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Bharatiya Itihas Kosh

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बिहारी लाल
तुलसी दास के बाद सत्रहवीं शताब्दी का सर्वाधिक ख्यातिप्राप्त हिन्दी कवि। इसने अपनी रचना 'सतसई' १६६२ ई. में पूरी की।

बीकानेर
राजस्थान का एक नगर तथा पुरानी रियासत। इसे राठौर सरदार बीकाजी ने स्थापित किया था। दिल्ली से यह ढ़ाई सौ मील दूर थार रेगिस्तान की सीमा पर स्थित है। १५७० ई. में यह राज्य सम्राट् अकबर की अधीनता में आया और १८१८ ई. में अंग्रेजों का आश्रित बनने तक मुगल साम्राज्य का हिस्सा रहा। बीकानेर ऊँटों के लिए प्रसिद्ध है। प्रथम विश्वयुद्ध में बीकानेर के महाराज गंगासिंह ने बीकानेरी ऊँटों का रिसाला संगठित किया था जो सोमालीलैण्ड में बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ। महाराज बीकानेर को इसके पुरस्कारस्वरूप पुराने राष्ट्रसंघ (लीग आफ नेशन्स) में भारत का प्रतिनिधि नियुक्त किया गया था। महाराज बीकानेर नरेन्द्र मंडल (चेम्बर आफ प्रिन्सेज) के आरम्भ से ही एक महत्त्वपूर्ण सदस्य रहे। स्वाधीनता के उपरान्त बीकानेर रियासत भारत में विलीन हो गयी।

बीजापुर
दक्षिण में भीमा और कृष्णा के दोआब में स्थित एक मध्यकालीन मुस्लिम राज्य। पन्द्रहवीं शताब्दी के अन्त में जब बहमनी सल्तनत पाँच शाखाओं में विभक्त हो गयी, तब उनमें यह सबसे महत्त्वपूर्ण शाखा बनी। पाँचों सल्तनतों में यह सबसे दक्षिण में थी। इस राज्य की स्थापना यूसुफ आदिलशाह ने की थी, जो मूल रूप में गुलाम था, लेकिन अपनी योग्यता के बल पर बीजापुर में बहमनी सुल्तानों का हाकिम बना दिया गया। १४८९ ई. में उसने अपने को स्वतन्त्र घोषित कर आदिलशाही राजवंश के अन्तर्गत बीजापुर को पृथक् राज्य बना लिया। इसके नौ सुल्‍तान हुए, यथा- यूसुफ (१४९०-१५१०), इस्‍माईल (१५१०-३४), मल्लू (१५३४-३५), इब्राहीम प्रथम (१५३५-५७), अली (१५५७-८०), इब्राहीम द्वितीय (१५८०-१६२६), मुहम्मद (१६२६-५६), अली द्वितीय (१६५६-७६) तथा सिकन्दर (१६७१-८८)।
बीजापुर को आरम्भ से ही अपने पड़ोसियों, विशेषकर हिन्दू राज्य विजयनगर से संघर्ष करना पड़ा। गोआ का बन्दरगाह, जो बीजापुर राज्य में स्थित था, १४१० ई. में पुर्तगालियों के अधिकार में चला गया। १५३६ ई. में बीदर, अहमदनगर तथा गोलकुंडा ने मिलकर बीजापुर पर आक्रमण कर दिया, लेकिन उन्हें परास्त होना पड़ा। इसका बदला लेने के लिए बीजापुर के सुल्तान ने विजयनगर से समझौता कर लिया और दोनों राज्यों की मिलीजुली सेना ने अहमदनगर में लूटपाट की। लेकिन छह वर्ष बाद बीजापुर का बीदर, अहमदनगर तथा गोलकुंडा के साथ विजयनगर के विरुद्ध गठबंधन हो गया और १५६५ ई. में तालीकोट की लड़ाई में विजयनगर राज्य को नष्ट कर दिया गया। लेकिन १५७० ई. में बीजापुर का सुल्तान अहमदनगर के सुल्तान, कालीकट के जमोरिन तथा अचिन के राजा की सहायता के बल पर भी पुर्तगालियों को खदेड़ कर गोआ को पुनः प्राप्त करने में विफल रहा। सत्रहवीं शताब्दी में बीजापुर को दो शत्रुओं का सामना करना पड़ा -मुगल बादशाह, जिसने उत्तर से चढ़ाई बोल दी थी तथा शिवाजी, जिनके नेतृत्व में मराठा शक्ति का उत्कर्ष हो रहा था। सातवें सुल्तान ने शाहजहाँ को वार्षिक खिराज देने का वायदा कर मुगलों से समझौता कर लिया किन्तु न तो वह और न उसके उतराधिकारी शिवाजी का बढ़ाव रोक सके। शिवाजी की शक्ति का उदय होने से बीजापुर सल्तनत काफी कमजोर हो गयी। अन्तमें १६७६-८८ ई.) के शासनकाल में बीजापुर को बाध्य होकर मुगल बादशाह औरंगजेब के आगे १८ महीने के घेरे के बाद आत्मसमर्पण कर देना पड़ा। सुल्तान सिकन्दर, को कैदखाने में डाल दिया गया, जहाँ पन्द्रह वर्ष बाद उसकी मृत्यु हो गयी। उसके पतन के बाद बीजापुर का स्वाधीन अस्तित्व समाप्त हो गया।
बीजापुर सल्तनत के संस्थापक शिया मतावलम्बी थे। यह परपरा सल्तनत के चौथे सुल्तान इब्राहीम प्रथम (१५३५-५७) के शासनकाल तक चली। सुल्तान इब्राहीम प्रथम पुनः सुन्नी मतावलम्बी हो गया। लेकिन उसका पुत्र और उत्तराधिकारी अली (१५५७-८०) फिर शिया हो गया। आदिलशाही सुल्तान सामान्यतः सहिष्णु थे। यूसुफ आदिलशाह ने एक मराठी महिला से शादी की थी, जो उसके पुत्र और उत्तराधिकारी इस्माईल आदिलशाह की माँ बनी। हिन्दुओं को उत्तरदायित्वपूर्ण पदों पर नियुक्त किया जाता था और राज्य का हिसाब-किताब और पत्र-व्यवहार मराठी में किया जाता था। आदिलशाह सुल्तान कला और साहित्य का संरक्षक था। प्रसिद्ध इतिहासकार मुहम्मद कासिम उपनाम फरि‍स्ता ने छठे सुल्तान इब्राहीम द्वितीय (१५८०-१६२६ ई.) की संरक्षकता में अपने ग्रंथों की रचना की थी। बीजापुर में एक अच्छा पुस्तकालय था, जिसकी कुछ पुस्तकें अब भी ब्रिटिश संग्रहालय में उपलब्ध हैं।
बीजापुर में ललित कला तथा वास्तुकला की एक शैली विकसित हुई। इस काल की इमारतें अपनी अभिकल्पना और भव्यता के लिए प्रसिद्ध हैं। सुल्तान यूसुफ अली, इब्राहीम द्वितीय तथा मुहम्मद शाह ने अनेक इमारतें बनावायीं। बीजापुर नगर का विशाल परकोटा, जिसकी परिधि सवा छह मील है, मस्जिद, जिसमें एक साथ पाँच हजार लोग नमाज पढ़ सकते हैं, सभाकक्ष जिसे गगनमहल कहते हैं, इब्राहीम द्वितीय की कब्र तथा मुहम्मद शाह का मकबरा, जिसकी गुम्बज संसार की दूसरी सबसे बड़ी गुम्बज है; बीजापुर की भूतकालीन भव्यता के कुछ बचे हुए कीर्तिस्तम्भ हैं। (सेवेल- ए फारगाटेन एम्पायर; मिडोज टेलर-मैन्युअल आफ इण्डियन हिस्ट्री; हेनरी कजिन्स-बीजापुर एण्ड इट्स आर्कीटेक्चरल रुयेन्स, विद एन हिस्टोरिकल आउटलाइन आफ आदिल शाह डाईनेस्टी)

बीदर
दक्षिण (आन्ध्र) का एक पुराना नगर, जो आधुनिक हैदराबाद नगर से ज्यादा दूर नहीं है। यह प्राचीन हिन्दू राज्य बारंगल के अन्तर्गत था। इसे पहले अलाउद्दीन खिलजी ने रौंद डाला और बाद में सुल्तान ग्यासउद्दीन तुगलक के शासनकाल में उसके पुत्र जूना खाँ ने इसे दिल्ली की सल्तनत के अधीन कर दिया। १३४७ ई. में बहमनी सल्तनत की स्थापना होने पर बीदर उसका अंग बन गया और नवें सुल्तान अहमद शाह के शासनकाल में उसकी राजधानी हो गया। १४९२ ई. में बहमनी सल्तनत के छिन्न-भिन्न होने पर जब कासिम बरीद ने स्वतंत्र बीदर सल्तनत की स्थापना की, तब यह उसकी राजधानी बनाया गया। १५६५ ई. में विजयनगर के विरुद्ध बीजापुर, अहमदनगर और गोलकुण्डा के सम्मिलित अभियान में यह भी शामिल था और तालीकोट की लड़ाई में इन सबने सम्मिलित रूप से विजय प्राप्त की, लेकिन १६१९ ई. में इसपर बीजापुर सल्तनत ने कब्जा कर लिया और इसकी स्वतन्त्रता समाप्त हो गयी। बरीदशाही सुल्तानों द्वारा निर्मित कुछ उल्लेखनीय इमारतों के अवशेष बीदर में आज भी मौजूद हैं। (मिडोज टेलर-मैन्युअल आफ इण्डियन हिस्ट्री)

