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Bharatiya Itihas Kosh

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पुर्तगाली
वास्को द गामा के नेतृत्व में ये लोग चार जहाजों पर सवार होकर २० मई १४९८ ई. को भारत पहुँचे। वे समुद्रमार्ग से आशा अंतरीप का चक्कर लगाकर भारत पहुँचनेवाले पहले यूरोपीय व्यापारी थे। उन्होंने अपने जहाजों का लंगर कालीकट में डाला। वहाँ के हिन्दू राजा ने, जिसे जमोरिन कहते थे, उनका स्वागत किया। वे वहाँ से कोचीन और कन्नानोर गये और सकुशल पुर्तगाल वापस लौट गये। पुर्तगाली भाग्यवशात् बड़े अच्छे मौके पर भारत आये थे, उस समय उत्तरी भारत में दिल्ली की सल्तनत और दक्खिन में बहमनी राज्य दोनों विघटन की अवस्था में थे। उस काल में भारत जिन राज्यों में विभाजित था, उनमें से किसी के पास नौसेना नहीं थी। किसी राज्य ने नौसेना संगठित करने का विचार तक नहीं किया था।इसलिए भारत में पुर्तगालों के बढ़ाव में सिर्फ वे अरब सौदागर बाधक थे जिनके हाथ में भारत का पश्चिम से होनेवाला सारा व्यापार था। वास्को द गामा जब १५०२ ई. में दुबारा आया तब जमोरिन से उसका संघर्ष हो गया, क्योंकि उसने अरब सौदागरों के हाथ से सारा व्यापार छीनकर पुर्तगालियों के हाथ में सौंप देने से इनकार कर दिया। किन्तु भारत के साथ पुर्तगालियों का व्यापार बढ़ता रहा और १५०५ ई. में डोम फ्रांसिस्को द आलमीदा (दे.) को भारत में पहला पुर्तगाली वाइसराय (प्रतिनिधि) नियुक्त किया गया। १५०८ ई. में उसने अरब सागर में एक नौसैनिक लड़ाई में मित्र और गुजरात के सुल्तानों के एक संयुक्त बेड़े को हरा दिया और इस प्रकार समुद्री मार्गों पर पुर्तगाली प्रभुत्व स्थापित कर लिया।इसके फलस्वरूप अगले पुर्तगाली गवर्नर आलबुकर्क को पश्चिम से हिन्द महासागर में प्रवेश करने के सभी मार्गों पर अपने अड्डे स्थापित करने तथा अरबों के जहाजों को समुद्र से मार भगाने में सफलता प्राप्त हुई। उसने १५१० ई. में बीजापुर के सुल्तान से गोआ का टापू छीन लिया। आलबुकर्क ने १५११ ई. में मलक्का पर तथा १५१५ ई. में ओर्मुजपर भी अधिकार कर लिया। इससे पहले अदन पर अधिकार करने के प्रयत्न में वह विफल रहा था। पुर्तगालियों ने गोआ के साथ-साथ भारत के पश्चिमी तट पर डामन और डय्यू नामक दो और स्थानों पर कब्जा कर लिया और इस प्रकार भारत में एक प्रकार से अपना छोटा-सा साम्राज्य स्थापित कर लिया, जिस पर वे लोग अब तक शासन करते रहे। भारतीय बस्तियों पर उनका शासन अत्यन्त दमनकारी रहा। उन्होंने विर्धमियों पर, विशेषरूप से मुसलमानों पर क्रूर अत्याचार किये और उनको दंडित करने के लिए धार्मिक अदालतों की स्थापना की। पुर्तगाली संख्या में बहुत थोड़े थे जो उनके साम्राज्य के प्रसार में सबसे बड़ी कमी थी। आलबुकर्क ने इस बाधा को दूर करने के लिए पुर्तगाली नाविकों को अपहृत भारतीय विवाहिता स्त्रियों तथा कन्याओं से विवाह करने के लिए प्रोत्साहित किया। उसका ख्याल था कि इस प्रकार से वर्णसंकरों की एक जाति उत्पन्न करके पुर्तगाली भारत में अपना शासन बनाये रखने में सफल हो जायेंगे, किन्तु उसका यह मनोरथ पूरा न हुआ।

