इसका जन्म १९वीं शताब्दी में हुआ। ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा अठारहवीं शताब्दी में चीन से चाय लायी गयी थी। अठारहवीं शताब्दी के अन्त में जंगली चाय के पौधों को आसाम में उगते हुए देखा गया था, परन्तु उनके विषय में सन्देह था कि उनकी पत्तियाँ उपभोग्य हैं कि नहीं। १८३४ ई. में लार्ड विलियम बेंटिक चाय के पौधों के बीज और उनको उगाने में कुशल श्रमिकों को चीन से ले आया और एक सरकारी चाय का बगीचा स्थापित किया जो १८३९ में असम टी कम्पनी के हाथ बेच दिया गया। इस कम्पनी ने कुछ प्रयोगों के उपरान्त भारत में भारतीय मजदूरों द्वारा चाय के पौधे उगाने में सफलता प्राप्त कर ली। १८५० ई. के बाद चाय उद्योग का द्रुतगति से विस्तार होने लगा। अब चाय के पौधों का रोपण केवल आसाम में ही नहीं वरन् काचार, दार्जिलिंग, नैनीताल तथा कांगड़ा की घाटी में व्यापक रूप से होने लगा है। यह उद्योग आज भारत का विदेशी मुद्रा अर्जित करनेवाला सर्वोत्तम उद्योग है।
चारुमती
मौर्य सम्राट् अशोक (लगभग ईसा पूर्व २७२-२३२) की पुत्री। उसने देवपाल क्षत्रिय से विवाह किया था लेकिन बाद में वह बौद्ध भिक्षुणी बन गयी। वह ईसा पूर्व २५० या २४९ में पिता के साथ नेपाल की यात्रा पर गयी और पिता के लौट आने के बाद भी वहीं रह गयी। उसने वहाँ अपने दिवंगत पति के नाम पर देवपत्तन नामक नगर की स्थापना की और खुद एक बिहार में भिक्षुणी की तरह रहने लगी। इस विहार का निर्माण चारुमती ने पशुपतिनाथ मन्दिर के उत्तर में कराया। चारुमती के नाम पर यह विहार आज भी विद्यमान है।
चार्टर ऐक्ट (कानून)
१७९३, १८१३, १८३३ और १८५३ ई. में पास किये गये। ईस्ट इंडिया कम्पनी का आरंभ महारानी एलिजाबेथ प्रथम द्वारा वर्ष १६०० ई. के अंतिम दिन प्रदत्त चार्टर के फलस्वरूप हुआ। इस चार्टर में कम्पनी को ईस्ट इंडीज में व्यापार करने का एकाधिकार दिया गया था। भारत में घटनेवाली अनेक विलक्षण राजनीतिक घटनाओं के फलस्वरूप १७९३ ई. में कम्पनी को व्यापार और वाणिज्य संबंधी अधिकारों के साथ-साथ भारत के विशाल क्षेत्र पर प्रशासन करने का दायित्व भी सौंपा गया। कम्पनी का पहला चार्टर १७९४ ई. में समाप्त होनेवाला था। कम्पनी की गतिविधियों के बारे में जाँच-पड़ताल तथा कुछ विचार-विमर्श करने के बाद १७९३ ई. में एक नया चार्टर कानून पास किया गया, जिसके द्वारा कम्पनी की कार्य-अवधि और अधिकार २० वर्षों के लिए पुनः बढ़ा दिये गये। इसके बाद १८५८ ई. तक हर बीस वर्षों के उपरान्त एक नया चार्टर कानून पास करने की प्रथा-सी बन गयी। १८५८ ई. में ईस्ट-इंडिया कम्पनी को समाप्त कर दिया गया और उसके अधिकार तथा शासित क्षेत्र को महारानी विक्टोरिया ने सीधे अपने हाथ में ले लिया।
