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Bharatiya Itihas Kosh

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दर्शक (लगभग ४६७-४४३ ई. पू.)
मगध के सम्राट् अजातशत्रु (लगभग ४९४-४६७ ई. पू.) का पुत्र और उत्तराधिकारी। कदाचित् यह वहीं नरेश था, जिसका उल्लेख भास लिखित नाटक 'स्वप्नवासवदत्ता' में मिलता है।

दलाई लामा
कुछ वर्ष पहले तक तिब्बत के धर्मगुरु तथा शासक। वर्तमान दलाई लामा, जिन्हें तिब्बत पर चीनी आक्रमण के बाद भागकर भारत में शरण लेनी पड़ी, दलाई लामाओं के क्रम में चौदहवें हैं। तिब्बत की बौद्ध मतावलम्बी जनता दलाई लामा को बोधिसत्व अवलोकितेश्वर का अवतार मानती है। प्रचलित प्रथा के अनुसार दलाई लामा को देवता और मनुष्य मिलकर खोजते हैं। उस समय वे आमतौर से बालक होते हैं और गद्दी पर बैठने के बाद उनकी तरफ से अभिभावक और भिक्षुओं की परिषद् शासन चलाती है। वयस्क हो जाने पर वे स्वयं भिक्षुओं की परिषद् चुनते हैं और उसकी सहायता से शासन करते हैं।

दलायल-ए-फीरोजशाही
फारसी का एक उल्लेखनीय काव्य ग्रंथ। इसकी रचना सुल्तान फीराजशाह तुगलक के आदेश पर उसके दरबारी कवि आजुद्दीन खालिद खानी ने की थी। इसमें विभिन्न विषयों के ३०० संस्कृत ग्रंथों का अनुवाद है। ये ग्रंथ सुल्तान को नगरकोट के निकट ज्वालामुखी के मंदिर में उस समय मिले थे जब १३३७ ई. में छः महीने की घेराबंदी के बाद नगरकोट ने सुल्तान के आगे आत्मसमर्पण कर दिया था।

द-लाली
देखिये, 'लाली'।

द-ला-हाये
एक फ्रांसीसी नौसेनाधिकारी, जो चोलमण्डल तट पर फ्रांसीसी हितों की रक्षा करने के लिए भेजा गया था। १६७२ ई. में फ्रांसीसियों ने मद्रास के निकट सेण्ट थोम पर कब्जा कर लिया, लेकिन अगले वर्ष ही डचों ने श्रीलंका के त्रिंकोमाली बंदरगाह में तैनात फ्रांसीसी बेड़े को, जिसका नेतृत्व द-ला-हाये कर रहा था, वहाँ से मार भगाया। बाद में डचों ने १६७४ ई. में सेण्ट थोम पर भी अधिकार कर लिया।

दलीपसिंह
पंजाब के महाराज रणजीतसिंह का सबसे छोटा पुत्र। १८४३ ई. में वह नाबालिगी की अवस्था में अपनी माँ रानी जिंदाँ की संरक्षकता में राजसिंहासन पर बैठाया गया। उसकी सरकार प्रथम सिख-युद्ध (१८४५-४६) में शामिल हुई, जिसमें सिखों की हार हुई और उसे सतलज नदी के बायीं ओर का सारा क्षेत्र एवं जलंधर दोआब अंग्रेजों को समर्पित करके और डेढ़ करोड़ रुपया हर्जाना देकर संधि करने के लिए बाध्य होना पड़ा। रानी जिंदाँ से नाबालिग राजा की संरक्षकता छीन ली गयी और उसके सारे अधिकार सिख सरदारों की परिषद् में निहित कर दिये गये। किन्तु परिषद् ने दलीपसिंह की सरकार को १८४८ ई. में ब्रिटिश भारतीय सरकार के विरुद्ध दूसरे युद्ध में फँसा दिया। इस बार भी सिखों की पराजय हुई और ब्रिटिश विजेताओं ने दलीपसिंह को अपदस्थ करके पंजाब को ब्रिटिश राज्य में मिला लिया। दलीपसिंह को पाँच लाख रुपया वार्षिक की पेंशन बाँध दी गयी और इसके बाद शीघ्र ही माँ के साथ उसे इंग्लैण्ड भेज दिया गया, जहाँ दलीपसिंह ने ईसाई धर्म ग्रहण कर लिया और वह नारकाक में कुछ समय तक जमींदार रहा। इंग्लैण्ड प्रवास के दौरान दलीपसिंह ने १८८७ ई. में रूस की यात्रा की और वहाँ जार को भारत पर हमला करने के लिए राजी करने का असफल प्रयास किया। बाद में वह भारत लौट आया और फिर से अपना पुराना सिख धर्म ग्रहण करके शेष जीवन व्यतीत किया। ('बंगाल पास्ट ऐण्ड प्रेजेण्ट', खण्ड ७४, पृष्ठ १८६)

