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Bharatiya Itihas Kosh

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बेसेन्ट, श्रीमती एनी (१८४७-१९३३ ई.)
थियोसोफिकल विचारधारा की सुप्रसिद्ध प्रचारिका। लन्दन के विलियम पेजउड की पुत्री; अक्तूबर १८४७ ई. में जन्म। बीस वर्ष की उम्र में रेवरेंड फ्रैंक बेसेंट के साथ उनका विवाह हुआ, किन्तु यह विवाह-सम्बन्ध सुखदायी नहीं सिद्ध हुआ। अतः श्रीमती बेसेण्ट ने १८७३ ई. में अपने पति से सम्बन्ध विच्छेद कर लिया। अगले ग्यारह वर्षों तक चार्ल्स ब्राड़ला के घनिष्ठ सम्पर्क में रहकर वे राजनीतिज्ञ तथा स्वतन्त्र विचारों की प्रचारिका बन गयीं। इस दिशा में उन्होंने अनेक व्याख्यान दिये और 'अजैक्स' के उपनाम से लेख लिखे। धीरे-धीरे उनके विचार क्रान्तिकारी समाजवाद की ओर मुड़ गये। फलस्वरूप १८८९ ई. में उनके तथा चार्ल्स ब्राड़ला के बीच गम्भीर मतभेद उत्पन्न हो गया। तदनन्तर उनकी ट्टढ़ निष्ठा थियोसिफी (ब्रह्मविद्या) में हो गयी, वे हेलेने ब्लावत्सकी के निकट सम्पर्क में आयीं और भारत को उन्होंने अपना घर बना लिया। उन्होंने बनारस में सेन्ट्रल हिन्दू कालेज नाम से विशाल शिक्षाकेन्द्र स्थापित किया। १९०७ ई. में वे थियोसोफिकल सोसायटी की अध्यक्ष निर्वाचित हुईं। १९१६ ई. में उन्होंने इंडियन होमरूल लीग की स्थापना की और उसकी प्रथम अध्यक्ष बनीं। १९१७ ई. में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन की अध्यक्ष बनायो गयीं। बाद में उन्होंने अपने को यद्यपि कांग्रेस के गरमदल से अलग कर लिया था, तथापि भारत सरकार उन्हें खतरनाक व्यक्ति मानती थी और १९१७ ई. में उन्हें कुछ समय के लिए नजरबंद भी रखा गया। 'मान्टेग्यू सुधारों' की घोषणा होने पर श्रीमती बेसेन्ट ने पहले उनका समर्थन किया, किन्तु थोड़े समय के बाद उन्होंने उग्र राष्ट्रवादियों के दृष्टिकोण का जोरदार समर्थन आरम्भ कर दिया। इसी बीच उन्होंने अपने धर्मपुत्र जे. कृष्णमूर्ति को भावी विशवगुरु के रूप में प्रतिष्ठित किया और नये अध्यात्मवादी दल की स्थापना की। १९२६-२७ ई. में श्रीमती एनी बेसेन्ट ने कृष्णमूर्ति के साथ इंग्लैंड और अमेरिका का व्यापक भ्रमण किया और अपने जोशीले भाषणों में उनके नये मसीहा होने के दावे का समर्थन किया। भारत लौटने पर बालक कृष्णमूर्ति के पिता के साथ उनकी मुकदमेबाजी शुरू हो गयी। इस कांड से उनकी प्रतिष्ठा को काफी धक्का लगा। १९३३ ई. में भारत में उनका निधन हुआ। अपनी भाषण-पटुता, संगठन-क्षमता और स्वाधीनता प्रेम के कारण वे भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन की अग्रगी नेता बन गयीं, यह निश्चय ही एक अंग्रेज महिला के लिए अभूतपूर्व सम्मान था। प्रतिभा-सम्पन्न लेखिका और स्वतन्त्र विचारक के नाते उन्होंने ब्रह्म विद्या पर प्रचुर रूप में लिखा है। उन्होंने अपनी आत्मकथा १८९३ ई. में प्रकाशित की थी, और १९०२ ई. में प्रकाशित 'रिलीजस प्राबलेम इन इंडिया' (भारत में धार्मिक समस्या) उनकी अन्तिम महान् साहित्यिक कृति थी। 'हाऊ इंडिया राट फार फ्रीडम' में उन्होंने भारत को अपनी मातृभूमि बताया है।

बेस्ट, कप्तान
अंग्रेजों के लड़ाकू जहाज 'ड्रैगाँन' का कप्तान। नवम्बर १६१२ ई. में एक अन्य छोटे जहाज 'ओसियान्दर' के सहारे उसने हिन्द महासागर में पुर्तगाली बेड़े को, जिसमें चार बड़े और पचीस छोटे जहाज थे, हरा दिया। इसी घटना से भारतीय राजनीतिम अंग्रेजी जहाजी बेड़े का दबदबा छा गया, क्योंकि इस लड़ाई की खबर से मुगल बादशाह जहाँगीर का यह पुराना ख्याल जाता रहा कि यूरोपियन शक्तियों में पुर्तगाली सबसे शक्तिशाली हैं।

