इनमें बुद्ध के पूर्वजन्म की कथाएं मिलती हैं, जो पाली भाषा में हैं। जातक कथाओं के द्वारा हमें गौतम बुद्ध-काल के भारत की सामाजिक और राजनीतिक दशा का रोचक विवरण मिलता है। इनकी रचना तीसरी शताब्दी ई. पू. से पहले हुई होगी, क्योंकि भरहुत और सांची के स्तूपों पर, जो ई. पू. तीसरी शताब्दी के हैं, कई जातक कथाएं अंकित मिलती हैं। इन कथाओं के लेखक अथवा लेखकों का नाम ज्ञात नहीं है, परंतु इन्होंने बौद्ध धर्म, साहित्य और कला को बहुत अधिक प्रभावित किया है।
जाति व्यवस्था
हिन्दुओं के सामाजिक जीवन की विशिष्ट व्यवस्था, जो उनके आचरण, नैतिकता और विचारों को सर्वाधिक प्रभावित करती है। यह व्यवस्था कितनी पुरानी है, इसका उत्तर देना कठिन है। सनानती हिन्दू इसे दैवी या ईश्वर-प्रेरित व्यवस्था मानते हैं और ऋग्वेद से इसका सम्बन्ध जोड़ते हैं। लेकिन आधुनिक विद्वान इसे मानवकृत व्यवस्था मानते हैं जो किसी एक व्यक्ति द्वारा कदापि नहीं बनायी गयी वरन् विभिन्न काल की परिस्थितियों के अनुसार विकसित हुई। यद्यपि प्राचीन धार्मिक ग्रंथों में मनुष्यों को चार वर्णों में विभाजित किया गया है--ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र तथा प्रत्येक वर्ण का अपना विशिष्ट धर्म निरूपित किया गया है तथा अंतर्जातीय भोज अथवा अन्तर्जातीय विवाह का निषेध किया गया है, तथापि वास्तविकता यह है कि हिन्दू हजारों जातियों और उपजातियों में विभाजित हैं और अन्तर्जातीय भोज तथा अन्तर्जातीय विवाह के प्रतिबन्ध विभिन्न समय में तथा भारत के विभिन्न भागों में भिन्न-भिन्न रहे हैं। आजकल अंतर्जातीय भोज सम्बन्धी प्रतिबंध विशेषकर शहरों में प्रायः समाप्त हो गये हैं और अंतर्जातीय विवाह सम्ब्धी प्रतिबन्ध भी शिथिल पड़ गये हैं। फिर भी जाति व्यवस्था पढ़े-लिखे भारतीयों में भी प्रचलित है और अब भी इस व्यवस्था के कारण हिन्दुओं को अन्य धर्मावलंबियों से सहज ही अलग भारतीयों में भी प्रचलित है और अब भी इस व्यवस्था के कारण हिन्दुओं को अन्य धर्मावलम्बियों से सहज ही अलग किया जा सकता है।
ऐतिहासिक दृष्टि से जाति व्यवस्था आरम्भिक वैदिक कांल में भी विद्यमान थी, यद्यपि उस समय उसका रूप अस्पष्ट था। उत्तर वैदिक युग और सूत्रकाल में यह पुश्तैनी बन गयी और विभिन्न पेशे विभिन्न जातियों का प्रतिनिधित्व करने लगे। वेदपाठी, कर्मकांडी और पुरोहिती करनेवाले 'ब्राह्मण' कहलाये। देश का शासन करनेवाले तथा युद्ध कला में निपुण व्यक्ति 'क्षत्रिय' कहलाये और सर्वसाधारण, जिनका मुख्य धंधा व्यवसाय और वाणिज्य था, 'वैश्य' कहलाये। शेष लोग, जिनका धन्धा सेवा करना था, 'शूद्र' नाम से पुकारे जाने लगे। ऐतिहासिक काल में मौर्य शूद्र माने जाते थे। मेगस्थनीज ने, जो चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में भारत आया था, लोगों को सात जातियों में विभाजित किया है जो पुश्तैनी जातियां होने के बजाय वास्तव में पेशों के आधार पर वर्गीकृत जातियां थीं। उसने लिखा है, दार्शनिकों को छोड़कर, जो समाज के