान की सभी विशेषताओं, जैसे विधानमंडलों में जनता का प्रतिनिधित्व, द्वैध शासन, मंत्रियों का उत्तरदायित्व, प्रांतों को स्वशासन-साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व एवं विशेषाधिकारों को यथापूर्व कायम रखा गया। इसके अतिरिक्त इस विधान में दो नयी विशेषताएँ थीं-यथा, केन्द्र में संघशासन तथा प्रदेशों में जिन्हें स्वशासन प्रदान कर दिया गया था, लोकप्रिय उत्तरदायी सरकार।
दो नये प्रांत, यथा सिन्ध तथा उड़ीसा गठित किये गये और इन दोनों को पश्चिमोत्तर सीमा-प्रांत के साथ गवर्नर-वाला प्रांत बना दिया गया। बर्मा को ब्रिटिश भारत से पृथक् कर दिया गया। इस प्रकार ब्रिटिश भारत में तब ११ गवर्नरों वाले प्रांत तथा ४ चीफ-कमिश्नरों द्वारा शासित क्षेत्र यथा दिल्ली, अजमेर-मारवाड़, कुर्ग, अंडमान तथा निकोबार द्वीपसमूह तथा ब्रिटिश बलूचिस्तान थे।
१९३५ ई. के शासन-विधान की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विशेषता संघीय शासन-प्रणाली थी। उसमें सभी भारतीय प्रांतों तथा सभी देशी रियासतों की एक संघीय इकाई बनाने का प्रस्ताव किया गया था। केन्द्र में द्विसदनीय विधानमंडल तथा गवर्नर-जनरल की कार्यकारिणी परिषद् में द्वैध शासन की व्यवस्था की गयी थी। गवर्नर-जनरल को अधिकार दिया गया था कि वह अपनी कार्यकारिणी परिषद् में दो सदस्यों को मनोनीत करके सुरक्षा तथा विदेशी मामलों के आरक्षित विभागों को उनके जिम्मे कर दें। अन्य सभी विभाग हस्तांतरित विभागों के अन्तर्गत कर दिये गये थे और यह प्राविधान किया गया था कि उनका शासन चलाने के लिए गवर्नर-जनरल मंत्रियों की नियुक्ति करेगा, जो विधान मंडल के प्रति उत्तरदायी होंगे। गवर्नर-जनरल को पहले की ही भाँति यह विशेषाधिकार प्राप्त था कि संघीय विधानमंडल में प्रतिकूल मतदान होने के बावजूद वह प्रमाणित करके किसी विधेयक को कानून का रूप दे सकता था। इसके साथ ही वह ६ महीने की अवधि के लिए अध्यादेश भी जारी कर सकता था। संघीय विधानमंडल के दोनों सदनों के बहुसंख्यक सदस्य के मतदाताओं द्वारा सीधे निर्वाचित किये जाने की व्यवस्था की गयी थी, किन्तु संघ में शामिल होनेवाली देशी रियासतों को निचले सदन के एक तिहाई प्रतिनिधियों को तथा ऊपरी सदन के दो बटा पाँच प्रतिनिधियों को मनोनीत करने का अधिकार प्रदान किया गया था। इस प्रकार सम्पूर्ण भारत के प्रतिनिधियों के एक ही सदन में बैठने की व्यवस्था पहली बार की गयी थी।
१९३५ ई. के शासन-विधान में प्रांतों में द्वैध शासन समाप्त करके लोकप्रिय सरकारों की स्थापना की गयी। सभी विभागों का प्रशासन मंत्रियों के जिम्मे कर दिया गया, जिनकी नियुक्ति गवर्नरों के हाथ में थी, लेकिन वे लोकप्रिय निर्वाचित विधान-सभाओं के प्रति उत्तरदायी होते थे। साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व बरकरार रखा गया और ६ प्रांतों में द्विसदनीय विधान मंडलों की व्यवस्था की गयी। प्रत्येक प्रांत के निचले सदन में जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि होते थे। सभी वयस्क स्त्री पुरुषों को जो थोड़ी सम्पत्ति भी रखते थे, मताधिकार प्रदान कर दिया गया था।

