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Bharatiya Itihas Kosh

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दिलेर खां
एक मुगल अमीर, जिसे सम्राट् औरंगजेब ने शिवाजी के विरुद्ध राजा जयसिंह के साथ भेजा था। शिवाजी को जून १६६५ ई. में पुरन्दर की संधि के लिए बाध्य करने का श्रेय जयसिंह के साथ इस अमीर को भी है। किन्तु १६७० ई. में मराठों और मुगलों के बीच पुनः युद्ध आरम्भ हो गया। दिलेर खां को शाहजादा शाहआलम का सहायक बनाकर युद्ध के लिए भेजा गया। इस युद्ध में शिवाजी के विरुद्ध दिलेर खां को बहुत कम सफलता मिली। पुरन्दर की संधि के अनुसार जो किले शिवाजी के हाथ से निकल गये थे, वे पुनः शिवाजी ने छीन लिये और १६७४ ई. में शिवाजी ने एक स्वतन्त्र नरेश के रूप में अपना राज्याभिषेक किया

दिल्ली
भारत की राजधानी। ऐसा विश्वास किया जाता है कि मूल दिल्ली उस स्थान पर थी जहां पहले महाभारत वर्णित पाण्डवों की राजधानी इन्द्रप्रस्थ थी। इस नगर की प्राचीनता इसी बात से सिद्ध होती है कि इन्द्रपत नाम का गाँव आज भी विद्यमान है, जहाँ हुमायूं और शेरशाह के किलों के अवशेष पाये जाते हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से दिल्ली का प्रथम निर्माता तोमर नरेश अनंगपाल था, जो ईसा की ११वीं शताब्दी में शासन करता था। उसने एक लाल किला भी बनवाया था जहाँ आजकल कुतुबमीनार अवस्थित है, जो वर्तमान नयी दिल्ली से दक्षिण में तीन मील पर है। बारहवीं शताब्दी में यह नगर अजमेर के चौहानों के हस्तगत हो गया। किन्तु ११९३ ई. में शहाबुद्दीन मुहम्मद गोरी ने इसे अंतिम चौहान नरेश पृथ्वीराज से छीन लिया। इस प्रकार दिल्ली पर हिन्दू शासन का अंत हो गया।
मुस्लिम विजेताओं ने १८५७ ई. तक इसे अपनी राजधानी बनाये रखा, जबकि अंग्रेजों ने अंतिम मुगल सम्राट् बहादुरशाह (१८३७-५७ ई.) को गद्दी से उतारकर उस पर अधिकार कर लिया। मुस्लिम शासकों ने इस लम्बे काल (११९३-१८५७) के दौरान विभिन्न समयों में दिल्ली क्षेत्र के अंतर्गत विभिन्न स्थानों पर अपने महल बनाये। इन लोगों ने कभी दिल्ली छोड़ देने की बात नहीं सोची। केवल कुछ अवधि के लिए बाबर, अकबर और जहांगीर ने आगरा अपनी राजधानी बनायी थी।
अलाउद्दीन खिलज़ी (१२९६-१३१६) ने पुरानी दिल्ली के उत्तर-पूर्व तीन मील पर सीरी बसायी, गयासुद्दीन तुगलक ने पुरानी दिल्ली के पूर्व चार मील पर तुगलकाबाद का निर्माण कराया, उसके पुत्र मुहम्मद तुगलक ने १३२७ ई. में राजधानी को दिल्ली से दौलताबाद ले जाने का असफल प्रयास करने के पश्चात् पुरानी दिल्ली और सीरी के बीच शहरपनाह का निर्माण कराया तथा उसके उत्तराधिकारी फीरोज़ तुगलक ने पुरानी दिल्ली के उत्तर में ८ मील पर फीरोज़बाद बसाया। इसमें संदेह नहीं कि मुस्लिम शासकों ने दिल्ली क्षेत्र में सात शहर बसाये, लेकिन सबका केन्द्र पुरानी दिल्ली ही रही। लोदी शासकों ने आगरा को राजधानी बनाया, जो मुगल शासक बाबर के जमाने में भी राजधानी रही। लेकिन हुमायूं फिर दिल्ली आ गया और पुराना किला बनवा शुरू किया, जिसके चारों ओर मुगल बादशाहों की राजधानी अवस्थित थी। शाहजहाँ ने पुरानी दिल्ली से जुड़ा हुआ शाहजहाँबाद बसाया, जहाँ उसने बहुत से शानदार महल बनवाये। पुरानी दिल्ली के बीच निर्मित जामा मस्जिद अपनी भव्यता के लिए आज भी प्रसिद्ध है। दिल्ली को कम दुर्दिन नहीं देखने पड़े। १३९८ ई. में तैमूर, १७३९ ई. में नादिरशाह तथा १७५७ ई. में अहमदशाह अब्दाली ने इसपर आक्रमण कर खूब लूटा और हजारों आदमियों को मौत के घाट उतारा। १७५८ ई. में इस पर मराठों का कब्जा होते-होते रह गया। १७६१ ई. में पानीपत की तीसरी लड़ाई के बाद भी यह लुटने से बच गयी।
मुगल बादशाहों की शक्ति धीरे-धीरे क्षीण हो गयी और १८०३ ई. में दिल्ली पर अंग्रेजों का प्रभुत्व हो गया और मुगल बादशाह नाममात्र के शासक बने रहे। अंग्रेजों ने कलकत्ता की स्थापना की, उसका विकास किया और उसे अपनी राजधानी बनाया। फलतः दिल्ली का महत्त्व घट गया। १८५७ ई. के स्वाधीनता-संग्राम में विद्रोही सिपाहियों ने मई के महीने में दिल्ली पर कब्जा कर लिया, लेकिन सितम्बर महीने में अंग्रेजों ने पुनः उसे छीन लिया। जनवरी १८५८ ई. में अंतिम मुगल शासक बहादुरशाह को औपचारिक रीति से गद्दी से उतार दिया गया और दिल्ली को अंग्रेजी राज्य में मिला लिया गया। बहादुरशाह को पेंशन देकर रंगून में नजरबंद कर दिया गया। १९११ ई. तक कलकत्ता अंग्रेजी भारत की राजधानी रही। इसके बाद राजधानी पुनः दिल्ली लायी गयी। मुस्लिम शासकों की भाँति अंग्रेजों ने भी पुरानी दिल्ली से ६ मील दूर नयी दिल्ली बसायी, जो आज भी भारतीय गणतंत्र की राजधानी है।