शीर्षस्थ स्थान पर थे, अन्य लोगों के लिए अंतर्जातीय विवाह अथवा पुश्तैनी पेशा बदलना वर्जित था। उसके बाद के काल में जो विदेशी विजेताओं के रूप में अथवा आप्रवासियों के रूप में भारत आये, उन सबको हिन्दू धर्म में अंगीकार कर लिया गया और उनके धंधों के अनुसार उन्हें विभिन्न जातियों में स्थान मिल गया। युद्ध करनेवाले लोगों को क्षत्रिय जाति में स्थान मिला और वे 'राजपूत' कहलाये। इसी प्रकार गोंड आदि आदिवासियों को भी, जिन्होंने राजनीतिक दृष्टि से महत्त्व प्राप्त कर लिया था, क्षत्रियों के रूप में मान्यता प्राप्त हो गयी।मुसलमानों के आक्रमण एवं देश को विजय कर लेने के समय तक भारतीय समाज में जाति व्यवस्था एक गतिशील संस्था थी। मुसलमानों के आने के बाद जाति बन्धन और कड़े पड़ गये। लड़ाई के मैदान में मुसलमानों का मुकाबला करने में असमर्थ होने पर हिन्दुओं ने अपनी रक्षा निष्क्रिय रूप से जातीय प्रतिबन्धों की कड़ाई में और वृद्धि करते हुए की। इस रीति से भारत में मुसलमानों के अनेक शताब्दियों के शासनकाल में हिन्दू तथा हिन्दू धर्म को जीवित रखा गया। आधुनिक काल में जाति प्रथा की कड़ाई हिन्दुओं में आधुनिक ज्ञान और विचारों के प्रसार के फलस्वरूप काफ़ी शिथिल पड़ गयी है। भारतीय गणतंत्र की नीति धीरे-धीरे जातीय भेदभाव और प्रतिबन्धों को समाप्त करने की है। (हिस्ट्री आफ कास्ट इन इंडिया' ; ई. सेनार्ट 'कास्ट इन इंडिया' ; जे. एच. हट्टन, 'कास्ट इन इंडिया', १९४६)
जाफर खां
देखिये, 'मुर्शिदकुली खां'।
जाब चारनाक
ईस्ट इंडिया कम्पनी की हुगली नदी के किनारे स्थित कोटी का मुखिया। शायस्ता खां के बाद नवाब इब्राहीम खां जब बंगाल का सूबेदार बना तो उसके निमंत्रण पर जाब चारनाक ने वह स्थान चुना जहाँ २४ अगस्त १६९० ई. को कलकत्ता नगर की नींव पड़ी। अगले वर्ष उसको नवाब का फरमान मिला कि तीन हजार रु. सालाना रकम देने पर अंग्रेजों के माल पर चुंगी माफ कर दी जायगी। इस प्रकार जाब चारनाक ने बंगाल में कलकत्ता महानगरी और भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी के राज्य का शिलान्यास किया। (सी. आर. विल्सन कृत 'ओल्ड फोर्ट विलियम इन बंगाल', दो खण्ड)
जामा समजिद
मुसलमानों द्वारा सामूहिक रूप से नमाज पढ़ने के लिए बड़ी-बड़ी मसजिदों का निर्माण करना मुगल वास्तुकला की विशेषता रही है। जामा मसजिदें कई हैं। सांभल की जामा मसजिद बाबर ने १५२६ ई. में बनवायी। फतहपुर सीकरी की जामा समजिद अकबर ने तथा दिल्ली की शाहजहां ने बनवायी। शाहजहां ने आगरा में भी दूसरी जामा मसजिद बनवायी। बीजापुर की जामा मसजिद १५६५ ई. में सुल्तान अली आदिलशाह प्रथम (दे.) ने तथा बुरहानपुर की जामा मसजिद १५८८ ई. में खानदेश के फारूकी वंश के बादशाह अली खां ने बनवायी। दिल्ली की जामा मसजिद इन सब मसजिदों से बड़ी और आलीशान है। इसे बनाने में चौदह साल (१६४४-५८ ई.) लगे और यह मुगल राजधानी के केन्द्र में स्थित थी।
जालिम
इस विशेषण का प्रयोग बहमनी सुल्तान हुमायूं (दे.) (१४५७-६१ ई.) (दे.) के लिए किया जाता था।