बैक्ट्रिया (बाख्त्री)
हिन्दू कुश और आक्सस नदी के बीच का क्षेत्र। यह क्षेत्र सीरिया के सिल्यूकीडियन साम्राज्य का अंग था, लेकिन २०२ ईसा पूर्व में यहाँ युथिडिमास नामक यवन राजा ने अपना स्वतन्त्र राज्य स्थापित किया। उसके उत्तराधिकारी डेमेट्रिअस ने अफगानिस्तान और पंजाब के क्षेत्र को जीत लिया। यूनानी इतिहासकारों ने उसे भारत का राजा लिखा है। उसने बैक्ट्रिया के यवनों और पश्चिमोत्तर भारत के लोगों में निकट सम्पर्क स्थापित कर दिया। शीघ्र ही उत्तर-पश्चिमी भारत के विभिन्न भागों में भारतीय-यवन राजाओं के छोटे-छोटे राज्य स्थापित हो गये, जिनमें मेनाण्डर सबसे अधिक विख्यात है। बैक्ट्रिया के साथ इस सम्पर्क के परिणामस्वरूप भारतीय कला पर यवन प्रभाव पड़ा और मूर्तिकला की गंधार शैली का विकास हुआ।

बैजाबाई महारानी
दौलतराव सिंधिया (दे.) की पत्नी। १८२७ ई. में दौलतराव की मृत्यु के बाद वह नाबालिग उत्तराधिकारी जनकोजीराव की संरक्षिका बनी। वह बड़ी महत्त्वाकांक्षी महिला थी और सारा राज्य-प्रबंध अपने नियंत्रण में रखना चाहती थी। इसी वजह से राज्य-प्रबंध में छल-कपट और गड़बड़ी बढ़ गयी और उसके परिणामस्वरूप १८३३ ई. में उसको राज्य से निकाल दिया गया।

बैरकपुर का विद्रोह
बैरकपुर छावनी में दोबार विद्रोह हुआ। पहल १८२४ ई. में और दूसरा १८५७ ई. में हुआ। यह छावनी हुगली के किनारे कलकत्ता से १५ मील उत्तरस्थित थी। यहाँ गवर्नर-जनरल का देहाती निवास-स्थान था और कम्पनी की कुछ रेजीमेन्टें भी यहाँ रहती थीं। १८२४ ई. में भारतीय सेना का एक दस्ता प्रथम आंग्ल बर्मी युद्ध (१८२४-२६ ई.) में लड़ने के लिए भेजा जानेवाला था। भारतीय सेना के सिपाही जो इस दस्ते में थे, उन्हें उस समय के नियमों के अनुसार अपनी यात्रा की व्यवस्था खुद करनी थी जो यदि असम्भव नहीं तो भी बहुत कठिन कार्य था। लेकिन इस कठिनाई को दूर करने के लिए कुछ नहीं किया गया। इसके अलावा हिन्दू सिपाही समुद्री यात्रा से भयभीत रहते थे, क्योंकि उनका विश्वास था कि समुद्री यात्रा करने से वे जातिच्युत हो जायेंगे। अतः ४७ वीं नेटिव इन्फेन्टरी तथा बैरकपुर स्थित कुछ अन्य रिसालों ने परेड के मैदान में आदेशों का पालन करने से इंकार कर दिया। पर अंग्रेज तोपचियों तथा इसके बंदूकधारी ब्रिटिश रिसालों को उन पर गोली वर्षा का आदेश दिया गया, जिससे परेड के मैदान में बूचड़खाने का दृश्य उपस्थित हो गया। इस घटना से ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेना के भारतीय सैनिकों में अंग्रेजों के विरुद्ध भारी कटुता फैल गयी। बैरकपुर में सिपाहियों की दूसरी बगावत २९ वीं नेटिव इन्फेन्टरी के एक सिपाही ने अपनी रेजिमेन्ट के यूरोपीय एड्जुटेन्ट को परेड मैदान पर सभी सहयोगियों के सामने काट डाला और कोई सिपाही अपने स्थान से हिला तक नहीं। तत्काल ब्रिटिश सैनिकों को बुलाया गया और विद्रोहियों को या तो मार डाला गया था उन्हें कठोर रूप में दंडित किया गया। इस बगावत से बैरकपुर स्थित भारतीय सिपाहियों में काफी उत्तेजना फैल गयी और अन्त में उसने व्यापक सिपाही-विद्रोह का रूप ग्रहण कर लिया, जिससे ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य की नींव हिल गयी।