१७९३ ई. के चार्टर कानून में कोई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन नहीं किया गया था और कम्पनी को भारत में व्यापार वाणिज्य पर एकाधिकार जमाये रखने तथा अपने हस्तगत क्षेत्रों पर शासन करने की पूरी छूट दे दी गयी थी। १८१३ ई. के चार्टर कानून ने भारत के साथ व्यापार करने के कम्पनी के एकाधिकार को समाप्त कर दिया और इंग्लैण्ड के अन्य व्यापारियों को भी आंशिक रूप में भारत के साथ निजी व्यापार, वाणिज्य और औद्योगिक संबंध स्थापित करने का अवसर दिया, किन्तु चीन से होनेवाले कम्पनी के व्यापारिक एकाधिकार को समाप्त नहीं किया। इस चार्टर कानून ने कम्पनी के भारतीय क्षेत्रों में ईसाई पादरियों को भी प्रवेश करने की अनुमति दे दी तथा भारतीय प्रशासन में एक धार्मिक विभाग और जोड़ दिया। इस चार्टर कानून में यह भी कहा गया कि भारतवासियों के हितों की रक्षा करना और उन्हें खुशहाल बनाना इंग्लैण्ड का कर्तव्य है और इसके लिए ऐसे कदम उठाये जाने चाहिये जिनसे उनको उपयोगी ज्ञान उपलब्ध हो और उनका धार्मिक और नैतिक उत्थान हो। लेकिन यह घोषणापत्र केवल आदर्श अभिलाषा बनकर रह गया और इसपर कोई कार्रवाई नहीं की गयी।
१८३३ ई. के चार्टर कानून ने ईस्ट इंडिया कम्पनी की व्यापारिक भूमिका समाप्त कर दी और उसे पूरी तरह भारतीय प्रशासन के लिए इंग्लैण्ड के राजा के राजनीतिक अभिकरण के रूप में परिणत कर दिया। गवर्नर-जनरल की परिषद् में कानून के वास्ते एक सदस्य को और शामिल कर दिया गया तथा कानून आयोग की भी स्थापना की गयी, जिसके फलस्वरूप बाद में इंडियन पेनल कोड (भारतीय दण्ड संहिता) और इंडियन सिविल एण्ड क्रिमिनल प्रोसीजर कोड (भारतीय दीवानी एवं फौजदारी प्रक्रिया संहिता) लागू हुआ। इस प्रकार भारत के वर्तमान सरकारी कानूनों का विकास १८३३ ई. के चार्टर से शुरू हुआ। गवर्नर जनरल और उसकी परिषद् को एक साथ बैठकर कानून बनाने का अधिकार भी दिया गया। इसमें इस सिद्धांत का प्रतिपादन भी किया गया कि सरकारी पदों के लिए अगर कोई भारतीय शैक्षणिक तथा अनय योग्यताएँ रखता है तो उसे केवल धर्म या रंगभेद के आधार पर इस पद से वंचित नहीं किया जायगा। यह घोषणापत्र भी काफी अरसे तक पवित्र भावना की अभिव्यक्ति मात्र रहा, लेकिन अन्त में यह काफी महत्तवपूर्ण सिद्ध हुआ।
चार्टर कानूनों की श्रृंखला में १८५३ ई. का चार्टर कानून चौथा और अन्तिम था। इसमें कम्पनी को सरकारी अभिकरण के रूप में अपना काम जारी रखने का अधिकार दिया गया और कानून आयोग के काम को पूरा करने का प्रबन्ध किया गया। इसमें यह प्राविधान भी किया गया कि कानूनों को बनाने के लिए गवर्नर-जनरल की परिषद् में छः सदस्यों को और जोड़ा जाय। इस चार्टर ने इंडियन सिविल सर्विस में प्रवेश के लिए खुली प्रतियोगिता की प्रणाली शुरू की। इससे पहले इस सेवा में सिर्फ कम्पनी-डाइरेक्टरों के सिफारिशी लोगों को ही प्रवेश पाने का विशेषाधिकार प्राप्त था। लेकिन अब इस सेवा का द्वार मेधावी अंग्रेजों और भारतीयों, दोनों के ही लिए खुल गया।
