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Bharatiya Itihas Kosh

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बटलर, डाक्टर फैनी
प्रथम अंग्रेज महिला चिकित्सक, जिसने १८६० ई. में भारत आकर डाक्टरी शुरू की। उसने महिलाओं के लिए सेवा का एक नया आदर्श उपस्थित किया था।

बटलर-समिति रिपोर्ट
१९२९ ई. में प्रस्तुत की गयी। भारत में सर्वोंच्च (ब्रिटिश) सत्ता और देशी रियासतों के तत्कालीन सम्बन्धों की जाँच करने के उपरान्त समिति ने दोनों के वित्तीय एवं आर्थिक सम्बन्धों को व्यवस्थित करने के विषय में अपनी सिफारिशें प्रस्तुत कीं। इसकी आधारभूत सिफारिश थी कि सर्वोच्च सत्ता और देशी राजाओं के बीच ऐतिहासिक सम्बन्धों को ध्यान में रखकर उन्हें उनकी सहमति के बिना भारतीय विधानमंडल के प्रति उत्तरदायी नयी सरकार से सम्बन्ध स्थापित करने के लिए विवश न किया जाये। रिपोर्ट में देशी राजाओं की ये आशंकाएँ प्रतिलक्षित थीं कि भारत में लोकप्रिय शासन प्रचलित होने से वे अपने अधिकारों से वंचित हो जायेगे। भारतीय लोकमत ने इस रिपोर्ट को प्रतिगामी माना।

बटल, सर हरकोर्ट
वाइसराय की कार्यकारिणी परिषद का सदस्य। बाद में संयुक्त प्रान्त (उत्तर प्रदेश) और बर्मा का गवर्नर हुआ। समर्थ प्रशासक के रूप में उसकी ख्याति बहुत थी और भारत-मंत्री द्वारा गठित देशी रियासत समिति (इंडियन स्टेट्स कमेटी) का १९२७ ई. में वह अध्यक्ष नियुक्त किया गया। यह समिति देशी रियासतों और सर्वोच्च सत्ता के पारस्परिक सम्बन्धों की जाँच के लिए नियुक्त की गयी थी। समिति ने १९२९ ई. में रिपोर्ट प्रस्तुत की थी।

बड़गांव समझौता
प्रथम मराठा-युद्ध (१७७६-८२ ई.) के दौरान भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी की सरकार की ओर से कर्नल करनाक द्वारा जनवरी १७७९ ई. में किया गया। कर्नल काकबर्न के नेतृत्व में अंग्रेजों की एक सेना ने कमिश्नर कर्नल करनाक के साथ पूना की ओर कूच किया, किन्तु रास्ते में उसे पश्चिमी घाट स्थित तेल गाँव नामक स्थान पर मराठों की विशाल सेना का मुकाबला करना पड़ा। अंग्रेज सेना की कई स्थानों पर हार हुई और उसे मराठों ने चारों तरफ से घेर लिया। ऐसी स्थिति में कर्नल करनाक हिम्मत हार गया और उसके जोर देने पर ही कमांडिंग अफसर कर्नल काकबर्न ने बड़गाँव समझौते पर हस्ताक्षर किये। इस समझौते के अनुसार तय हुआ कि कम्पनी की बम्बई सरकार १७७३ ई. के बाद जीते गये समस्त इलाके मराठों को लौटा देगी और अपने वचनों का पालन करने की गारंटी के रूप में कुछ अंग्रेज अफसरों को बंधक के रूप में मराठों के सुपुर्द कर देगी, राघोबा (दे.) को, जिसको पेशवा की गद्दी पर बिठाने के उद्देश्य से अंग्रेजों ने लड़ाई छेड़ी थी उसे मराठों को सौंप देगी, बंगाल से मदद के लिए आ रही ब्रिटिश कुमुक वापस लौटा दी जायगी और भड़ौंच से प्राप्त राजस्व का एक हिस्सा महादजी शिन्दे को दिया जायगा। सैनिक स्थिति अंग्रेजों के इतने प्रतिकूल नहीं थी कि वे इस प्रकार की शर्तें स्वीकार करते। गवर्नल-जनरल ने इस समझौते को अस्वीकृत कर दिया और समझौता करनेवाले अंग्रेज अधिकारियों को कम्पनी की नौकरी से बर्खास्त कर दिया। राघोबा ने महादजी शिन्दे की शरण लेकर अपनी प्राणरक्षा की और अंग्रेजों को भी परेशानी से बचा लिया। अंग्रेजों ने बुद्धिमत्ता दिखाते हुए समझौते की शर्तों के अनुसार भड़ौंच से प्राप्त राजस्व का भाग शिन्दे को देकर उसके साथ अच्छे संबंध स्थापित कर लिये।

