लगभग १५८५ ई. में विजयनगर के परवर्ती राजाओं की राजधानी। १६३९ ई. में चन्द्रगिरि के राजा के अधीनस्थ एक नायक ने ईस्ट इंडिया कम्पनी के मि. डेको मद्रास की भूमि प्रदान कर दी। १६४५ ई. में चंद्रगिरि के राजा रंग द्वितीय ने इस अनुदान की पुष्टि कर दी। इसके बाद वहाँ सेण्ट डेविड नामक किले का निर्माण हुआ। इसी किले के चारों तरफ मद्रास नगर का विकास किया गया है।
चन्द्रगुप्त
कर्कोट वंश का तीसरा राजा। इस वंश की स्थापना सातवीं शती के प्रारंभ में कश्मीर में हुई थी।
चन्द्रगुप्त प्रथम
गुप्त राजाओं के वंश का प्रवर्तक और पहला शासक। शुरू में उसका शासन मगध के कुछ भागों तक सीमित था। बाद को लिच्छिवि कुमारी कुमारदेवी से विवाह करके उसने अपनी शक्ति और राज्य का विस्तार कर लिया। उसने पाटलिपुत्र को राजधानी बनाया, महाराजाधिराज की उपाधि धारण की; स्वयं अपने, अपनी रानी और लिच्छिवियों के नाम पर संयुक्तरूप से सोने के सिक्के चलाये, साम्राज्य का विस्तार मगध के बाहर इलाहाबाद तक किया और एक नये युग का प्रवर्तन किया जो गुप्तकाल के नाम से ज्ञात है। गुप्तकाल का शुभारंभ ३६ फरवरी ३२० ई. से हुआ, जो सम्भवतः चन्द्रगुप्त के राज्याभिषेक की तिथि है। चन्द्रगुप्त प्रथम का अल्प शासनकाल ३३० ई. में समाप्त हो गया। मृत्यु के पहले उसने अपने पुत्र समुद्रगुप्त (दे.) को, जो कुमारदेवी से जन्मा था, उत्तराधिकारी मनोनीत किया। इसने अपने बाहुबल से साम्राज्य का दूर-दूर तक विस्तार किया और शक्तिशाली गुप्त सम्राटों के वंश का सूत्रपात किया, जिन्होंने पाँचवीं शताब्दी के अंत तक मगध पर शासन किया।
चन्द्रगुप्त द्वितीय
गुप्त वंश का तीसरा सम्राट् और समुद्रगुप्त (दे.) का पुत्र व उत्तराधिकारी। इसका शासनकाल सम्भवतः ३७५ ई. से ४१३ ई. तक रहा। उसने मालवा, गुजरात और काठियावाड़ पर विजय प्राप्त की, उज्जयिनी के शक क्षत्रपों का उच्छेदन किया और उनका राज्य गुप्त साम्राज्य में मिला लिया। अपनी महान् विजयों के उपलक्ष्य में उसने विक्रमादित्य (दे.) की उपाधि धारण की। शायद यह वही विक्रमादित्य है, जिसकी न्याय-नीति, उदारता और शौर्य-पराक्रम के बारे में न जाने कितनी किंवदंतियाँ प्रचलित हैं। इतना स्पष्ट है कि चन्द्रगुप्त द्वितीय बहुत प्रतापी और शक्तिशाली सम्राट् था। उसके शासनकाल में कला, स्थापत्य और मूर्ति रचना का उल्लेखनीय विकास हुआ और भारत का सांस्कृतिक विकास तो अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गया। कालिदास जैसा संस्कृत का उद्भट महाकवि और नाटककार (अभिज्ञानशाकुन्तलम् का लेखक) चन्द्रगुप्त द्वितीय के ही दरबार में था। उसके ही शासनकाल में चीनी यात्री फाह्यान भारत आया और छः वर्षों (४०५-११) तक उसके राज्य में रहा। फाह्यान यद्यपि सम्राट् चंद्रगुप्त के दरबार में कभी गया नहीं, तथापि उसने तत्कालीन भारत की बहुत सुंदर तस्वीर पेश की है। उसने अपने यात्रा-विवरणों में लिखा है कि उस समय देश का शासन अत्यन्त सुव्यवस्थित था, लोग शान्तिपूर्ण और समृद्धिशाली जीवन बिता रहे थे। सम्राट् चंद्रगुप्त आमतौर से अयोध्या या कौशाम्बी में रहता था, फिर भी पाटलिपुत्र की ख्याति महत्त्वपूर्ण नगर के रूप में बनी हुई थी। फाह्यान को इस नगर के वैभव और सुख-सम्पन्नता ने अत्यन्त प्रभावित किया। चंद्रगुप्त ने धर्मार्थ औषधालयों और यात्रियों के लिए निःशुल्क विश्रामशालाओं का निर्माण कराया। वह अपने पूर्वजों की ही तरह धर्मनिष्ठ हिन्दू और विष्णु का उपासक था, लेकिन उसने बौद्ध और जैन धर्मों को भी प्रश्रय दिया।
