logo
भारतवाणी
bharatavani  
logo
Knowledge through Indian Languages
Bharatavani

Bharatiya Itihas Kosh

Please click here to read PDF file Bharatiya Itihas Kosh

दानाध्यक्ष
शिवाजी के प्रशासन के अष्ट-प्रधानों में से एक, जो 'पंडितराव' भी कहलाता था। वह राजपुरोहित और राजकीय दान-वितरक होता था

दानियाल, शाहज़ादा
मुगल सम्राट् अकबर का तीसरा और सबसे छोटा पुत्र। जन्म १५७२ ई. में। वह उस मुगल सेना का नायक था जिसके आगे अहमदनगर को आत्मसमर्पण करना पड़ा। वह अकबर का बहुत ही प्यारा पुत्र था, लेकिन शराबखोरी की बुरी आदत पड़ जाने से उसकी मृत्यु बहुत जल्दी १६०४ ई. में हो गयी।

दानिशमंद खाँ
शाहजहाँ के शासन के अंतिमकाल और औरंगजेब के शासन के प्रारम्भिककाल में दिल्ली दरबार में विद्यमान। वह बर्नयिर का संरक्षक था, जो उसे एशिया का योग्यतम व्यक्ति समझता था। (बर्नियर कृत 'ट्रेवेल्स')

दामाजी गायकवाड़
पिलानी गायकवाड़ का पुत्र, जो आरम्भ में मराठा सेनापति त्र्यम्बकराव दाभाड़े की सेना में नौकर था। १७३१ ई. में बिल्हापुर के युद्ध में त्र्यम्बकराव की पराजय हुई और वह मारा गया। दामाजी ने इस युद्ध में अद्भुत शौर्य का प्रदर्शन किया। इससे प्रभावित होकर विजेता पेशवा बाजीराव प्रथम ने दामाजी को अपनी सेवा में रख लिया और बाद को उसे गुजरात में पेशवा का प्रतिनिधि नियुक्त कर दिया। इस प्रकार दामाजी मराठा संघ का एक प्रमुख सरदार बन गया और उसने बड़ौदा को अपनी राजधानी बनाकर गुजरात में गायकवाड़ों की सत्ता स्थापित की। उसने बाजीराव प्रथम के बाद दूसरे पेशवा बालाजी बाजीराव की भी सेवा की और १७६१ ई. में पानीपत के युद्ध में भाग लिया, किंतु जान बचाने के लिए वह युद्धक्षेत्र से भाग आया। इस पराजय के बाद भी दामाजी गुजरात को अपने अधिकार में किये रहा। १७६८ ई. में उसकी मृत्यु हो गयी। ('बम्बई गजेटियर', खण्ड ७)

दामोदर गुप्त
एक प्रख्यात विद्वान्। वह नवीं शताब्दी ई. में कश्मीर के शासक महाराज जयापीड का दरबारी कवि था।

दारयबहु (लगभग ई. पू. ५२२-४८६)
फारस के अखामनी वंश का तीसरा सम्राट्। उसके बहिस्तान अभिलेख (लगभग ई. पू. ५१९) में गंधार के लोगों को भी उसकी प्रजा बताया गया है। हमदान, परसीपोलिस तथा नक्शेरुस्तम से प्राप्त उसके एक अन्य अभिलेख में भारतीयों का भी उल्लेख उसकी प्रजा के रूप में किया गया है। हेरोडोटस के अनुसार गंधार उसके साम्राज्य का सातवाँ प्रांत और भारत अर्थात् सिंधुघाटी बीसवाँ प्रांत था। दारयबहु को अपने भारतीय साम्राज्य से काफी राजस्व प्राप्त होता था और साथ ही यहां से उसकी सेना के लिए सैनिक भी भेजे जाते थे। इस प्रकार भारत और फारस के बीच अत्यंत प्राचीनकाल से संपर्क था, जो दिनोंदिन बढ़ता गया। फलस्वरूप बहुत से फारसी शब्द भारत में प्रचलित हो गये। फारस के विचारों ने कुछ अंश तक भारतीय कला को भी प्रभावित किया। (राय चौधरी, पृ. २४० नोट)