चार्ल्स द्वितीय
१६६०-८५ ई. में इंग्लैंड का बादशाह, जिसे पुर्तगाल की राजकुमारी कैथरीन ब्रेगेन्जा के साथ शादी करने पर पुर्तगाली के राजा से बम्बई द्वीप दहेज के रूप में मिला था। १६६८ ई. में चार्ल्स ने यहाँ की जमीन ईस्ट इंडिया कम्पनी को १० पौण्ड के सालाना किराये के बदले पट्टे पर उठा दी। इसके बाद ही बम्बई की प्रगति और समृद्धि का श्रीगणेश हुआ। १६८७ ई. में सूरत के स्थान पर बम्बई पश्चिमी तट पर अंग्रेजों की मुख्य बस्ती बन गयी। चार्ल्स द्वितीय ने भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी की तरक्की के लिए विभिन्न रीतियों से और भी सहायता प्रदान की।
चार्वाक
भारतीय दर्शन की भौतिकवादी विचारधारा (लोकायत) का व्याख्याता। कट्टरपंथी हिन्दू दार्शनिकों से सर्वथा विपरीत वेदों को प्रमाण नहीं माना ; शरीर से परे अजर-अमर आत्मा होने के सिद्धांत का खण्डन किया; पुनर्जन्म के सिद्धान्त को मानने से इनकार कर दिया और एक ऐसे दर्शन का प्रतिपादन किया जिसका मूलतत्व है कि जब तक जिओ, खाओ, पिओ और मस्त रहो, क्योंकि एक बार शरीर के भस्म हो जाने पर आत्मा नाम की कोई चीज बाकी नहीं रह जाती है। (डी. आर. शास्त्री कृत 'दि लोकायत स्कूल आफ फिलासफी')
चालुक्य, कल्याणी के
देखिये, 'चालुक्य'।
चालुक्य-चोल
वेंगि के चालुक्य वंश के अट्ठाईसवें नरेश राजेन्द्र तृतीय का वंशज, जिसने पूर्वी चालुक्य और चोल राज्यों को विरासत में प्राप्त कर दोनों को मिला दिया। राजेन्द्र तृतीय ने कुलोत्तुंग चोल की उपाधि ग्रहण की और १०७० से ११२२ ई. तक शासन किया। चोल राज्य पर इस वंश का शासन १५२७ ई. तक रहा। कुलोत्तुंग चोल तृतीय की मृत्यु के बाद इस वंश का पतन हो गया और इसके राज्य को अलाउद्दीन खिलजी की मुस्लिम सेनाओं ने रौंद डाला।
चालुक्य-वंश
छठी शताब्दी ई. के मध्य दक्षिणी भारत में उत्कर्ष को प्राप्त। इसके मूल के बारे में ठीक से कुछ पता नहीं। चालुक्य नरेशों का दावा था कि वे चंद्रवंशी राजपूत हैं और कभी अयोध्या पर शासन करते थे। गुर्जरों की एक शाखा चापस के एक अभिलेख में चालुक्य नरेश पुलकेशी के उल्लेख से कुछ आधुनिक इतिहासकारों ने यह अर्थ निकाला है कि चालुक्य-जो सोलंकी के नाम से भी विख्यात हैं--गुर्जरों से सम्बद्ध थे और राजपूताना से दक्षिण में आकर बसे थे। जो हो, इतना तो निश्चित है कि चालुक्यों के नेता पुलकेशी प्रथम ने ५५० ई. में एक राज्य की स्थापना की जिसकी राजधानी वातापी थी, जो आज बीजापुर जिले में 'बादासी' के नाम