बंगाल में वैष्णव धर्म के संस्थापक, जन्म १४८५ ई. में बंगाल में नवद्वीप के विद्वान् ब्राह्मण परिवार में। अपने आलौकिक पांडित्य के कारण वे शीघ्र ही विख्यात हो गये। २४ वर्ष की आयु में उन्होंने संन्यास ले लिया। वृद्धा मां और सुन्दर पत्नी को घर में छोड़कर उन्होंने अपने ४८ वर्षों के छोटे से जीवन का शेषकाल प्रेम और भक्ति के संदेश का प्रचार करने में व्यतीत किया। अठारह वर्ष वे उड़ीसा में रहे और ६ वर्ष उन्होंने दक्षिण भारत, वृन्दावन, गौड़ और अन्य स्थानों पर बिताये। उनके भक्त और अनुयायी उन्हें भगवान् विष्णु का अवतार मानते थे। वे पंडितों के कर्मकाण्डों के विरुद्ध थे। उन्होंने जनता को हरि (विष्णु) के प्रति आस्था रखने का उपदेश दिया। उनका विश्वास था कि प्रेम और भक्ति के माध्यम से ईश्वर की अनुभूति हो सकती है। उनका उपदेश सभी जाति और पंथ के लोगों के लिए उन्मुक्त था। हिन्दू और मुसलमान, सभी ने उनकी शिष्यता ग्रहण की। उन्होंने भक्ति-भावना और उसकी महत्ता को फिर से जागृत किया। उनके सिद्धान्तों से पूर्वी भारत, खासकर बंगाल के लोग बड़ी संख्या में प्रभावित हुए। चैतन्य के जीवन एवं उपदेशों पर काफी बड़ा साहित्य-भण्डार रचा गया है। उन्होंने खोल (मृदंग वाद्य) की ताल पर जो कीर्तन गाये हैं, वे आज भी बंगाल में, खासकर मणिपुर में बहुत लोकप्रिय हैं। (कविराज कृष्णदास कृत 'चैतन्य चरितामृत')
चैतन्य-भागवत
इसमें चैतन्यदेव का जीवन वृत्तांत और उनकी शिष्य परंपरा और उपदेशों का विवरण है। यह ग्रंथ वृन्दावनदास (जन्म १५०७ ई.) द्वारा बंगला में लिखा गया है। इससे बंगाल में चैतन्य के समय के सामाजिक जीवन के बारे में महत्त्वपूर्ण सूचनाएं मिलती हैं।
चैतन्य-मंगल
चैतन्य के जीवन पर लिखी गयीं दो पुस्तकों का नाम। इनमें से एक जयानन्द और दूसरी त्रिलोचनदास द्वारा विरचित है। जयानंद का जन्म १५२३ ई. में बर्दवान जिले में हुआ था। इन दोनों में त्रिलोचनदास की पुस्तक अधिक लोकप्रिय है।
चैत्य-गुहाएं
देखिये, 'गुहा वास्तुकला'।
चोल
प्राचीन दक्षिणापथ के तीन प्रमुख राज्यों में से एक। अन्य दो राज्य थे--पाण्ड्य और चेर या केरल। चोल राज्य या चोलमण्डलम् समुद्र के पूर्वी किनारे पर नैलोर से पुडुकोट्टइ तक फैला हुआ था। अशोक के अभिलेखों में इसका वर्णन एक स्वतंत्र राज्य के रूप में हुआ है, जहाँ मौर्य सम्राट् ने बौद्ध भिक्षुकों को भेजा था। चोल राज्य के निवासी तमिलभाषी थे। उन्होंने तमिल भाषा में उच्च कोटि के साहित्य का विकास किया, तिरुवल्लूर रचित 'कुरल' इसका ज्वलंत उदाहरण है। इतिहास में करिकाल (लगभग १०० ई.) का उल्लेख चोलवंश के प्रथम राजा के रूप में हुआ है, जिसने पुहार या पुगार की नींव डाली, सिंहल से लम्बे समय तक युद्ध किया और सिंहली युद्धबंदियों से कावेरी नदी के किनारे सौ मील लम्बे बाँध का निर्माण कराया और चोलों की राजधानी को उरगपुर (उरयूर) से कावरी पत्तनम् ले गया। उसका राजवंश कब और कैसे समाप्त हुआ यह ठीक-ठीक पता नहीं, लेकिन लगता है कि चोल राज्य का ह्रास ईसा की आरम्भिक शताब्दियों में उस समय आरंभ हुआ जब उत्तर में पल्लव (दे.) और दक्षिण में पाण्ड्य (दे.) शक्तियाँ उभर रही थीं। सातवीं शती के पूर्वार्ध में जब ह्वेनसांग ने इस प्रदेश की यात्रा की, चोल राज्य सिर्फ कुडप्पा जिले तक ही सीमित था और उसका शासक पल्लव नरेश नरसिंह वर्मा (दे.) का सामंत था। ७४० ई. में चालुक्य राजा विक्रमादित्य ने पल्लवों को पराजित कर उनकी राजधानी काँची पर अधिकार कर लिया। इस हार ने पल्लवों को कमजोर कर दिया और चोल शासकों को एक बार फिर राज्य-विस्तार का अवसर मिला। नवीं शताब्दी के मध्य में चोल राजा विजयालय ने ३४ वर्षों तक शासन किया। उसके पुत्र और उत्तराधिकारी आदित्य (लगभग ८८०-९०७ ई.) ने पल्लवनरेश अपराजित को हराया। इससे चोल राज्य फिर उत्कर्ष को प्राप्त हो गया। आदित्य के पुत्र परान्तक प्रथम ने पल्लवों की शक्ति को पूरी तरह कुचल दिया, पाण्ड्यों की राजधानी मदुरा पर अधिकार कर लिया और सिंहलद्वीप पर आक्रमण किया। इस प्रकार चोल शक्ति की प्रतिस्थापना वास्तव में परान्तक प्रथम ने की और उसके वंशजों ने १३ वीं शताब्दी के अंत तक शासन किया।
चोल राजाओं की सूची इस प्रकार है--राजादित्य प्रथम (९४७-४९ ई.), गांधारादित्य (९४९-५७ ई.), अरिंजय (९५७ ई.), परान्तक द्वितीय (९५७-७३ ई.), मदुरान्तक उत्तम (९७३-८५ ई.), राजराज प्रथम (९८५-१०१६ ई.), राजेन्द्र प्रथम (१०१६-४४ ई.), राजाधिराज प्रथम (१०४४-५४ ई.), राजेन्द्रदेव द्वितीय (१०५४-६४ ई.), वीरराजेन्द्र (१०६४-६९ ई.), अधिराजेन्द्र (१०६९-७० ई.), राजेन्द्र तृतीय कुलोत्तंग प्रथम (१०७०-११२२ ई.), विक्रमचोल (११२२-३५ ई.), कुलोत्तुंग द्वितीय (११३५-५० ई.), राजराज द्वितीय (११५०-७३ ई.), राजाधिराज द्वितीय (११७९-१२१८ ई.), राजराज तृतीय (१२१८-४६ ई.) और राजेन्द्र चतुर्थ (१२४६-७९ ई.)।
चोल नरेशों में यह परम्परा थी कि वे अपने उत्तराधिकारी को जीवनकाल पर्यन्त सहयोगी बनाकर रखते थे। राजराज प्रथम (९८५-१०१६ ई.) सम्पूर्ण मद्रास, मैसूर, कुर्ग और सिंहलद्वीप (श्रीलंका) को अपने अधीन करके पूरे दक्षिणी भारत का सर्वशक्तिमान् एकछत्र सम्राट् बन गया। उसने अपनी राजधानी तंजोर में भगवान शिव का राजराजेश्वर नामक मंदिर बनवाया जो आज भी उसकी महानता की सूचना देता है। उसके पुत्र और उत्ताराधिकारी राजेन्द्र प्रथम (१०१६-४४ ई.) के पास शक्तिशाली नौसेना थी जिसने पेगू, मर्तबान तथा अण्डमान निकोबार द्वीपों को जीता। उसने बंगाल और बिहार के शासक महीपाल से युद्ध किया और उसकी सेनाएँ कलिंग पार करके ओड्र (उड़ीसा), दक्षिण कोसल, बंगाल और मगध होती हुई गंगा तक पहुंचीं। इस विजय के उपलक्ष्य में उसने 'गंगैकोंड' की उपाधि धारण की। उसका पुत्र और उत्तराधिकारी राजाधिराज (१०४४-५४ ई.) चालुक्य राजा सोमेश्वर के साथ हुए कोप्पम के युद्ध में हारा और मारा गया। परन्तु वीर राजेन्द्र (१०६४-६९) ने चालूक्यों को कुडल-संगमम् के युद्ध में परास्त कर पिछली हार का बदला ले लिया और चोल शक्ति को उत्कर्ष प्रदान किया। किंतु शीघ्र ही उत्तराधिकार के लिए युद्ध छिड़ गया, जिसका अंत होने पर चोल सिंहासन राजेन्द्र कुलोत्तुंग प्रथम (१०७०-११२२ ई.) को प्राप्त हुआ। राजेन्द्र कुलोत्तुंग की मां चोल राजकुमारी और पिता चालुक्य राज्य का स्वामी था। इस प्रकार कुलोत्तुंग ने चालुक्य-चोलों के एक नये वंश की स्थापना की। उसने चालीस वर्षों तक शासन किया और कलिंग पर फिर से आधिपत्य स्थापित किया। इसके बाद लगातार चार पीढ़ियों तक पाण्डय, होयसल, काकतीय आदि पड़ोसी राज्यों से युद्धरत रहने के कारण चोल राज्य का ह्रास होने लगा और कुछ समय के लिए दक्षिण में पाण्डय राजाओं का प्रभुत्व स्थापित हो गया। इसके पश्चात् १३१० ई. में अलाउद्दीन खिलजी के सेनापति मलिक काफूर के नेतृत्व में तुर्कों ने दक्षिण के सभी हिन्दू राज्यों को बुरी तरह रौंद डाला। चौदहवीं शताब्दी के अन्त में ये राज्य विजयनगर साम्राज्य के अंतर्गत आ गये।