चन्द्रगुप्त मौर्य
मौर्यवंश का संस्थापक। उसके माता-पिता के नाम ठीक-ठीक ज्ञात नहीं हैं। पुराणों के अनुसार वह मगध के राजा नन्द का उपपुत्र था, जिसका जन्म मुरा नामक शूद्रा दासी से हुआ था। बौद्ध और जैन सूत्रों से पता चलता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य का जन्म पिप्पलिवन के मोरिय क्षत्रिय कुल में हुआ था। जो भी हो, चन्द्रगुप्त प्रारंभ से ही बहुत साहसी व्यक्ति था। जब वह किशोर ही था, उसने पंजाब में पड़ाव डाले हुए यवन (यूनानी) विजेता सिकंदर से भेंट की। उसने अपनी स्पष्टवादिता से सिकंदर को नाराज कर दिया। सिकंदर ने उसे बंदी बना लेने का आदेश दिया, लेकिन वह अपने शौर्य का प्रदर्शन करता हुआ सिकंदर के शिकंजे से भाग निकला और कहा जाता है कि इसके बाद ही उसकी भेंट तक्षशिला के एक आचार्य चाणक्य या कौटिल्य से हुई। चाणक्य ने चंद्रगुप्त को सुदृढ़ सेना गठित करने और नंदवंश के अन्तिम शासक को उच्छिन्न कर मगध में अपना शासन स्थापित करने में धन की सहायता दी। इस बीच सिकंदर भारत से लौट गया था और उसकी मृत्यु भी हो चुकी थी। इस स्थिति का लाभ उठाकर चंद्रगुप्त ने पंजाब से यूनानी शासन का उच्छेदन कर दिया। इन घटनाओं की निश्चित तिथियां अभी तक निर्धारित नहीं की जा सकी हैं, लेकिन ऐसा अनुमान है कि वे ईसापूर्व ३२४ और ३२१ के बीच घटी होंगी। चंद्रगुप्त के पास विशाल सेना थी, जिसमें ३० हजार घुड़सवार, ९ हजार हाथी, ६ लाख पैदल और भारी संख्या में रथ शामिल थे। इस विशाल वाहिनी के बलपर उसने संपूर्ण आर्यावर्त (उत्तरी भारत) पर अपनी विजय-पताका फहरायी। मालवा, गुजरात और सौराष्ट्र पर विजय प्राप्त कर उसने नर्मदा तक साम्राज्य का विस्तार किया। ईसा-पूर्व ३०५ में यूनानी सेनापति सेल्यूकस ने, जो सिकंदर की मृत्यु के बाद पूर्वी यूनानी साम्राज्य का अधिष्ठाता बन बैठा था, चंद्रगुप्त की शक्ति को चुनौती दी। भारत और यूनानी सम्राटों में जमकर लड़ाई हुई। यद्यपि इस युद्ध के बारे में विस्तार से कुछ पता नहीं है, फिर भी इतना निश्चित है कि इसमें सेल्यूकस की हार हुई और उसे अपमानजनक संधि करने को बाध्य होना पड़ा, जिसके अंतर्गत उसने चंद्रगुप्त मौर्य को काबुल, हेरात, कन्धार और बलुचिस्तान के प्रदेश समर्पित कर दिये और अपनी पुत्री हेलना का उससे विवाह कर दिया। चंद्रगुप्त मौर्य ने सेल्यूकस को उपहार में सिर्फ ५०० हाथी दिये। इस प्रकार चंद्रगुप्त मौर्य अपने साम्राज्य का विस्तार उत्तर-पश्चिम में हिंदुकुश की पहाड़ियों तक करके उसे वहाँ तक पहुँचा दिया जिसे भारत की वैज्ञानिक सीमा कहा जाता है। इतिहासकारों के मतानुसार यह संधि ईसा-पूर्व ३०३ में हुई होगी। यह संधि चंद्रगुप्त मौर्य की सबसे बड़ी उपलब्धि थी। चंद्रगुप्त अठारह वर्षों के अल्पकाल में न केवल मगध के राजसिंहासन पर बैठा वरन् उसने पंजाब और सिंध से यूनानी फौजों को खदेड़ दिया, सेल्यूकस का दर्प चूर कर दिया और समग्र उत्तर भारत में अपना एकछत्र साम्राज्य स्थापित कर लिया। इन्हीं उपलब्धियों के कारण चंद्रगुप्त की गणना भारतीय इतिहास के महान् और सर्वाधिक सफल सम्राटों में होती है। इस बीच सिकंदर भारत से लौट गया था और उसकी