से ज्ञात है। पुलकेशी प्रथम ने अपने को दिग्विजयी राजा घोषित करने के लिए अश्वमेध यज्ञ भी किया था। उसके वंश ने, जो वातापी के चालुक्यों के नाम से प्रसिद्ध है, तेरह वर्षों के व्यवधान (६४२-६५५ ई.) को छोड़कर ५५० से लेकर ७५७ ई. तक शासन किया। इस वंश के नरेशों के नाम हैं--पुलकेशी प्रथम (५५०-६६ ई.), कीर्तिवर्मा प्रथम (लगभग ५६६-९७ ई.), मंगलेश (लगभग ५९७-६०८), पुलकेशी द्वितीय (लगभग ६०९-४२), व्यवधान (लगभग ६४२-५५), विक्रमादित्य प्रथम (६५५-८०), विनयादित्य (६८०-९६), विजयादित्य (६९६-७३३), विक्रमादित्य द्वितीय (७३३-७४६) और कीर्तिवर्मा द्वितीय (७४६-५७)। शुरू के इन नौ चालुक्य नरेशों में चौथा पुलकेशी द्वितीय सबसे अधिक प्रख्यात है। उसने ३४ वर्ष (६०८-४२) तक शासन किया। उसका राज्य-विस्तार उत्तर में नर्मदा से लेकर दक्षिण में कावेरी तक हो गया। किन्तु ९४२ ई. में वह पल्लव नरेश नरसिंहवर्मा द्वारा पराजित हुआ और शायद मारा भी गया। इसके बाद अगले तेरह सालों तक चालुक्य वंश पराभव को प्राप्त रहा। ६५५ ई. में पुलकेशी के पुत्र विक्रमादित्य प्रथम ने चालुक्य-शक्ति पुनः प्रतिष्ठित की। पल्लवों के साथ चालुक्यों का संघर्ष जारी रहा और ७४० ई. में चालुक्य नरेश विक्रमादित्य द्वितीय ने पल्लवों की राजधानी कांची पर अधिकार कर लिया। लेकिन उसके पुत्र और उत्तराधिकारी कीर्तिवर्मा द्वितीय को राष्ट्रकूटों के नेता दंतिदुर्ग ने ७५३ ई. में सिहासनच्युत कर दिया।चालुक्यों की शक्ति पर यह दूसरा ग्रहण था। दो शताब्दियों बाद चालुक्य वंश पुनः उत्कर्ष को प्राप्त हुआ जब तैल या तैलप ने, जो अपने को वातापी के सातवें चालुक्य नरेश विजयादित्य का वंशज कहता नये चालुक्य वंश की स्थापना की। यह नया वंश ९७३ से १२०० ई. तक सत्तासीन रहा और इसमें १२ राजा हुए। इनके नाम हैं -तैल या तैलप (९७३-९७), सत्याश्रय (९९७-१००८), विक्रमादित्य पंचम (१००८-१४), अय्यन द्वितीय (१०१५), जयसिंह (१०१५-४२), सोमेश्वर प्रथम (१०४२-६८), सोमेश्वर द्वितीय (१०६८-१०७६), विक्रमादित्य षष्ठ (१०७६-११२७), सोमेश्वर तृतीय (११२७-३८), जगदेवमल्ल (११३८-५१), तैलप तृतीय (११५१-५६) और सोमेश्वर चतुर्थ (११८४-१२००)। कल्याणी के इस चालुक्य राज्य का एक लम्बे अर्से तक तंजोर के चोलवंशी शासकों से संघर्ष चलता रहा। सत्याश्रय को चोल नरेश राजराज ने परास्त किया और चालुक्य राज्य को रौंद डाला। लेकिन सोमेश्वर प्रथम ने इस अपमान का बदला न केवल चोल नरेश राजाधिराज को कोप्पम के युद्ध में करारी हार देकर ले लिया वरन् इस युद्ध में उसने राजाधिराज का वध कर दिया।