ब्रिटिश प्रशासन तंत्र
१९३५ ई. का शासन-विधान भारत को औपनिवेशिक स्वराज्य का दर्जा दिलाने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम था, किन्तु इसके द्वारा जो शासन व्यवस्था स्थापित की गयी थी, वह कुछ महत्त्वपूर्ण मामलों में औपनिवेशिक स्वराज्य के दर्जे के अनुकूल नहीं थी। प्रथमत:, केन्द्र में द्वैध शासन होने के कारण कार्यकारिणी का एक भाग भारत के लोगों द्वारा हटाया नहीं जा सकता था और वह ब्रिटिश पार्लियामेण्ट के प्रति उत्तरदायी था। दूसरे, वाइसराय के प्रमाणित करके तथा अध्यादेशों द्वारा कानून बनाने के विशेषाधिकार वास्तविक औपनिवेशिक स्वराज्य के प्रतिकूल थे और इनसे सिद्ध होता था कि भारत अब भी इंग्लैण्ड पर आश्रित है। तीसरे, यह प्राविधान कि भारतीय संघीय विधानमंडल द्वारा पास किये गये कानूनों पर गवर्नर-जनरल अपनी स्वीकृति प्रदान करने से इंकार कर सकता है अथवा आरक्षित रख सकता है और भारत मंत्री के परामर्श पर ब्रिटिश राजसत्ता उसे अस्वीकृत कर सकती है, भारत के पूर्ण औपनिवेशिक स्वराज्य के दर्जे का उपभोग करने के मार्ग में सबसे गम्भीर रुकावट थी।
ऐसी परिस्थितियों में १९३५ ई. के शासन-विधान के सम्बन्ध में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने आलोचनात्मक दृष्टिकोण अपनाया। विधान के संघीय भाग का क्रियान्वयन देशी राजाओं के सहयोग पर निर्भर करता था और चूँकि इस भाग का स्वागत नहीं हुआ था, अतः विधान का केवल प्रांतीय विभाग ही १९३७ ई. में कार्यान्वित किया गया। सभी पार्टियों ने चुनाव में भाग लिया और सभी प्रांतों में लोकप्रिय सरकारों की स्थापना हो गयी, किन्तु केन्द्र में पुरानी प्रणाली की अनुत्तरदायी कार्यकारिणी और आंशिक लोकप्रिय विधायिका, जो कि १९१९ ई. के विधान के अनुसार गठित की गयी थी, कार्य करती रही। दो वर्ष पश्चात् द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू हो गया, जिसका भारत की राजनीतिक स्थिति पर जबर्दस्त प्रभाव पड़ा। प्रारम्भ में ब्रिटेन की पराजयों के बाद उसके द्वारा शत्रुओं का जबर्दस्त मुकाबला, जापानियों का आक्रमण, युद्ध में अमेरिकी हस्तक्षेप तथा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच गम्भीर मतभेदों के फलस्वरूप भारत में अत्यधिक तनावपूर्ण राजनीतिक स्थित पैदा हो गयी। कुछ लोगों का विचार था कि ब्रिटेन के खतरे से लाभ उठाकर भारत को अपनी आजादी के लिए दबाव डालना चाहिए, किन्तु महात्मा गांधी ने घोषित किया कि 'हम ब्रिटेन का विनाश करके अपनी आजादी नहीं प्राप्त करना चाहते हैं।' इन परिस्थितियों में ब्रिटिश सरकार ने वाइसराय की कार्यकारिणी परिषद् की सदस्य संख्या बढ़ाकर १५ कर दी, जिनमें से ११ सदस्य भारतीय होनेवाले थे। इस प्रकार ब्रिटिश सरकार ने भारतीय प्रशासन के काफी बड़े हिस्से पर भारतीयों का नियंत्रण स्थापित कर और सर स्टैफर्ड क्रिप्स को भारतीय समस्या का समाधान ढूंढ़ने के लिए भारत भेजने की घोषणा की। लेकिन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस तत्काल पूर्ण औपनिवेशिक स्वराज्य प्रदान करने के लिए आन्दोलन करती रही। चूँकि ब्रिटिश सरकार ने स्वेच्छा से इस मांग को स्वीकार नहीं किया, अतएव कांग्रेस ने महात्मा गांधी के नेतृत्व में अंग्रेजों से तत्काल भारत छोड़ देने की मांग की और १९४२ में देशव्यापी सविनय-अवज्ञा आन्दोलन आरम्भ कर दिया। महात्मा गांधी द्वारा अहिंसा का आग्रह करने के बावजूद आन्दोलन के दौरान काफी हिंसात्मक घटनाएँ घटीं। ब्रिटिश सरकार पशुबल का प्रयोग करके आन्दोलन का दमन करने में सफल हो गयी और अन्त में युद्ध में भी जीत गयी। किन्तु १९४२ ई. की बगावत और १९४६ ई. में नौसेना के विद्रोह ने यह प्रकट कर दिया कि ब्रिटेन अब बहुसंख्यक भारतीयों की सहमति से अपना शासन कायम नहीं रख सकता है। उसने अप्रैल १९४६ ई. में कैबिनेट मिशन को भारत भेजा, उसकी विफलता तथा उसके बाद भारतव्यापी साम्प्रदायिक दंगों ने इस विश्वासको और भी सुदृढ़ कर दिया। विश्वयुद्ध में जीत जाने के बावजूद ब्रिटेन इतना थक और दिवालिया हो गया था कि वह यह समझ गया कि मात्र शक्ति के बल पर वह भारत को अपने कब्जे में नहीं रख सकता है। भारत को यदि तत्काल आजाद न किया गया तो वह न केवल उसे खो बैठेगा वरन् उसके साथ मैत्रीपूर्ण व्यावसायिक सम्बन्ध भी कायम नहीं रख सकेगा। व्यावसायिक सम्बन्धों पर ब्रिटेन की आर्थिक व्यवस्था एवं वित्तीय सम्पन्नता निर्भर करती है। ऐसी परिस्थिति में ब्रिटिश राजनीतिज्ञों ने अभूतपूर्व दूरदर्शिता और साहस का परिचय देते हुए १५ अगस्त १९४७ ई. को भारत को स्वाधीनता प्रदान कर दी, देश का भारत और पाकिस्तान के रूप में दो भागों में विभाजन कर दिया। ब्रिटेन की 'फूट डालो और शासन करो' की नीति के फलस्वरूप भारत में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच की खाईं इतनी चौड़ी हो गयी थी कि देश का विभाजन अनिवार्य हो गया था। इस प्रकार १७७३ ई. के रेग्युलेटिंग एक्ट द्वारा जिस भारतीय प्रशासनतंत्र की नींव डाली गयी, उसकी चरम परिणति भारत की स्वाधीनता के रूप में हुई। (सर सी. हलबर्ट-दि गवर्नमेण्ट आफ इंडिया तथा ए. बी. कीथ-कांस्टीच्यूशनल हिस्ट्री आफ इंडिया)

