दुर्योधन- 'महाभारत' महाकाव्य में वर्णित कौरवों का सबसे बड़ा भाई, जिसका युद्ध पाण्डवों से हुआ। युद्ध में दुर्याधन पराजित हुआ और मारा गया। दुर्रानी - 'अब्दालीवंश का दूसरा नाम। जब अफगानिस्तान के सुल्तान अहमदशाह (१७४७-७३ ई.) ने नादिरशाह की हत्या के पश्चात् शासन-भार ग्रहण किया, उसने गद्दी पर बैठते ही दुर्र-ये-दुर्रान की पदवी धारण की। तभी से अब्दाली खानदान को 'दुर्रानी' कहा जाने लगा।
दुर्लभराय
नवाब सिराजुद्दौला (दे.) का विश्वासघाती सेनापति, जिसने मीर जाफर के सहयोग से अपने स्वामी के विरुद्ध अंग्रेजों से साँठगाँठ की। उसने और मीर जाफर ने अंग्रेजों से १० जून १७५७ ई. को एक गुप्त संधि की। इसका फल यह हुआ कि २३ जून १७५७ ई. को जब सिराजुद्दौला और अंग्रेजों के बीच विख्यात पलासी-युद्ध हुआ, दुर्लभराय और मीर जाफर ने लड़ाई में कोई भाग नहीं लिया। इस प्रकार सिराजुद्दौला पराजित हुआ।
दुर्लभवर्धन
सातवीं शताब्दी ई. में कश्मीर के कर्कोट वंश का प्रवर्तक। इस वंश ने ८५५ ई. तक कश्मीर पर शासन किया। इसके बाद उत्पलवंश का शासन स्थापित हुआ। कर्कोट वंश के प्रसिद्ध राजाओं में ललितादित्य (दे.) तथा जयापीड विनयादित्य (दे.) का नाम लिया जाता है।
देरोज़ियो, हेनरी लुई विवियन
एक पुर्तगाली भारतीय परिवार में सन् १८०९ ई. में कलकत्ता में पैदा हुआ। उसने अपने पिता के कार्यालय में क्लर्क की हैसियत से कार्य आरम्भ किया। बाद में वह अध्यापक और पत्रकार बन गया। १८२६ ई. में वह कलकत्ता के हिन्दू कालेज में अध्यापक नियुक्त हुआ, किन्तु अप्रैल १८३१ ई. में उसे इस्तीफा देने के लिए बाध्य किया गया। इन पाँच वर्षों के अध्यापन काल में हिन्दू कालेज के छात्रों पर उसका असाधारण प्रभाव जम गया। इन छात्रों के माध्यम से बंगाल के नौजवानों को भी उसने प्रभावित किया, जिनमें अधिकांश स्वतंत्र चिंतक बन गये और 'युवा बंगाल' के नाम से पुकारे जाने लगे। ये लोग अपने विचारों में बहुत उग्र थे और हिन्दू समाज और धर्म की उन सभी बातों की आलोचना करते थे जो उन्हें असंगत जान पड़ती थीं। इससे सारे देश में हलचल मच गयी। कट्टर हिन्दुओं ने इन युवकों का तीव्र विरोध किया। नतीजा यह हुआ कि देरोज़ियो को हिन्दू कालेज से त्यागपत्र देने के लिए बाध्य कर दिया गया। तत्पश्चात् देरोजियो बहुत कम दिन यहाँ रहा, लेकिन आधुनिक बंगाल के इतिहास पर उसने अपनी अमिट छाप छोड़ी। उसकी शिक्षाओं ने आधुनिक विचारों के ऐसे युवकों का समूह खड़ा कर दिया जो विचारों में प्रगतिशील थे और जिन्होंने न केवल धार्मिक कट्टरता का विरोध किया, वरन् बाद में प्रशासन के विरुद्ध भी आवाज उठायी। शायद ही कभी किसी अध्यापक ने इतने कम समय में अपने छात्रों पर ऐसा व्यापक प्रभाव प्रदर्शित किया हो। (टी. एडवर्ड्स कृत देरोज़ियो का जीवन)
देवगढ़