सातवें नरेश विक्रमादित्य षष्ठ ने, जो विक्रमांक के नाम से भी विख्यात हैं, कांची पर अधिकार कर लिया और प्रसिद्ध कवि विल्हण को संरक्षकत्व प्रदान किया। विल्हण ने विक्रमादित्य के जीवन पर 'विक्रमांक-चरित' नामक सुविख्यात ग्रंथ लिखा है। विक्रमादित्य षष्ठ की मृत्यु के बाद से कल्याणी के चालुक्यों की शक्ति का ह्रास शुरू हो गया। ग्यारहवें राजा तैलप तृतीय के शासनकाल में चालुक्य राज्य का अधिकांश भाग उसके प्रधान सेनापति बिज्जल कलचूरि ने हड़प लिया। चालुक्य राज्य शनै:-शनै: इतना कमजोर हो गया कि २१वीं शती में बारहवें राजा सोमेश्वर चतुर्थ का शासन समाप्त होने तक उसके राज्य का पश्चिमी भाग तो देवगिरि के यादवों ने छीन लिया और दक्षिणी भाग द्वार समुद्र के होयसलों के नियंत्रण में आ गया। वातापी और कल्याणी के चालुक्य नरेशों ने स्वयं कट्टर हिन्दू होने पर भी बौद्ध और जैन धर्म को प्रश्रय दिया। इनके शासन काल में यज्ञ-प्रधान हिन्दू धर्म पर विशेष बल दिया गया। चालुक्य राजाओं ने हिन्दू देवताओं के अनेक मंदिरों का निर्माण कराया। याज्ञवल्क्यस्मृति की 'मिताक्षरा' व्याख्या के लेखक प्रसिद्ध विधिवेत्ता विज्ञानेश्वर चालुक्यों की राजधानी कल्याणी में ही रहते थे। बंगाल को छोड़कर शेष भारत में 'मिताक्षरा' को हिन्दू कानून का सबसे आधिकारिक ग्रंथ माना जाता है। (वी. ए. स्मिथ कृत 'अर्ली हिस्ट्री आफ इंडिया')
चालुक्य, वेंगि के
वातापी के चालुक्यों की एक शाखा। इसे पूर्वी चालुक्य वंश भी कहते हैं। इस वंश का संस्थापक पुलकेशी द्वितीय (दे.) का भाई कुब्ज विष्णुवर्धन था। इसे पुलकेशी द्वितीय ने कृष्णा और गोदावरी नदियों के बीच में स्थित वेंगि राज्य के सिंहासन पर अपने सामंत के रूप में आरूढ़ किया था। इसने पिष्टपुर को, जो आजकल पीठापुरम् कहलाता है, अपनी राजधानी बनाया। ६१५ ई. के लगभग विष्णुवर्धन ने अपने को स्वतंत्र नरेश घोषित कर दिया और इस प्रकार वेंगि के चालुक्यों या पूर्वी चालुक्यों के नये वंश की स्थापना की। इस वंश में २७ शासक हुए। इनके नाम हैं--जयसिंह प्रथम, इन्द्र, विष्णुवर्धन द्वितीय, मंगी, जयसिंह द्वितीय कोक्किली, विष्णुवर्धन तृतीय, विजयादित्य प्रथम, विष्णुवर्धन चतुर्थ, विजयादित्य द्वितीय, विष्णुवर्धन पंचम, विजयादित्य तृतीय, भीम प्रथम, विजयादित्य चतुर्थ, विष्णुवर्धन षष्ठ, विजयादित्य पंचम, तारप या ताल प्रथम, विक्रमादित्य द्वितीय, भीम द्वितीय, युद्धमल्ल, भीम तृतीय, वादप, दानार्णव, शक्तिवर्मा, विमलादित्य, राजराज और राजेन्द्र। इस वंश के उपान्तिम नरेश राजराज ने राजेन्द्र चोल प्रथम की पुत्री से विवाह किया और उसके पुत्र राजेन्द्र ने, जिसने चोल नरेश राजेन्द्र चतुर्थ की पुत्री से विवाह किया, विरासत में प्राप्त वेंगि और चोल राज्यों को एक में मिला दिया। इस प्रकार वेंगि के चालुक्यों या पूर्वी चालुक्यों के वंश का चालुक्य-चोल के वंश में विलय हो गया।