दाराशिकोह, शाहजादा
मुगल बादशाह शाहजहाँ (दे.) का सबसे बड़ा पुत्र। मुमताज बेगम उसकी माता थी। आरम्भ में वह पंजाब का सूबेदार बनाया गया, जिसका शासन वह राजधानी से अपने प्रतिनिधियों के जरिये चलाता था। शाहजहाँ अपने पुत्रों में सबसे ज्यादा इसी को चाहता था और उसे आमतौर से अपने साथ दरबार में रखता था। दारा बहादूर इंसान था और बौद्धिक दृष्टि से उसे अपने प्रपितामह अकबर के गुण विरासत में मिले थे। वह सूफीवाद की ओर उन्मुख था और इस्लाम के हनफी पंथ का अनुयायी था। वह सभी धर्म और मजहबों का आदर करता था और हिंदू दर्शन व ईसाई धर्म में विशेष दिलचस्पी रखता था। उसके इन उदार विचारों से कुपित होकर कट्टरपंथी मुसलमानों ने उसपर इस्लाम के प्रति अनास्था फैलाने का आरोप लगाया। इस परिस्थिति का दारा के तीसरे भाई औरंगजेब ने खूब फायदा उठाया। दारा ने १६५३ ई. में कंधार की तीसरी घेराबंदी में भाग लिया था, यद्यपि वह इस अभियान में विफल रहा, फिर भी अपने पिता का कृपापात्र बना रहा और १६५७ ई. में शाहजहाँ जब बीमार पड़ा तो वह उसके पास मौजूद था।
दारा की उम्र इस समय ४३ वर्ष थी और वह पिता के तख्ते ताऊस को उत्तराधिकार में पाने की उम्मीद रखता था। लेकिन तीनों छोटे भाइयों, खासकर औरंगज़ेब ने उसके इस दावे का विरोध किया। फलस्वरूप दारा को उत्तराधिकार के लिए अपने इन भाइयों के साथ युद्ध करना पड़ा (१६५७-५८ ई.)। लेकिन शाहजहाँ के समर्थन के बावजूद दारा की फौज १५ अप्रैल १६५८ ई. को धर्मट के युद्ध में औरंगजेब और मुराद की संयुक्त फौजों से हार गयी। इसके बाद दारा अपने बाग़ी भाइयों को दबाने के लिए दुबारा खुद अपने नेतृत्व में शाही फौज़ों को लेकर निकला, किन्तु इस बार भी उसे २९ मई १६५८ ई. को सामूगढ़ के युद्ध में पराजय का मुंह देखना पड़ा। इस बार दारा के लिए आगरा वापस लौटना संभव नहीं हुआ। वह शरणार्थी बन गया और पंजाब, कच्छ, गुजरात एवं राजपूताना में भटकने के बाद तीसरी बार फिर एक बड़ी सेना तैयार करने में सफल हुआ। दौराई में अप्रैल १६५९ ई. में औरंगजेब से उसकी तीसरी और आखिरी मुठभेड़ हुई। इस बार भी वह हारा। दारा फिर शरणार्थी बनकर अपनी जान बचाने के लिए राजपूताना और कच्छ होता हुआ सिंध भागा। यहाँ उसकी प्यारी बेग़म नादिरा का इंतकाल हो गया।
दारा ने दादर के अफगान सरदार जीवनखान का आतिथ्य स्वीकार किया। किंतु मलिक जीवनखान गद्दार साबित हुआ और उसने दारा को औरंगज़ेब की फौज के हवाले दिया, जो इस बीच बराबर उसका पीछा कर रही थी। दारा को बंदी बनाकर दिल्ली लाया गया, जहाँ औरंगज़ेब के आदेश पर उसे भिखारी की पोशाक में एक छोटे-सी हथिनी पर बिठाकर सड़कों पर घुमाया गया। इसके बाद मुल्लाओं के सामने उसके खिलाफ मुक़दमा चलाया गया। धर्मद्रोह के अभियोग में मुल्लाओं ने उसे मौत की सजा दी। ३० अगस्त १६५९ ई. को इस सजा के तहत दारा का सिर काट लिया गया। उसका बड़ा पुत्र सुलेमान पहले से ही औरंगज़ेब का बंदी था। १६६२ ई. में औरंगज़ेब ने जेल में उसकी भी हत्या करा दी। दारा के दूसरे पुत्र सेपहरशिकोह को बख्श दिया गया, जिसकी शादी बाद को औरंगज़ेब की तीसरी लड़की से हुई। (कालिकारंजन कानूनगो कृत 'दाराशिकोह')

दारोगा
एक फारसी शब्द, जिसका अर्थ होता है 'प्रधान'। ब्रिटिश काल में यह थाना अधिकारी का पदनाम बन गया। इसका अंग्रेज़ी पर्याय सबइंसपेक्टर, पुलिस है। इस पद का सर्जन लार्ड कार्नवालिस (१७८६-९३) के प्रशासन के दौरान हुआ, जिसने प्रत्येक जिले को थानों या पलिस स्टेशनों में विभाजित किया था। थानों का इंचार्ज दारोगा होता था।

दास
वैदिक साहित्य में 'दास' शब्द आर्यों के शत्रु के लिए प्रयुक्त हुआ है, जिनके साथ उन्हें पंजाब में युद्ध करना पड़ा था। इन्हें दस्यु भी कहते हैं। दासों को श्याम वर्ण और चपटी नाकवाला बताया गया है। वे ऐसी भाषा बोलते थे, जिसे आर्य नहीं समझते थे। उनके किलों और पशुधन को हस्तगत कर लेने के लिए आर्य लोग लालायित रहते थे। दास लोग आर्यों की यज्ञप्रथा के विरोधी थे। ये लोग कदाचित् निचली सिंधु घाटी में फलने-फूलने वाली प्रागैतिहासिक सभ्यता से सम्बंधित थे। बाद में 'दास' शब्द का अर्थ नौकर अथवा गुलाम हो गया और दस्यु डाकुओं को कहा जाने लगा। (मेकडानेल एवं कीथ रचित 'वैदिक इण्डेक्स')

दास प्रथा
भारतवर्ष में प्रायः सभी युगों में विद्यमान रही है। यद्यपि चौथी शताब्दी ई. पू. में मेगस्थनीज (दे.) ने लिखा था कि भारतवर्ष में दास प्रथा नहीं है, तथापि कौटिल्य के अर्थशास्त्र (दे.) तथा अशोक के अभिलेखों में प्राचीन भारत में दास प्रथा प्रचलित होने के संकेत उपलब्ध होते हैं। ऋणग्रस्त अथवा युद्धों में बन्दी होनेवाले व्यक्तियों को दास बना लिया जाता था। फिर भी प्राचीन भारत में यूरोप की भांति दास प्रथा न तो व्यापक थी और न दासों के प्रति वैसा क्रूर व्यवहार होता था। मुसलमानों के शासन काल में दास प्रथा में वृद्धि हुई और उन्हें नपुंसक बना डालने की क्रूर प्रथा आरम्भ हुई। यह प्रथा भारत में ब्रिटिश शासन स्थापित हो जाने के उपरांत भी यथेष्ट दिनों तक चलती रही। १८४३ ई. में इसको बन्द करने के लिए एक अधिनियम पारित किया गया।


logo