बीबीगढ़
कानपुर में स्थित एक इमारत, जिसमें १८५७ ई. के सिपाही-विद्रोह के दौरान २११ अंग्रेज स्त्री-पुरुषों और बच्चों को, जिन्होंने २६ जून को आत्मसमर्पण किया था, १४ जुलाई को नाना साहब और तात्या टोपे के आदेशानुसार मार डाला गया और उनके शवों को करीब के कुऐ में फेंक दिया गया। इससे पूर्व बनारस तथा इलाहाबाद में अंग्रेजों ने गाँव के गाँव फूँक दिये थे। यह उसी के बदले की काररवाई थी। इसके फलस्वरूप ब्रिटिश सेनाओं ने भी भारतीयों पर नृशंस अत्याचार किये।

बीरबल, राजा
एक राजपूत सरदार, जो स्वेच्छा से बादशाह अकबर की सेवा में आ गया और उसका मुँह-लगा स्नेह पात्र बन गया था। अकबर ने उसे 'राजा' की पदवी दी। बीरबल उतना प्रतिभाशाली सेनापति नहीं था, जितना प्रतिभाशाली कवि। अकबर ने उसे 'कविराय' की उपाधि से सम्मानित किया था। वह १५८६ ई. में पश्चिमोत्तर सीमा के यूसुफजाई कबीले पर चढ़ाई करने के लिए मुगल सेना का नायक बनाकर भेजा गया और युद्ध में मारा गया।

बुक्क प्रथम
संगम का पुत्र, अपने भाई हरिहर प्रथम के साथ १३३६ ई. में उसने विजयनगर की स्थापना की। हरिहर प्रथम के निधन के बाद १३५४ ई. से १३७७ ई. तक मृत्युपर्यन्त वह विजयनगर का शासन करता रहा। उसके जीवन का अधिकांश भाग बहमनी सुल्तानों से युद्ध करने में व्यतीत हुआ। उसने अपना एक दूतमंडल चीन भी भेजा था।

बुक्क द्वितीय
बुक्क प्रथम का पौत्र। विजयनगर के राजसिंहासन पर बैठाये जाने पर उसके भाई विरूपाक्ष ने उसका विरोध किया था। वह केवल दो वर्ष (१४०४-०६ ई.) राज्य कर सका।