बड़ गोहांई
आसाम के अहोम राजाओं के दो शीर्षस्थ अधिकारियों में से एक का सरकारी पद नाम, जिसे स्वयं राजा के बाद सर्वोच्च अधिकार प्राप्त थे। दूसरा उच्च अधिकारी बूढ़ा गोहांई कहलाता था। इस पद पर पन्द्रह अहोम परिवारों का ही कोई व्यक्ति, जो अहोम अभिजात वर्ग में गिने जाते थे, पदासीन होता था। यह सामान्यतः वंशानुगत होता था किन्तु राजा को यह अधिकार प्राप्त था कि वह निर्धारित परिवार के किसी भी सदस्य को, जिसे वह पसन्द करे, चुन ले। यदि वह चाहे तो बड़-गोहांई को बर्खास्त भी कर सकता था। अहोम राज्य के एक भाग का प्रशासन बड़-गोहांई के अधीन था, जिसे प्रशासनिक, सैनिक तथा न्यायिक अधिकार प्राप्त थे। (ई. गेट कृत हिस्ट्री आफ आसाम)

बड़ बरुआ
अहोम राजा प्रताप सिंह (१६०३-४१ ई.) के राज्य में आसाम के उत्तरी भाग में स्थित कलियावड के पूर्व के क्षेत्र के लिए नियुक्त प्रशासक का पदनाम। इस पद पर सबसे पहले राजा के चाचा मोमाई तमूली की नियुक्ति हुई थी।

बड्डोवाल
२१ जनवरी १८४६ ई. को यहाँ सिखों के साथ हुई एक मुठभेड़ में ब्रिटिश सेना पराजित हो गयी, जिसका नेतृत्व सर हेनरी स्मिथ कर रहा था। एक सप्ताह बाद ही अलीवाल के युद्ध में सिख अंग्रेजों से हार गये।

बड़ोदा
गुजरात का एक महत्त्वपूर्ण नगर, मराठों ने सर्वप्रथम इस पर १७०६ ई. में आक्रमण किया। १७३२ ई. में पीलाजी गायकवाड़ ने, जो पेशवा बाजीराव प्रथम का अनुयायी और समर्थक था, गुजरात में अपनी सत्ता कायम की और बड़ोदा को सदर मुकाम बनाया। पीलाजी के पुत्र एवं उत्तराधिकारी दामाजी द्वितीय (१७३२-६८) के प्रशासनकाल में बड़ोदा का गौरव अधिक बढ़ा और यह गायकवाड़ों की राजधानी बन गया। दामाजी ने इसे भव्य इमारतों तथा प्रमुख संस्थाओं के निर्माण द्वारा आकर्षक बनाया। आजकल यहाँ एक विश्वविद्यालय भी है।

बदनचन्द्र
गौहाटी का (१८१०-२० ई. तक) बड़ फूकन (सुबेदार)। उसने प्रजा का बड़ी निर्दयता से दमन किया और जबरन धन वसूला। अन्त में स्थिति यहाँ तक पहुँची कि बड़ गुहांई (प्रधानमंत्री) पूर्णानन्द ने, जिसके पुत्र के साथ बदनचन्द्र की लड़की ब्याही थी, बदनचन्द्र को उसके पद से हटा दिया। उसे पकड़ने के लिए गौहाटी सिपाही भेजे गये। लेकिन बदनचन्द्र को अपनी पुत्री से इसकी सूचना पहले मिल गयी थी और वह सैनिकों के पहुँचने के पहले वहाँ से चला गया। बदनचन्द्र ने इसका बदला लेने का निश्चय किया। वह भाग कर कलकत्ता पहुँचा और वहाँ उसने गवर्नर-जनरल लार्ड मिंटो से मिलकर आसाम में अंग्रेजी फौज भेजने का अनुरोध किया। लेकिन मिंटो ने हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया।
इसके बाद बदनचन्द्र बर्मी शासक के दरबार में गया और उसे आसाम में बर्मी फौज भेजने के लिए राजी कर लिया। इस प्रकार १८१६ ई. में बर्मी फौज आसाम पर हमला करते हुए जोरहाट तक बढ़ गयी और गौहाटी में बदनचन्द्र को फिर से सूबेदार बना दिया। इसी बीच पूर्णानन्द की मृत्यु हो गयी और बदनचन्द्र ने बर्मी सेना को आसाम से लौट जाने के लिए राजी कर लिया और उसे हर्जाने के रूप में भारी रकम अदा की। इस प्रकार सफलता पाने के बाद बदनचन्द्र अहंकारी और निरंकुश हो गया। उसने अहोम राजा की माता और अनेक सरदारों को अपना विरोधी बना लिया। इनलोगों की शह पाकर बदनचन्द्र की हत्या कर दी गयी। उसने जो नीति अपनायी थी उसके फलस्वरूप १८१९ ई. में बर्मियों ने आसाम को विजय करके उसे अपने राज्य में मिला लिया।

बदन सिंह
भाऊ सिंह का पुत्र, जिसने अपनी सैनिक कुशलता, कूटनीति और विवाह सम्बन्ध द्वारा आगरा और मथुरा जिलों के पार्श्व में भरतपुर नामक एक जाट रियासत की स्थापना की। उसकी जन्मतिथि का पता नहीं है, मृत्यु १७५६ ई. में हुई।


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