पुलकेशी प्रथम
दक्षिण में वातापी अथवा बादामी में चालुक्य वंश (दे.) का प्रवर्तक। वह छठी शताब्दी के लगभग मध्यकाल में हुआ था।

पुलकेशी द्वितीय
पुलकेशी प्रथम का पौत्र तथा चालुक्य वंश (दे.) का चौथा राजा, जिसने ६०९-४२ ई. तक राज्य किया। वह महाराजाधिराज हर्षवर्धन का समसामयिक तथा प्रतिद्वन्द्वी था। उसने ६२० ई. में दक्षिण पर हर्ष का आक्रमण विफल कर दिया। वह महान् योद्धा था और उसने गुजरात, राजपूताना तथा मालवा को विजय किया। उसने कृष्णा और गोदावरी नदियों के बीच स्थित वेंगि का राज्य जीता और अपने भाई कुब्ज विष्णुवर्धन (दे.) को वहाँ अपना प्रतिनिधि नियुक्त किया।

पुलिस, भारतीय
सर्वप्रथम ब्रिटिश भारत में इस विभाग की स्थापना गवर्नर-जनरल लार्ड कार्नवालिस (१७८६-९३ ई.) ने की। कलकत्ता, ढाका, पटना तथा मुर्शिदाबाद में चार अधीक्षकों के अधीन पुलिस रखी गयी। क्रमशः प्रत्येक जिले में एक पुलिस अधीक्षक की नियुक्ति हुई। उसके अधीन प्रत्येक सब-डिवीजन में एक उप-पुलिस अधीक्षक, प्रत्येक सर्किल में एक पुलिस इंसपेक्टर तथा प्रत्येक थाने में एक थानाध्यक्ष होता था। थानाध्यक्ष के अधीन कई कांस्टेबिल होते थे। इन सबको राज्य से वेतन दिया जाता था और वे सामूहिकरूप से अपने-अपने क्षेत्र में शांति और व्यवस्था बनाये रखने के लिए जिम्मेदार होते थे। गाँवों में चौकीदार रखे जाते थे जिन्हें सरकार मामूली वेतन देती थी। उनका काम अपने क्षेत्र के बदमाशों पर नजर रखना और कोई दंडनीय अपराध होने पर उसकी सूचना थानाध्यक्ष को देना होता था। कलकत्ता, बम्बई तथा मद्रास के प्रेसीडेंसी नगरों में पुलिस कमिश्नर के अधीन एक संयुक्त पुलिसदल होता था। पुलिस कमिश्नर सीधे पुलिस विभाग से सम्बन्धित मंत्री के अधीन होता था और कानून तथा व्यवस्था बनाये रखना तथा विभागीय प्रशिक्षण प्रदान करना उसकी जिम्मेदारी होती थी। अब भारतीय प्रशासकीय सेवा के सदस्यों की भाँति पुलिस अधीक्षकों की भरती भी मुख्यरूप से अखिल भारतीय प्रतियोगिता परीक्षा के आधार पर होती है, किन्तु अभी तक कोई अखिल भारतीय पुलिस सेवा नहीं गठित की गयी है।

पुष्यगुप्त
एक वैश्य, जिसे चंद्रगुप्त मौर्य (दे.) ने सौराष्ट्र में अपना राष्ट्रीय प्रतिनिधि नियुक्त किया था, जिसने वहाँ की एक नदी पर बाँध बनाकर प्रसिद्ध सुदर्शन झील का निर्माण कराया।

पुष्यभूति वंश
छठी शताब्दी ई. में दिल्ली के निकट थानेश्वर में पुष्यभूति से, जो शिव का उपासक था, इस वंश का प्रारम्भ हुआ। इस वंश में तीन राजा हुए--प्रभाकरवर्धन और उसके दो पुत्र राज्यवर्धन तथा हर्षवर्धन। प्रभाकरवर्धन (दे.) की मृत्यु पर उसके सिंहासन पर उसका बड़ा पुत्र राज्यवर्धन (दे.) बैठा। किन्तु राज्याभिषेक के बाद ही राज्यवर्धन को युद्धों में फँस जाना पड़ा और उसका वध कर दिया गया। तब उसका यशस्वी छोटा भाई हर्षवर्धन (दे.) (६०६-४७ ई.) शासक हुआ, जिसने चालीस वर्ष तक राज्य करके अपनी कीर्ति का विस्तार किया। वह निस्संतान था, अतः उसकी मृत्यु के साथ पुष्यभूति वंश का अन्त हो गया।