दिल्ली दरबार
अंग्रेज सरकार ने १८७७, १९०३ तथा १९११ ई. में कुल तीन बार दिल्ली में विशाल दरबार किये। पहला दरबार लार्ड लिटन ने किया था, जिसमें महारानी विक्टोरिया को भारत की सम्राज्ञी घोषित किया गया। इस दरबार की शान-शौकत पर बेशुमार धन खर्च किया गया, जबकि १८७६ से १८७८ ई. तक दक्षिण के लोग भीषण अकाल से पीड़ित थे, जिसमें हजारों व्यक्तियों की जानें गयीं। उस समय दरबार के आयोजन को जन-धन की बहुत बड़ी बरबादी समझा गया। दूसरा दरबार लार्ड कर्जन ने १९०३ ई. में आयोजित किया, जिसमें बादशाह एडवर्ड सप्तम की ताजपोशी की घोषणा की गयी। यह दरबार पहले से भी ज्यादा खर्चीला साबित हुआ। इसका कुछ नतीजा तो निकला नहीं। यह केवल ब्रिटिश सरकार का शक्ति-प्रदर्शन मात्र था। तीसरा दरबार लार्ड हार्डिज (दे.) के जमाने में १९११ ई. में आयोजित हुआ। बादशाह जार्ज पंचम और उसकी महारानी इस अवसर पर भारत आये थे और उनकी ताजपोशी का समारोह हुआ था। इसी दरबार में एक घोषणा द्वारा बंगाल के विभाजन (दे.) को रद्द किया गया, साथ ही राजधानी कलकत्ता से दिल्ली लाने की घोषणा की गयी।