दवार बख्श
बादशाह जहाँगीर (१६०५-२७) के पुत्र खुसरू (दे.) का पुत्र। खुसरु की मृत्यु १६२२ ई. में हो गयी और अक्तूबर १६२७ ई. में जहाँगीर के मरने पर शाहजहाँ के श्वसुर आसफ खाँ ने दिल्ली की गद्दी पर दवार बख्श को बैठा दिया ताकि जहाँगीर का सबसे छोटा पुत्र शहरयार जो मलका नूरजहाँ का कृपापात्र था, गद्दी पर न बैठ सके। फरवरी १६२८ ई. में शाहजहाँ के दक्षिण से आगरा लौट आने पर दवार बख्श को गद्दी से उतार दिया गया और शाहजहाँ सम्राट् घोषित किया गया। दवार बख्श को कारागार में डाल दिया गया। बाद में वह मुक्त होने पर फारस चला गया और वहाँ के बादशाह की संरक्षकता में जीवन व्यतीत करता रहा।

दशरथ
अयोध्या अथवा अवध के राजा, जो भारत के आदि कवि वाल्मीकिरचित रामायण के नायक रामचंद्रजी के पिता थे।

दशरथ
अशोक मौर्य का पौत्र, जो लगभग २३२ ई. पू. गद्दी पर बैठा। उसने बिहार की नागार्जुनी पहाड़ियों की कुछ गुहाएँ आजीविकों को निवास के लिए दान कर दी थीं। इन गुहाओं की दीवालों पर अंकित अभिलेखों से प्रकट होता है कि दशरथ भी अपने पितामह की भाँति 'देवानाम्प्रिय की उपाधि से विभूषित था। यह कहना कठिन है कि वह भी बौद्ध धर्म का अनुयायी था या नहीं। (रायचौधरी, पृ. ३५०-५१)

दस्तक
बंगाल में ईस्ट इंडिया कम्पनी जो पारपत्र जारी करती थी, उनमें कंपनी के अभिकर्ताओं को अधिकार दिया जाता था कि वे प्रांत के अंदर चुंगी अदा किये बिना व्यापार कर सकें। १७१७ ई. में शाह फर्रुखसियर द्वारा कम्पनी को दिये गये फरमान के अन्तर्गत ढाई प्रतिशत चुंगी अदा न करने की छूट दी गयी थी। कानूनी तौर पर यह छूट केवल कम्पनी ही प्राप्त कर सकती थी। लेकिन इस छूट का बेजा फायदा दो प्रकार से उठाया जाता था। पहले तो कम्पनी के कर्मचारी दस्तक प्राप्त करके स्वयं बिना चुंगी दिये निजी व्यापार करते थे। फिर कम्पनी इस प्रकार के दस्तक भारतीय व्यापारियों को भी बेच दिया करती थी, जिनके द्वारा वे लोग भी बिना चुंगी दिये व्यापार करते थे। नवाब सिराजुद्दौला (दे.) ने 'दस्तक' प्रथा का विरोध किया, लेकिन पलासी के युद्ध (दे.) के बाद 'दस्तक' प्रथा और अधिक बढ़ गयी। इस समय नवाब मीर जाफर (दे.) नाममात्र का शासक था। अन्त में इस प्रथा का फल यह हुआ कि इससे सबसे अधिक हानि भारतीय व्यापारियों को ही उठानी पड़ी और नवाब को भी राजस्व के बहुत बड़े अंश से हाथ धोना पड़ा।
मीर जाफर के पदच्युत किये जाने और मीर कासिम (१७६०-६३) (दे.) के पदारूढ़ किये जाने के बाद यह बुराई इतनी अधिक बढ़ गयी कि १७६२ ई. में मीर कासिम ने कम्पनी से इसका घोर विरोध किया तथा माँग की कि इसे रोका जाय। लेकिन कम्पनी ने इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया। फलतः मीर कासिम ने सभी के लिए पूरी चुंगी माफ कर दी, जिससे सभी प्रकार के व्यापारियों को समान लाभ मिल सके। इसका नतीजा यह हुआ कि कम्पनी के कर्मचारियों को अपनी गैरकानूनी आमदनी का घाटा होने लगा। उन्होंने, विशेषरूप से पटना के एलिस नामक कम्पनी के कर्मचारी ने, शस्त्रबल से अपने गैरकानूनी दावे को मनवाने का प्रयास किया। फलतः कम्पनी और मीर कासिम में युद्ध (१७६३) छिड़ गया। मीर कासिम लड़ाई में हारकर भाग खड़ा हुआ। क्लाइव (दे.) ने, दूसरी बार (१७६५-१७६७ ई.) बंगाल का गवर्नर नियक्त होने पर 'दस्तक' प्रथा से उत्पन्न बुराई को दूर करने और कर्मचारियों के निजी व्यापार को नियंत्रित करने का प्रयास किया। लेकिन अन्त में गवर्नर-जनरल लार्ड कार्नवालिस (१७८६-९३ ई.) के जमाने में ही यह बुराई पूरी तौर से समाप्त हो सकी।


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