ब्रेथवेट, कर्नल
एक ब्रिटिश सैनिक अधिकारी, जो १७८१ ई. के द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध में हैदरअली की सेना से पराजित हो गया।

ब्लावत्स्की, मैडम हेलेना पेत्रव्ना (१८३१-९१)
एक प्रतिभाशाली रूसी महिला, जो भारत के प्राचीन अध्यात्मवाद की बहुत प्रशंसक थीं और १८७५ ई. में उन्होंने ब्रह्मविद्या-समाज (थियोसोफिकल सोसाइटी) की स्थापना की। १८७९ ई. में वे भारत आयीं और मद्रास के निकट अडयार में थियोसोफिकल सोसाइटी के प्रधान कार्यालयकी स्थापना की। उनके प्रमुख प्रकाशनों में 'आइसिस' , 'अनवेल्ड', 'सिक्रेट डाक्ट्रिन' तथा 'दि वायस आफ सायलेन्‍स' हैं। (ए. पी. क्लीथर-एच. पी. ब्लावत्स्की: हरसेल्फ)

ब्लेकेट, सर बसील
लार्ड इर्विन (१९२६-३१ ई.) के शासनकाल में वाइसराय की कार्यकारिणी परिषद् का वित्त-सदस्य। सर बसील ने रुपये का विनिमय मूल्य १ शिलिंग ६ पेंस स्थिर किया, जिसकी भारतीयों ने तीव्र आलोचना की।

ब्लैकहोल (कालकोठरी)
कलकत्ता स्थित फोर्ट विलियम में १८ फुट लम्बा और १४ फुट दस इंच चौड़ा एक कमरा। २० जून १७५६ ई. को नवाब सिराजुद्दौला ने किले पर कब्जा करके अनेक अंग्रेजों को बन्दी बना लिया। बी. जेड. हालवेल के अनुसार, जिसके ऊपर उस समय किले की रक्षा का भार था, अंग्रेज बन्दियों की संख्या १४६ थी। उन सबको रात में किले की काल-कोठरी में बंद कर दिया गया, जिसके फलस्वरूप दम घुटने से रात में १२३ बन्दियों की मृत्यु हो गयी। इस घटना को क्रूर नृशंसता माना गया और सिराजुद्दौला को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया गया। ठोस सबूतों के आधार पर इस घटना की सचाई पर सन्देह प्रकट किया जाता है और सम्भव है कि यह कोरी कपोल-कल्पना हो। जो कुछ भी हो, सिराजुद्दौला इस घटना के लिए जिम्मेदार नहीं था। (मिल-हिस्ट्री आफ इंडिया, विद विल्सन नोट्स, जिल्द ३, १८५८ ई. का संस्करण; ए. के. मैत्र कृत बंगला पुस्तक सिराजुद्दौला; सी. लिटिल--दि ब्लैक होल ट्रेजडी)


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