भारत में बसी हुई प्राचीनतम प्रजातियों में से एक, जो पहले उत्तर और दक्षिण दोनों भागों में फैली हुई थी। कालांतर में उत्तर भारत के द्रविड़ मेसोपोटामिया (वर्तमान ईराक) की ओर चले गये और रास्ते में बलूचिस्तान में अपनी ब्राहुई शाखा छोड़ गये जो आज भी द्रविड़ भाषा से मिलती-जुलती बोली बोलते हैं। उत्तर भारत के द्रविड़ लोगों को आर्यों ने दक्षिण की ओर खदेड़ दिया। आर्यों की सभ्यता और संस्कृति द्रविड़ों के मुकाबले निचले दर्जे की थी, लेकिन अच्छे योद्धा होने के कारण उत्तर भारत में अपनी सत्ता स्थापित करने में वे सफल हो गये।
द्रौपदी
पंचाल के राजा द्रुपद की पुत्री, जिसे पाण्डुपुत्र अर्जुन ने अपनी धनुर्विद्या का प्रदर्शन करके विजित किया था, लेकिन बाद में पाँचों पाण्डवों के साथ उसका विवाह हुआ। संस्कृत के प्रसिद्ध महाकाव्य 'महाभारत' की वह मुख्य नायिका है।
द्वारसमुद्र
आधुनिक हैलविड़ का प्राचीन नाम। यह होयसल राजाओं की राजधानी थी जो वर्तमान कर्नाटक क्षेत्र पर शासन करते थे। इस राजधानी की स्थापना बिहिग (दे.) ने की, जो बाद में विष्णुवर्धन (लगभग ११११-१४ ई.) के नाम से विख्यात हुआ। यह नगर वैष्णव धर्म का केन्द्र बना। विख्यात वैष्णव संत रामानुज को विष्णुवर्धन की ही संरक्षकता प्राप्त थी। इस राजा ने कई भव्य विष्णुमंदिर बनवाये। द्वारसमुद्र में बना विष्णुमंदिर अपने सौंदर्य और कला के लिए बहुत विख्यात हुआ। किसी समय द्वारसमुद्र का राज्य देवगिरि (दे.) तक फैला हुआ था। १३२६ ई. में सुल्तान मुहम्मद तुगलक की मुस्लिम सेना ने इस नगर को लूट-पाटकर बरबाद कर डाला।
द्वैध शासन-पद्धति
सांविधानिक व्यवस्था का एक रूप। द्वैध शासन का सिद्धांत सबसे पहले लियोनेल कर्टिस ने प्रतिपादित किया था जो बहुत दिनों तक 'राउण्ड टेबिल' का सम्पादक रहा। बाद में यह सिद्धान्त १९१९ ई. के भारतीय शासन विधान में लागू किया गया जिसके अनुसार प्रान्तों में शिक्षा, स्वायत्त शासन, सार्वजनिक स्वास्थ्य, सार्वजनिक निर्माण, कृषि तथा सहकारिता आदि विभागों का प्रशासन मंत्रियों को हस्तांतरित कर दिया गया। ये मंत्री प्रान्तीय विधानसभा के निर्वाचित सदस्य होते थे और विधानसभा के प्रति उत्तरदायी थे। दूसरी ओर राजस्व, कानून, न्याय, पुलिस, सिंचाई, श्रम तथा वित्त आदि विभागों का प्रशासन गवर्नर की एक्जीक्यूटिव कौंसिल के सदस्यों के लिए सुरक्षित रखा गया। ये सदस्य गवर्नर द्वारा मनोनीत होते थे और उन्हीं के प्रति उत्तरदायी होते थे, विधानसभा के प्रति नहीं।
द्वैध शासन, बंगाल का
१७६५ ई. की इलाहाबाद की संधि (दे.) के अंतर्गत बंगाल, बिहार और उड़ीसा में स्थापित। उक्त संधि के फलस्वरूप एक ओर ईस्ट इण्डिया कम्पनी और दूसरी ओर अवध के नवाब शुजाउद्दौला, बंगाल के नवाब मीर कासिम और दिल्ली के सम्राट् शाहआलम द्वितीय के बीच युद्ध का अन्त हो गया। ईस्ट इण्डिया कम्पनी को बंगाल की दीवानी (दे.) सौंप दी गयी, अर्थात् कम्पनी को बंगाल का दीवान (वित्तमंत्री तथा राजस्व संग्रहकर्त्ता) बना दिया गया, जबकि मीर जाफर के लड़के को बंगाल का नवाब मान लिया गया। यह तय पाया गया कि कम्पनी जो राजस्व वसूल करेगी, उसमेंसे २६ लाख रुपया सालाना सम्राट् को तथा ५२ लाख रुपया बंगाल के नवाब को शासन चलाने के लिए दिया जायगा तथा शेष भाग कम्पनी अपने पास रखेगी। इस प्रकार बंगाल, बिहार और उड़ीसा में दोहरे शासन का आविर्भाव हुआ।
द्वितीय मैसूर-युद्ध
अंग्रेजों ने १७६९ ई. की संधि की शर्तों के अनुसार आचरण न किया और १७७० ई. में हैदर अली को, समझौते के अनुसार उस समय सहायता न दी जब मराठों ने उसपर आक्रमण किया। अंग्रेजों के इस विश्वासघात से हैदर अली को अत्यधिक क्षोभ हुआ। उसका क्रोध उस समय और भी बढ़ गया, जब अंग्रेजों ने हैदर अली की राज्य सीमाओं के अंतर्गत माही की फ्रांसीसी बस्ती पर आक्रमण कर अधिकार कर लिया। उसने मराठा और निजाम के साथ १७८० ई. में त्रिपक्षीय संधि कर ली जिससे द्वितीय मैसूर-युद्ध प्रारंभ हुआ।
अंग्रेजों ने निजाम को अपनी ओर फोड़ लिया और १७८२ ई. में सालबाई की संधि करके मराठों से युद्ध समाप्त कर दिया। फिर भी हैदर अली भग्नोत्साह न होकर युद्ध करता रहा और एक विशाल सेना लेकर कर्नाटक में घुस गया, उसे नष्ट-भ्रष्ट कर डाला तथा मद्रास के चारों ओर के इलाके उजाड़ डाले। उसने बेली के अधिनायकत्व वाली अंग्रेजी फौज की एक टुकड़ी को घेर लिया। परन्तु १७८१ ई.में वह सर आयरकूट द्वारा पोर्टोनोवो, पोलिलूर और शोलिंगलूर के तीन युद्धों में परास्त हुआ; क्योंकि उसे फ्रांसीसियों से प्रत्याशित सहायता न मिल सकी। फिर भी वह डटा और १७८२ ई. में उसके पुत्र टीपू ने कर्नल व्रेथवेट के नायकत्ववाली ब्रिटिश सेना से तंजौर में आत्मसमर्पण करा लिया।
इस युद्ध के बीच हैदर अली की मृत्यु हो गयी। किन्तु उत्तराधिकारी टीपू सुल्तान ने युद्ध जारी रखा और बेदनूर पर अंग्रेजों के आक्रमण को असफल करके मंगलोर जा घेरा। अब मद्रास की सरकार ने समझ लिया कि आगे युद्ध बढ़ाना उसकी सामर्थ्य के बाहर है। अतः उसने १७८४ ई. में संधि कर ली, जो मंगलोर की संधि कहलाती है और जिसके आधार पर दोनों पक्षों ने एक दूसरे के भूभाग वापस कर दिये।