बुद्ध, गौतम
बौद्ध धर्म के सुप्रसिद्ध संस्थापक। बस्ती जिले (उत्तर प्रदेश) के पास आधुनिक नेपाल राज्य में स्थित कपिलवस्तु के क्षत्रिय राजपरिवार में उनका जन्म हुआ। उनके पिता का नाम शुद्धोधन और माता का नाम माया देवी था। शिशु-जन्म के उपरांत माता की मृत्यु हो गयी और बालक का नाम सिद्धार्थ रखा गया। उनका लालन-पालन उनकी मौसी और विमाता प्रजापति गौतमी ने किया। उनके गोत्र का नाम गौतम था, शाक्य जाति में उत्पन्न होने के कारण वे शाक्य सिंह और बाद में शाक्य मुनि कहलाये। सोलह वर्ष की उम्र में उनका विवाह यशोधरा से (जिन्हें भद्द कच्छना, सुभद्रका, बिम्बा अथवा गोपा भी कहते हैं) कर दिया गया। अगले तेरह वर्षों तक सिद्धार्थ ने अपने पिता के महल में राजसी जीवन व्यतीत किया। किसी दिन भ्रमण के समय वृद्धावस्था, रोग तथा मृत्यु के दर्शन हो जाने पर उन्होंने सांसारिक सुखों की निस्सारता का अनुभव इतनी तीव्रता से किया कि जिस रात उनके पुत्र का जन्म हुआ, उसी रात पिता के ऐश्वर्यपूर्ण राजप्रासाद, प्रिया एवं सुन्दर पत्नी तथा नये पुत्र का परित्याग कर दिया। उन्होंने परिव्राजक भिक्षु का जीवन अपना कर उस मार्ग की खोज शुरू कर दी जिससे रोग, वृद्धावस्था तथा मृत्यु की पीड़ा से छुटकारा पाया जा सके। इस महान् त्याग के समय गौतम की अवस्था केवल २९ वर्ष थी।
प्रथम एक वर्ष तक उन्होंने दर्शन का अध्ययन किया, किन्तु उससे उनकी शंकाओं का कोई समाधान नहीं हुआ। तत्पश्चात् अगले पाँच वर्षों तक उन्होंने इस आशा में कि मुक्ति का मार्ग प्राप्त हो सकेगा, कठोर तप किया। लेकिन वह निष्फल ही रहा। तब एक दिन जब वे आधुनिक बोध गया में नैरज्जना नदी के तट पर पीपल वृक्ष के नीचे ध्यानावस्था में बैठे हुए थे, बुद्धत्व लाभ हुआ। इसके बाद वे बुद्ध के नाम से विख्यात हो गये और उन्होने आजीवन सत्य का जिस रूप में साक्षात्कार किया था, उसका उपदेश करने का संकल्प किया। उन्होंने वाराणसी के निकट सारनाथ के मृगवन में अपना पहला धर्मोपदेश किया, जहाँ पाँच भिक्षु उनके अनुयायी हो गये। उपरांत अगले ४५ वर्षों तक बुद्ध उत्तर प्रदेश तथा बिहार में पदयात्रा करके धर्मोपदेश करते रहे। उन्होंने जाति-पांति का कोई भेदभाव किये बगैर राजपुत्रों से लेकर किसानों तक को अपना अनुयायी बनाया, भिक्षु संघ में संगठित किया, उसके नियम निश्चित किये और सहस्त्रों नर-नारियों को अपना मतावलम्बी बनाया। उनके द्वारा प्रवर्तित धर्म बाद में बौद्ध धर्म के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उनका, निर्वाण ८० वर्ष की आयु में देवरिया जिले के कुशीनगर अथवा कसिया में हुआ। उनके निर्वाण की तिथि जन्म तिथि के सदृश अभी तक सही निश्चित नहीं हो सकी है, यद्यपि यह सभी स्वीकार करते हैं कि वे मगध के राजा बिम्बसार तथा अजातशत्रु के समकालीन थे और अजातशत्रु के शासनकाल में ही उनकी मृत्यु हुई। चीन की जनश्रुति के अनुसार बुद्ध का निधन ४८६ ई. पू. में हुआ था। इस प्रकार उनका जन्म अस्सी वर्ष पूर्व ५६६ ई. पू. में सिद्ध होता है। धर्म-संस्‍थापक के रूप में गौतम बुद्ध का स्थान अप्रतिम है। सर्वप्रथम वे निश्चित रूप से ऐतिहासिक व्यक्ति हैं। दूसरे, उन्होंने लोकोत्तर पुरुष होने का कोई दावा नहीं किया और अपनी पूजा को सब प्रकार से हतोत्साहित किया। उनका मात्र इतना दावा था कि मुझे सम्यक् सम्बोधि-लाभ हुआ है। इस सम्बन्ध में भी उनकी यह मान्यता थी कि पुरुषार्थ करने पर किसी को भी बोधि-लाभ हो सकता है। तीसरे, वे पहले धर्म संस्थापक थे, जिन्होंने भिक्षु संघ संगठित किया और शांतिमय तरीके से समता, प्रेम और दया के संदेश का प्रचार करके लोगों को अपने धर्म में दीक्षित किया। उन्होंने सर्वोपरि बुद्धिवाद को स्थान दिया और अपने अनुयायियों को समझाया कि वे किसी बात को उस समय तक सत्य के रूप में स्वीकार न करें, जब तक वह तर्कसंगत न हो। उन्होंने विश्वबन्धुत्व का केवल उपदेश ही नहीं दिया, वरन् आजीवन उसका आचरण किया और उन सभी को बिना जाति या वर्ण के भेदभाव के, अपने शिष्यों के रूप में स्वीकार किया जो उनका धर्मोपदेश सुनने के लिए तैयार थे। इस प्रकार उन्होंने एक ऐसे धर्म की संस्थापना की, जो भारत की सीमाएँ लाँघकर चारों ओर के देशों में फैल गया। फलतः वह संसार के महान् धर्मों में अन्यतम माना जाता है। (ओल्डेनबर्ग-बुद्ध; ई. जे. थामस-लाइफ आफ बुद्ध; एडविन आर्नोल्ड-लाइट आफ एशिया)

बुद्ध गुप्त
गुप्त राजवंश की मुख्य शाखा का अन्तिम सम्राट् (४७६-९५ ई..)। इसने गुप्त साम्राज्य की अखण्डता बनाये रखने का भारी प्रयास किया। इसकी मृत्यु के बाद तोरमाण तथा उसके पुत्र मिहिरगुल के नेतृत्व में हूणों के आक्रमण के कारण गुप्त साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया।


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