उत्तर प्रदेश के झाँसी जिले में स्थित, जहाँ गुप्तकाल (३००-४५० ई.) के अनेक सुन्दर मंदिर विद्यमान हैं। यहाँ के दशावतार मंदिर में शिव, विष्णु तथा अन्य देवी देवताओं की अत्यंत कलापूर्ण मूर्तियाँ मिलती हैं, जो मुसलमानों की तोड़फोड़ से बच गयीं।
देवगाँव की संधि
१७ दिसम्बर १८०३ ई. को रघुजी भोंसले और अंग्रेजों के बीच हुई। द्वितीय मराठायुद्ध (दे.) के दौरान आरगाँव की लड़ाई (नवम्बर १८०३) में अंग्रेजों ने भोंसले को पराजित किया था, उसीके फलस्वरूप उक्त संधि हुई। इसके अनुसार बरार के भोंसला राजा ने अंग्रेजों को कटक का प्रांत दे दिया, जिसमें बालासोर के अलावा वरदा नदी के पश्चिम का समस्त भाग शामिल था। उसे अपनी राजधानी नागपुर में ब्रिटिश रेजीडेण्ट रखने के लिए मजबूर होना पड़ा। उसने निजाम अथवा पेशवा के साथ होनेवाले किसी भी झगड़े में अंग्रेजों को पंच बनाना स्वीकार किया और यह वायदा किया कि वह अपने यहाँ कम्पनी सरकार की अनुमति के बिना किसी भी यूरोपीय अथवा अमेरिकी को नौकरी नहीं देगा। व्यावहारिक दृष्टिकोण से इस संधि ने भोंसले को अंग्रेजों का आश्रित बना दिया।
देवगिरि
देखिये, 'दौलताबाद'।
देवगुप्त
तीन विभिन्न वंशों के तीन राजाओं का नाम। प्रथमतः गुप्तवंश के तृतीय सम्राट् समुद्रगुप्त (लगभग ३२०-५९० ई.) के पुत्र चंद्रगुप्त द्वितीय का यह एक नाम था। उसे देवगुप्त प्रथम कहा जाता है। दूसरा मालवा के गुप्त राजा का भी यह नाम था, जिसने सम्राट् हर्षवर्धन के बहनोई मौखरि नरेश गृहवर्मा (दे.) को लगभग ६०६ ई. में पराजित कर मार डाला। मालवा के इस राजा को देवगुप्त द्वितीय के नाम से याद किया जाता है। तीसरा देवगुप्त मगध के राजा आदित्यसेन का पुत्र एवं उत्तराधिकारी था जिसने हर्षवर्धन की मृत्यु (६४७ ई.) के बाद पुनः गुप्तवंश की स्थापना की थी। वह देवगुप्त तृतीय के नाम से जाना जाता है। सम्भवतः वह सम्पूर्ण उत्तर भारत पर शासन करता था। उसे चालुक्य नरेश विनयादित्य ने पराजित किया, जिसने ६८० ई. तक राज्य किया। (बनर्जी. पृष्ठ ५५४, ६०७, ६१०)।
देवदत्त
बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध का चचेरा भाई। उसने बौद्ध धर्म को त्यागकर एक नये मत का प्रवर्तन किया, जो गुप्तकाल (चतुर्थ शताब्दी ईसवी) तक वर्तमान रहा।
देवपाल (लगभग ८१०-५० ई.)
बंगाल और बिहार पर शासन करनेवाले पालवंश (दे.) का तृतीय राजा और धर्मपाल का पुत्र। उसने लगभग ३५ वर्ष तक शासन किया। उसके काल में पालवंश की शक्ति अपनी चरम सीमा पर पहुँच गयी थी। आसाम से लेकर कश्मीर की सीमा तक और हिमालय से विन्ध्यपर्वत तक सम्पूर्ण उत्तर भारत पर उसका आधिपत्य था। जावा के शैलेन्द्रवंश के राजा बालपुत्रदेव का दूतमंडल उसके दरबार में आया था। शैलेन्द्र राजा ने नालंदा में एक बिहार का निर्माण कराया था और देवपाल ने उसके अनुरोध पर पाँच गाँवों का दान किया था। राजा देवपाल भी बौद्ध धर्म तथा नालंदा बिहार का महान् संरक्षक था, जो उन दिनों बौद्ध शिक्षा का बहुत बड़ा केन्द्र था। (ढाका हिस्ट्री आफ बंगाल, खण्ड १, पृष्ठ ११६ एफ-एफ.)