ज़ालिम सिंह
राजपूताना के कोटा राज्य का राजपूत शासक। इसने १८१७ ई. में ईस्ट इंडिया कम्पनी के साथ सुरक्षा और स्थायी मैत्री की आश्रित संधि कर ली जिसके परिणामस्वरूप वह मराठों के आक्रमण से अपने राज्य तथा परिवार की रक्षा करने में सफल हो गया। शीघ्र ही राजपूताना के दूसरे शासकों ने भी उसका अनुसरण किया।
जालौक
राजतरंगिणी (दे.) के अनुसार अशोक का पुत्र, उत्तराधिकार के रूप में कश्मीर का राज्य उसे मिला। कहा जाता है कि वह और उसकी रानी ईशान देवी शिव के उपासक थे, उसने बहुत से म्लेच्छों को कश्मीर से बाहर निकाल दिया। अशोक के किसी शिलालेख में उसका उल्लेख नहीं है। उसका भी कोई शिलालेख नहीं मिलता। राजतरंगिणी में उसका जो विवरण मिलता है, उससे मालूम होता है कि स्वयं सम्राट् अशोक के परिवार के सभी सदस्य बौद्धधर्म के अनुयायी नहीं थे।
जावली
सत्रहवीं शताब्दी के मध्य में महाराष्ट्र का एक छोटा-सा राज्य। उसके राजा चन्द्रराव ने शिवाजी के द्वारा स्वराजय की स्थापना के प्रयत्नों में योग देने से इन्कार कर दिया। इस पर शिवाजी के एक सहायक ने उसका वध कर दिया। १६५५ ई. में यह राज्य शिवाजी के नियंत्रण में आ गया।
जावा
मलय द्वीपपुंज का एक द्वीप। भारत से इसका बहुत प्राचीन काल से सम्पर्क रहा है। इसका उल्लेख यव-द्वीप के रूप में रामायण में मिलता है। ऐतिहासिक काल में हिन्दुओं ने भारत से वहाँ जाकर बस्तियाँ बसायीं। आठवीं से ग्यारहवीं शताब्दी ई. तक यह द्वीप शैलेन्द्र साम्राज्य का भाग रहा। उसका पतन होने पर वहाँ दूसरा हिन्दू राज्य स्थापित हुआ जिसकी राजधानी मजपाहित थी। जावा में बहुत-से हिन्दू तथा बौद्ध मंदिर मिलते हैं, जिनमें सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बोरोबदूर (दे.) में है। मजपाहित के हिन्दू राज्य का पन्द्रहवीं शताब्दी ई. में अंत हो गया। वहाँ के हिन्दू राजा को मुसलमान बना लिया गया तथा द्वीप पर मुसलमानों का अधिकार हो गया।इस प्रकार कुछ काल के लिए जावा से भारत का सम्बन्ध टूट गया। सत्रहवीं शताब्दी में फिरंगियों की व्यापारिक कम्पनियों के आगमन से यह सम्बन्ध फिर स्थापित हो गया। ईस्ट इंडिया कम्पनी ने भारत और जावा दोनों से व्यापार चलाने की कोशिश की। परन्तु जावा में अंग्रेजों का स्थान धीरे-धीरे डच लोगों ने ले लिया। विशेषरूप से १६२३ ई. में अम्बोयना के हत्याकांड के बाद द्वीप पर डच लोगों का प्रभुत्व हो गया और भारत से उसका सम्बन्ध फिर टूट गया। परन्तु नेपोलियन युद्ध के समय १८११ ई. में भारत के गवर्नर-जनरल लार्ड मिण्टो ने जावा में डच लोगों पर चढ़ाई कर दी और द्वीप पर अधिकार कर लिया। परन्तु १८१५ ई. में वियना सम्मेलन के फलस्वरूप यह द्वीप डच लोगों को लौटा दिया गया और अभी हाल तक उनके अधिकार में ही रहा।द्वितीय महायुद्ध के बाद डच लोगों को वहाँ से हटना पड़ा और स्वतंत्र भारतीय गणराज्य के नैतिक तथा राजनीतिक समर्थन से जावा तथा उसके पड़ोस के द्वीपों को मिलाकर इंडोनेशिया के स्वतंत्र राज्य की स्थापना कर दी गयी।