चोल प्रशासन
बहुत ही संगठित और सुव्यवस्थित था। यह ग्राम-पंचायत प्रणाली पर आधारित था। प्रशासन की सुविधा की दृष्टि से सम्पूर्ण चोल राज्य छः प्रांतों में बँटा हुआ था, जिनको मण्डलम् कहा जाता था। मण्डलम् के उप-विभाग कोट्टम् (कमिश्नरी) और कोट्टम् के उपविभाग नाडु (जिला) थे। नाडु के अन्तर्गत कुर्रम (ग्रामसमूह) और ग्राम होते थे। अभिलेखों में नाडु (जिला) की सभा को नाट्टर और नगर की श्रेणियों को 'नगरतार' कहा गया है। सबसे अधिक विकसित और सुसंगठित शासन गाँव की सभा अथवा महासभा का था। सभा या महासभा के सदस्य गाँव के निवासियों द्वारा प्रतिवर्ष नियमतः निर्वाचित होते थे। निर्वाचन और सदस्यता की योग्यता के नियम बने हुए थे। इन सभाओं को ऊँचे अधिकार प्राप्त थे और उनका अपना कोषागार था। प्रत्येक मण्डलम् को पूर्ण स्वायत्तता प्राप्त थी लेकिन राजा के प्रशासन को नियंत्रित करने के लिए कोई केन्द्रीय विधानसभा नहीं थी। भूमि की उपज का लगभग छठा भाग सरकार को लगान के रूप में मिलता था। लगान अनाज के रूप में या स्वर्ण मुद्राओं में अदा किया जा सकता था। चोल राज्य में प्रचलित सोने का सिक्का 'कासु' कहलाता था जो १/६ औंस का होता था। चोल राजाओं के पास विशाल स्थलसेना के साथ-साथ मजबूत जहाजी बेड़ा भी था। चोल राजाओं ने सिंचाई की बड़ी-बड़ी योजनाएँ पूरी कीं, सड़कों का निर्माण किया और उन्हें सुंदर, साफ ढंग से रखा।चोल प्रशासन प्रणाली वास्तव में अत्यन्त उन्नत थी और उसके अन्तर्गत जनता को पर्याप्त स्वायत्त शासन प्राप्त था (एस. के. आयंगर कृत -'एशियेंट इंडिया', एन. के. शास्त्री कृत-'दि चोल')
चोल वास्तु
विशुद्ध रूप से भारतीय कृति, इसपर विदेशी प्रभाव के कोई चिह्न नजर नहीं आते। चोल वास्तु का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण तंजौर का राजराजेश्वर नामक शिवमंदिर है, जिसे राजराज महान् (लगभग ९८५-१०१६ ई.) ने बनवाया था। वास्तुकला और मूर्तिकला के अन्य भव्य उदाहरण गंगैकोंड-चोलपुरम् में मिलते हैं, जिसे राजेन्द्र ने नयी राजधानी बनाया था। विशाल मंदिर के साथ-साथ इस नगरी में एक भव्य प्रासाद और विशाल कृत्रिम झील भी थी जिसपर १५ मील लंबा तटबंध बनाया गया था। अब इन सबके ध्वंसावशेष ही रह गये हैं। चोल वास्तु के बाद के नमूने मदुराई, श्रीरंगम्, रामेश्वरम तथा चोल मण्डल तट पर स्थित अन्य स्थानों में मिलते हैं। जैसा कि फरगुसन ने लिखा है, चोल वास्तु-कलाकारों ने बृहदाकार कल्पना की और जौहरियों की भांति सर्वांगसुंदर कृतियाँ प्रस्तुत कीं। चोलकालीन मंदिर अपनी विशालता एवं भव्यता के लिए विख्यात हैं। उनकी कई विशेषताएं हैं, पहली विशेषता यह है कि वे अनेक मंजिलों वाले शिखर से मंडित होते हैं। तंजोर के शिवमंदिर के शिखर की ऊंचाई १९० फृट है और इसमें १४ मंजिलें हैं। इसका शीर्षबिन्दु २५ वर्गफुट का एक पत्थर तराश कर