बैरम खाँ
बादशाह हुमायूँ का सहयोगी तथा उसके नाबालिग पुत्र अकबर का वली अथवा संरक्षक। १५५६ ई. में हुमायूँ की मृत्यु होने पर बैरम खाँ ने अकबर को उसका उत्तराधिकारी तथा दिल्ली का बादशाह घोषित कर दिया, लेकिन शीघ्र ही दिल्ली उसके हाथ से निकल गयी। बैरम खाँ के सेनापतित्व में ही १५५६ ई. में पानीपत की दूसरी लड़ाई में अकबर की विजय हुई और दिल्ली के तख्त पर उसका अधिकार हुआ। इसके बाद चार वर्ष बाद तक बैरम खाँ अकबर का संरक्षक रहा और इस अवधि में मुगल सेनाओं ने ग्वालियर, अजमेर और जौनपुर राज्यों को जीत कर मुगल साम्राज्य में उन्हें शामिल कर लिया। बैरम खाँ ने मालवा जीतने की तैयारियाँ भी शुरू कर दीं। परन्तु इस बीच बहुत से दरबारी और स्वयं अकबर उसके विरुद्ध हो चुका था। अकबर १८ वर्ष का हो चुका था और उसके हाथ की कठपुतली बनकर नहीं रहना चाहता था। अतः १५६० ई. में उसने बैरम खाँ को बर्खास्त कर दिया। बैरम खाँ ने पहले तो उसकी आज्ञा चुपचाप मान ली और मक्का जाने की तैयारियाँ शुरू कर दी, परन्तु इसके बाद ही उसने बगावत का झंडा बुलन्द कर दिया। अकबर ने उसे परास्त कर दिया और उसके साथ दया का बर्ताव किया। उसने उसे मक्का जाने की इजाजत दे दी। परन्तु १५६१ ई. में मक्का जाते समय मार्ग में पाटन (गुजरात) में एक पठान ने उसकी हत्या कर दी। बाद में उसका पुत्र अब्दुर्रहमान अकबर का प्रमुख दरबारी बना।

बैर्ड, सर डेविड
लार्ड वेलेजली (१७९८-१८०५ ई.) के शासनकाल में कम्पनी की सेना का उच्च अधिकारी। १८०१ ई. में बैर्ड के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना लालसागर भेजी गयी जिससे मिस्र से फ्रांसीसियों को निकालने में मदद पहुँचायी जा सके। बैर्ड के काहिरा पहुँचने के पहले ही फ्रांसीसियों ने सिकन्दरिया में आत्मसमर्पण कर दिया था। लेकिन बैर्ड ने सेना का संचालन बड़ी योग्यता से किया, इस वजह से उसे 'सर' की उपाधि से विभूषित किया गया।

बोइन, बेनोय द (१७५१-१८३०)
सेवाय (फ्रांस) में जन्म। सैनिक का पेशा ग्रहण कर उसने १७७८ ई. में ईस्ट इंडिया कम्पनी की मद्रासी पलटन में नौकरी कर ली। कुछ समय बाद यहाँ से निकल कर महादजी शिन्दे के यहाँ नौकर हो गया और शिन्दे की सेनाओं को यूरोपीय युद्धकला की शिक्षा देने लगा। इस कार्य के लिए उसे बहुत अधिक वेतन मिलता था। बोइन की ही सहायता से शिन्दे ने जून १७९० ई. में पाटन का युद्ध जीता और मेड़ता के युद्ध (सितम्बर १७९० ई.) में पठानों, राजपूतों और मुगलों को एक साथ पराजित किया। इसके बाद वह शिन्दे का सेनाध्यक्ष हो गया। उसने लखेरी के युद्ध (सितम्बर १७९३ ई.) में होल्कर को पराजित किया। १७९४ ई. में महादजी शिन्दे की मृत्यु के पश्चात् बोइन ने उसके उत्तराधिकारी दौलतराय शिन्दे की सेवा शुरू की, लेकिन स्वास्थ्य खराब हो जाने के कारण दिसम्बर १७९५ ई. में त्यागपत्र दे दिया। दूसरे वर्ष वह लंदन होकर फ्रांस गया तथा वहीं बस गया। १८३० ई. में मृत्यु के उपरान्त उसने २ करोड़ फ्रैंक की सम्पत्ति छोड़ी।

बोगाज कोई
एशिया माइनर में एक स्थान, जहाँ महत्त्वपूर्ण पुरातत्त्व सम्बन्धी अवशेष प्राप्त हुए हैं। वहाँ के शिलालेखों में जो चौदहवीं शताब्दी ई. पू. के बताये जाते हैं, इन्द्र, दशरथ, आर्त्ततम आदि आर्यनामधारी राजाओं का उल्लेख है और इन्द्र, वरुण और नासत्य आदि आर्य देवताओं से संधियों का साक्षी होने की प्रार्थना की गयी है। इस प्रकार बेगाज कोई से आर्यों के निष्क्रमण मार्गों का संकेत मिलता है। (हाल-हिस्ट्री आफ इजिप्ट)

बोंग्ले, जार्ज
ईस्ट डिया कम्पनी का बंगाल में स्थित एक अधिकारी, जिसे १७७४ ई. में गवर्नर-जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने व्यावसायिक सुविधाएँ प्राप्त करने के लिए पहले पहल तिब्बत भेजा था। उसे अपने उद्देश्य में नगण्य सफलता मिली।


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