पुष्यमित्र
एक जनजाति, जिसका विकास और निवास अज्ञात है। पाँचवीं शताब्दी के प्रारम्भ में कुमारगुप्त प्रथम (दे.) के राज्यकाल में पुष्यमित्रों ने गुप्त साम्राज्य पर आक्रमण कर दिया। युवराज स्कन्दगुप्त (दे.) ने उन्हें परास्त कर दिया, परन्तु इसके लिए उसे भयंकर युद्ध करना पड़ा और कुछ रातों उसे जमीन पर हाथों का तकिया लगाकर सोना पड़ा। गुप्त साम्राज्य के पतन का एक कारण पुष्यमित्रों का आक्रमण भी था।

पुष्यमित्र शुंग
मौर्यवंश को पराजित करनेवाला तथा शुंगवंश (लगभग १८५ ई. पू. ) का प्रवर्तक। वह जन्म से ब्राह्मण और कर्म से क्षत्रिय था। मौर्यवंश के अंतिम राजा बृहद्रथ ने उसे अपना सेनापति नियुक्त कर दिया। बृहद्रथ जब एक सैन्य-प्रदर्शन का निरीक्षण कर रहा था, पुयमित्र ने उसे मरवा दिया और स्वयं सिंहासन पर बैठ गया। उसने ३८ वर्ष तक राज्य किया। यह सरल कार्य नहीं था। साम्राज्य पर दक्षिण-पूर्व से उड़ीसा के राजा खारवेल (दे.) ने तथा उत्तर से भारतीय यवन राजा मिनाण्डर (दे.) ने आक्रमण किया। पुष्यमित्र ने दोनों आक्रमणों को विफल कर दिया, उसने विशाल साम्राज्य को खंडित नहीं होने दिया और अपनी विजयों के उपलक्ष्य में लम्बे अंतराल के बाद अश्वमेध यज्ञ (दे.) का अनुष्ठान किया। अशोक के प्रभाव से अश्वमेध जैसे हिंसाप्रधान यज्ञों की परिपाटी विलुप्त हो गयी थी। पुष्य मित्र ने हिन्दू धर्म को पुनरुज्जीवित किया और राजभाषा के रूप में संस्कृत की फिर से प्रतिष्ठापना की। प्रसिद्ध संस्कृत वैयाकरण पतंजलि उसी के कालमें हुए।

पूना
महाराष्ट्र का प्रमुख नगर, जो शिवाजी (दे.) तथा उनके पुत्र एवं उत्तराधिकारी शम्भूजी (दे.) की राजधानी था। शाहू (दे.) अपनी राजधानी यहाँ से उठाकर सतारा ले गया, परन्तु १७४९ ई. में उसकी मृत्यु के बाद पेशवा बालाजी बाजीराव (दे.) ने इसे फिर मराठा राज्य के हार जाने तथा अपदस्थ कर दिये जाने के बाद इसका मान घट गया। पूना अब भी महत्त्वपूर्ण नगर है और यहाँ एक विश्वविद्यालय स्थित है। गांधीजी ने ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैमजे मैकडोनाल्ड का साम्प्रदायिक निर्णय (दे.) रद्द कराने के लिए १९३२ ई. का प्रसिद्ध उपवास पूना में ही किया था।

पूना की संधि
१९३२ ई. में पेशवा बाजीराव द्वितीय (दे.) और अंग्रेजों के बीच १८०२ ई. की बसई की संधि (दे.) के स्थान पर की गयी। इस संधि के द्वारा पेशवा ने अपने दरबार से समस्त विदेशी प्रतिनिधियों को निकाल दिया, पूना में ब्रिटिश सेना रखने का खर्च पूरा करने के लिए कुछ क्षेत्र सौंप दिये तथा मराठा संघ का नेतृत्व त्याग दिया। बाद में बाजीराव द्वितीय को पश्चाताप हुआ कि यह संधि उसके ऊपर जबर्दस्ती थोप दी गयी है। उसने १८१८ ई. में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया, परन्तु उसे पराजित होकर आत्मसमर्पण करना पड़ा और १८१८ ई. में उसे गद्दी से उतार दिया गया।


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