बनाया गया है जो ८० टन वजनी है। इन मंदिरों की दूसरी विशेषता अधिष्ठान पीठ से लेकर शीर्ष-बिन्दु तक इनका प्रतिमालंकरण है। इनकी तीसरी विशेषता इनका विशाल मुख्य द्वार है जिसे गोपुरम् कहते हैं। ये गोपुरम् कहीं-कहीं मंदिरों से भी ऊंचे मीलों दूर से दिखाई पड़ते हैं। उदाहरणतः कुम्भकोणम् का गोपुरम् अत्यंत विशाल और भव्य है। चोल मंदिरों की चौथी विशेषता यह है कि इनमें एक के बाद एक प्रांगण होते हैं जो गौण मंदिरों और विशाल मंडपों से युक्त होते हैं। कुछ मंडप तो एक-एक सहस्त्र स्तम्भों पर आधारित मिलते हैं। (जे. फरगुसन कृत 'हिस्ट्री आफ इंडियन एण्ड ईस्टर्न आर्कीटेक्चर'; ए. के. कुमारस्वामी कृत 'हिस्ट्री आफ इंडियन एण्ड इंडोनेशियन आर्ट')
चौथ
किसी क्षेत्र पर लगाया जाने वाला वह कर, जो वहां की राजस्व आय का चौथाई अंश होता था। सेनानायक यह कर उन क्षेत्रों पर थोपते थे जिन्हें वे कुचलने या रौंदने में सक्षम थे परंतु उन्हें सीधे अपने शासन के अन्तर्गत नहीं रखना चाहते थे। चौथ की वसूली सबसे पहले रामनगर के राजा ने दमण में पुर्तगाली प्रजा से की थी। शिवाजी ने इसे अपने राज्य के राजस्व का अंतरंग साधन बना दिया। उन्होंने इसकी वसूली १६७० ई. में खानदेश से की जो उस समय मुगल साम्राज्य के अन्तर्गत था। इसके बाद यह उनकी वित्तीय आय का नियमित स्रोत बन गया। इस परम्परा को शिवाजी के उत्तराधिकारियों ने भी कायम रखा। इस बात पर लोगों की अलग-अलग राय है कि यह कर एक प्रकार की लूट थी या फिर सुरक्षा की वचनबद्धता के एवज़ में लिया जानेवाला धन था। व्यवहार में यह कर एक प्रकार की बलात् सैनिक वसूली थी। (रानाडे कृत 'दि राइज आफ दि मराठा पावर'; एस. एन. सेन कृत 'एडमिनिस्ट्रेटिव सिस्टम आफ दि मराठाज़')।
चौरी-चौरा
उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले में स्थित, जहाँ १९२२ ई. में भारत में अंग्रेजी राज्य के विरुद्ध चलाये जानेवाले जन आन्दोलन ने हिंसक रूप धारण कर लिया था। यह आंदोलन १९२० ई. में महात्मा गांधी के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा असहयोग आन्दोलन के रूप में आरम्भ किया गया था। महात्मा गांधी ने इस बात पर जोर दिया था कि आंदोलन का स्वरूप अहिंसक रहना चाहिये। आंदोलनकारियों के हिंसा पर उतर आने से गांधीजी को बहुत सदमा पहुंचा और उन्होंने यह स्वीकार किया कि उनसे भारी भूल हुई है। उन्होंने तुरन्त असहयोग आंदोलन स्थगित कर दिया। गांधीजी के इस आदेश से बहुत से कांग्रेसजनों को भारी निराशा हुई। वाइसराय लार्ड रीडिंग ने इस कांड का फायदा उठाकर गांधीजी को इंसा भड़काने के अभियोग में गिरफ्तार कर लिया। गांधीजी पर मुकदमा चला और छः वर्ष कैद की सजा हुई। इस चौरी-चौरा काण्ड से असहयोग आंदोलन को गहरा धक्का लगा।
चौसा का युद्ध
जून १५३९ ई. में दूसरे मुगल बादशाह हुमायूं और अफगान शासक शेरशाह (दे.) के बीच हुआ। इस युद्ध में हुमायूं की बुरी तरह पराजय हुई। वह अपने घोड़े के साथ गंगा में कूद पड़ा और एक भिश्ती की मदद से डूबने से बच गया। हुमायूं उसकी मशक के सहारे नदी पार कर आगरा भाग गया और शेरशाह बिहार और बंगाल का स्वतंत्र शासक बन गया। चौसा गंगा के तट पर बक्सर के निकट स्थित है, इसलिए चौसा के युद्ध को कभी-कभी बक्सर का युद्ध भी कहते हैं।