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Bharatiya Itihas Kosh

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जहाजपुर का किला
मेवाड़ से बूंदी को जानेवाले संकीर्ण गिरिपथ की रक्षा करता है। कहा जाता है कि अशोक के पौत्र सम्प्रति ने इसे बनवाया। अनुश्रुतियों के अनुसार उसे अपने पितामह के साम्राज्य का पश्चिमी भाग उत्तराधिकार में मिला था।

जहाज महल
जहाज के आकार का यह महल मालवा के खिलजी बादशाहों की राजधानी मांडू में वास्तुकला की एक उल्लेखनीय कृति थी। यह दो झीलों के बीच में स्थित है। अपने महराबदार बड़े-बड़े कमरों, छतों पर बने चोटीदार मंडपों तथा सुंदर जलाशयों के कारण यह मांडू का सबसे दर्शनीय स्थल है। सम्भवतः इसे सुल्तान महमूद खिलजी (१४३६-१४६९) ने बनवाया था।

जहान खाँ
एक योग्य अफगान सेनापति। अहमदशाह अब्दाली ने १७५७ ई. में अपने लड़के तैमूरशाह को अपना प्रतिनिधि बनाकर लाहौर में रख दिया और जहान खाँ को उसका वजीर बना दिया। जहान खाँ पंजाब में शांति बनाये नहीं रख सका और मराठों ने तैमूर शाह को अपदस्थ करके १७५८ ई. में पंजाब पर अधिकार कर लिया।

जहानशाह
बादशाह बहादूरशाह प्रथम (१७०७-१२ ई.) का चौथा बेटा। १७१२ ई. में बादशाह की मृत्यु होने पर गद्दी पाने के लिए उसके चारों बेटों में जो लड़ाई हुई उसमें इसने भी हिस्सा लिया और मारा गया।

जहानसोज
का अर्थ है दुनिया को जला देनेवाला। यह पदवी गोर के अलाउद्दीन हुसेन को प्रदान की गयी थी। ११५१ ई. में उसने गोर को सर किया और नगर में आग लगा दी। यह आग, सात दिन और सात रात जलती रही। उसने सुल्तान महमूद (दे.) के मकबरे को छोड़कर सारे शहर को भस्म कर दिया।

जाकेमान्ट, विक्टर
एक फ्रेंच वनस्पतिशास्त्री, जो लगभग १८३० ई. में पंजाब में रणजीतसिंह के दरबार में आया। उसने 'भारत से पत्र' नामक पुस्तक में 'शेरे-पंजाब' के सम्बंध से अपने विचार लिखे हैं। वह रणजीतसिंह की जिज्ञासु वृत्ति से बहुत प्रभावित हुआ था और उसे 'एक असाधारण व्यक्ति' मानता था। उसके लिखे ग्रंथों में हिमालय क्षेत्र के पेड़-पौधों तथा उस काल के भारत की सामाजिक अवस्था के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है।

जागीर प्रथा
दिल्ली के प्रारम्भिक सुल्तानों ने शुरू की। इस प्रथा के अंतर्गत सरदारों को नकद वेतन न देकर जागीरें प्रदान कर दी जाती थीं। उन्हें इन जागीरों का प्रबंध करने तथा मालगुजारी वसूल करने का हक दे दिया जाता था। यह सामंतशाही शासन-प्रणाली थी और इससे केन्द्रीय सरकार कमजोर हो जाती थी। इसलिए सुल्तान गयासुद्दीन बलवन (दे.) ने इस पर रोक लगा दी और सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने इसे समाप्त कर दिया। परंतु सुल्तान फीरोजशाह तुगलक (दे.) ने इसे फिरसे शुरू कर दिया और बाद के काल में भी यह चलती रही। शेरशाह और अकबर दोनों इस प्रथा के विरोधी थे। वे इसको समाप्त कर उसके स्थान पर सरदारों को नकद वेतन देने की प्रथा शुरू करना चाहते थे। परंतु बाद के मुगल बादशाहों ने यह प्रथा फिर शुरू कर दी। उनको कमजोर बनाने और उनके पतन में इस प्रथा का भी हाथ रहा है।

जाजऊ की लड़ाई
१७०७ ई. में शाहजादा मुअज्जम (बाद में बहादुर शाह प्रथम) और उसके छोटे भाई शाहजादा आजम के बीच हुई। इस लड़ाई में आजम हार गया और मारा गया। इस प्रकार उसके बड़े भाई को गद्दी का उत्तराधिकारी होने का रास्ता साफ हो गया।

जाजनगर
मुसलमानों ने उड़ीसा का उल्लेख इसी नाम से किया है।

जाट
ये लोग बड़े हृष्ट-पुष्ट होते हैं और आगरा, मथुरा, मेरठ के, आसपास अधिकतर रहते हैं। कुछ नृवंशशास्त्री राजपूतों की तरह इनकी उत्पत्ति भी विदेशी जातियों से मानते हैं। राजपुतों की तरह जाटों का अठारहवीं शताब्दी से पूर्व कोई राज्य नहीं रहा। परंतु वे बड़े स्वातंत्र्यप्रिय होते हैं, अतः औरंगजेब की हिन्दू-विरोधी नीति से अत्यंत क्षुब्ध हो गये। १६८१ ई. में उन्होंने बगावत कर दी, अकबर के मकबरे को लूट लिया, उसकी कब्र खोदकर हड्डियां निकालकर जला दीं और मुगल साम्राज्य के लिए अच्छी खासी आफत पैदा कर दी। बाद में उन्हें चूड़ामन सिंह के रूप में एक नेता मिल गया। उसने थून में किला बनवाया। वह एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना करने का स्वप्न देखता था, परंतु १७२१ ई. में उसे वश में कर लिया गया। चूड़ामन के भतीजे बदनसिंह ने जाटों को संगठित किया और उनका एक राज्य स्थापित कर दिया। १७५६ ई. में उसकी मृत्यु हो जाने पर उसके उत्तराधिकारी सूरजमल के राज्यकाल में यह राज्य भरतपुर के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसके अंतर्गत आगरा, धौलपुर, मैनपुरी, हाथरस, अलीगढ़, इटावा, मेरठ, रोहतक, फर्रुखनगर, मेवात, रेवाड़ी, गुड़गांव तथा मथुरा जिले थे। सूरजमल (१७५६-६३ ई.) के समय में जाट इतने शक्तिशाली हो गये थे कि मराठों ने अहमदशाह अब्दाली से लड़ने के लिए उनकी सहायता मांगी। परंतु मराठा सेनापति सदाशिव राव भाऊ (दे.) के घमंडपूर्ण व्यवहार ने जाटों को इतना नाराज कर दिया कि उन्होंने पानीपत (दे.) की तीसरी लड़ाई में कोई भाग नहीं लिया। परंतु, जाटों को वास्तविक खतरे का सामना पूर्व की दिशा से करना पड़ा। विस्तारशील, ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य ने लार्ड वेलेजली (दे.) के प्रशासनकाल में भरतपुर का किला ले लेने की कोशिश की, परंतु सफलता नहीं मिली (१८०५ ई.)। परंतु जाट थोड़े ही समय चैन से बैठ पाये। १८२६ ई. में अंग्रेजों ने भरतपुर का किला जीत लिया और जाटों के स्वतंत्र राज्य का अंत हो गया।


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