दिल्ली विश्वविद्यालय
१९२२ ई. में स्थापित हुआ, १९५२ ई. में उसका पुनस्संगठन किया गया। इस विश्वविद्यालय में शिक्षा भी दी जाती है तथा अनेक डिग्री कालेज इससे सम्बद्ध भी हैं। अब बहुत से विश्वविद्यालयों में इसी प्रकार की व्यवस्था है।

दिल्ली समझौता
५ मार्च १९३१ ई. को तत्कालीन वायसराय लार्ड इरविन तथा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेता महात्मा गांधी के बीच हुआ। इसके अनुसार सत्याग्रह आंदोलन जो अप्रैल १९३० में चालू किया गया था, स्थगित कर दिया गया, कांग्रेस राजनीतिक मसले हल करने के लिए लंदन के गोलमेज सम्मेलन में भाग लेनेके लिए सहमत हो गयी तथा १९३० ई. के बाद जितने भी दमनात्मक अध्यादेश जारी किये गये थे, वे वापस ले लिये गये। सत्याग्रह आंदोलन के सिलसिले में जो लोग गिरफ्तार किये गये थे उन्हें रिहा कर दिया गया।

दिल्ली सल्तनत
१२०६ ई. से लेकर, जबकि कुतुबुद्दीन ऐबक भारत का प्रथम मुस्लिम सुल्तान हुआ, १५२६ ई. तक जबकि मुगल बादशाह बाबर ने पानीपत की लड़ाई में इब्राहीम लोदी को पराजित कर मार डाला और मुगल साम्राज्य की स्थापना की, दिल्ली पर सुल्तानों का शासन रहा और इसे दिल्ली सल्तनत का काल कहा जाता है। इस ३२० वर्ष के लम्बे काल में दिल्ली के सुल्तान सारे हिन्दुस्तान के बादशाह माने जाते थे, हालांकि उनकी सल्तनत का विस्तार घटता-बढ़ता रहा। मुहम्मद तुगलक (१३२५-५१) के जमाने में तो दिल्ली सल्तनत का विस्तार हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक हो गया था, किन्तु सन् १५२६ ई. में पानीपत की लड़ाई के समय उसका विस्तार दिल्ली के चारों ओर तक ही सीमित था। दिल्ली सल्तनत के अनतर्गत पाँच पृथक् वंशों ने राज्य किया, जिनका एक दूसरे से कोई सम्बन्ध नहीं था, यथा--गलामवंश (१२०६-९० ई.), खिलजी वंश (१२९०-१३२० ई.), तुगलकवंश (१३२०-१४१३ ई.), सैयदवंश (१४१४-५१ ई.) तथा लोदी वंश (१४५१-१५२६ ई.)।

दिव
गुजरात के समुद्रतट पर एक महत्तवपूर्ण व्यापारिक केन्द्र और बंदरगाह। १५३५ ई. में जब बादशाह हुमायूं ने गुजरात पर विजय प्राप्त की, गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह (दे.) (१५२६-३७ ई.) ने भावकर मालवा में शरण ली और पुर्तगालियों की मदद मांगी। पुर्तगालियों ने इस अवसर का लाभ उठाया और १५३५ ई. में दिव पर अधिकार कर लिया। इस पर पुर्तगालियों का अधिकार चार सौ वर्ष से अधिक काल तक रहा। १९६१ ई. में वह स्वाधीन भारतीय गणराज्य में सम्मिलित कर लिया गया।

दिवाकर
एक कवि, जो महाराज हर्षवर्धन (६०६-४७ ई.) के काल में विद्यमान था, और उनका आश्रित था।

दिवोक अथवा दिव्य
कैवर्तों का नेता, जिसने राजा महिपाल द्वितीय (लगभग १०७०-७५ ई.) को पराजित कर मार डाला और उत्तरी बंगाल में अपने स्वतंत्र राज्य की स्थापना की।

दिवोदास
एक प्रसिद्ध राजा, जिसका उल्लेख ऋग्वेद में हुआ है। उसने दासों के अनार्य राजा संवर से युद्ध किया था।


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