मृत्यु भी हो चुकी थी। इस स्थिति का लाभ उठाकर चंद्रगुप्त ने पंजाब से यूनानी शासन का उच्छेदन कर दिया। इन घटनाओं की निश्चित तिथियां अभी तक निर्धारित नहीं की जा सकी हैं, लेकिन ऐसा अनुमान है कि वे ईसापूर्व ३२४ और ३२१ के बीच घटी होंगी। चंद्रगुप्त के पास विशाल सेना थी, जिसमें ३० हजार घुड़सवार, ९ हजार हाथी, ६ लाख पैदल और भारी संख्या में रथ शामिल थे। इस विशाल वाहिनी के बलपर उसने संपूर्ण आर्यावर्त (उत्तरी भारत) पर अपनी विजय-पताका फहरायी। मालवा, गुजरात और सौराष्ट्र पर विजय प्राप्त कर उसने नर्मदा तक साम्राज्य का विस्तार किया। ईसा-पूर्व ३०५ में यूनानी सेनापति सेल्यूकस ने, जो सिकंदर की मृत्यु के बाद पूर्वी यूनानी साम्राज्य का अधिष्ठाता बन बैठा था, चंद्रगुप्त की शक्ति को चुनौती दी। भारत और यूनानी सम्राटों में जमकर लड़ाई हुई। यद्यपि इस युद्ध के बारे में विस्तार से कुछ पता नहीं है, फिर भी इतना निश्चित है कि इसमें सेल्यूकस की हार हुई और उसे अपमानजनक संधि करने को बाध्य होना पड़ा, जिसके अंतर्गत उसने चंद्रगुप्त मौर्य को काबुल, हेरात, कन्धार और बलुचिस्तान के प्रदेश समर्पित कर दिये और अपनी पुत्री हेलना का उससे विवाह कर दिया। चंद्रगुप्त मौर्य ने सेल्यूकस को उपहार में सिर्फ ५०० हाथी दिये। इस प्रकार चंद्रगुप्त मौर्य अपने साम्राज्य का विस्तार उत्तर-पश्चिम में हिंदुकुश की पहाड़ियों तक करके उसे वहाँ तक पहुँचा दिया जिसे भारत की वैज्ञानिक सीमा कहा जाता है। इतिहासकारों के मतानुसार यह संधि ईसा-पूर्व ३०३ में हुई होगी। यह संधि चंद्रगुप्त मौर्य की सबसे बड़ी उपलब्धि थी। चंद्रगुप्त अठारह वर्षों के अल्पकाल में न केवल मगध के राजसिंहासन पर बैठा वरन् उसने पंजाब और सिंध से यूनानी फौजों को खदेड़ दिया, सेल्यूकस का दर्प चूर कर दिया और समग्र उत्तर भारत में अपना एकछत्र साम्राज्य स्थापित कर लिया। इन्हीं उपलब्धियों के कारण चंद्रगुप्त की गणना भारतीय इतिहास के महान् और सर्वाधिक सफल सम्राटों में होती है।
चन्द्रगुप्त के दरबार में मेगस्थनीज (दे.) नामक एक यूनानी राजदूत भेजा गया था। उसके द्वारा लिखी गयी पुस्तक 'इंडिका' (दे.) तथा चाणक्य या कौटिल्य के अर्थशास्त्र से चन्द्रगुप्त की उस शासन-प्रणाली के बारे में पता चलता है, जिसके बलपर विशाल साम्राज्य को एकसूत्र में बाँधकर चौबीस वर्षों (ईसा-पूर्व ३२२ से ३६८) तक सफलतापूर्वक शासन करता रहा। पाटलिपुत्र में चंद्रगुप्त का महल, जो मेगस्थनीज के अनुसार ऐश्वर्य और वैभव में सूसा और इक्बताना के महलों की भी मात करता था, अब नहीं है। स्वयं पाटलिपुत्र नगर भी, जो गंगा और सोन नदियों के संगम पर आधुनिक दीनापुर के निकट बसा हुआ था, अब इन नदियों की रेत के नीचे दबा पड़ा है। लेकिन उसके यशस्वी निर्माता की कीर्ति अजर अमर है। (स्मिथ, अध्याय ४; राय चौधरी, अध्याय ४ तथा मैकक्रिनिल कृत 'एन्शियेन्ट इंडिया')
चन्द्रदेव
ग्यारहवीं शताब्दी के आखिरी दशक में इसने गाहड़वाल वंश की स्थापना की और कन्नौज को राजधानी बनाया। उसके वंश ने तेरहवीं शताब्दी के आरंभ तक राज्य किया।
चन्द्रनगर
बंगाल का वह स्थान, जहाँ फ्रेंच ईस्ट इंडिया कम्पनी ने व्यापारिक केन्द्र की स्थापना की। फ्रांसीसियों को यह स्थान १६७४ ई. में नवाब शायस्ता खाँ ने दिया था और कारखाने का निर्माण १६९०-९२ ई. में हुआ। १७५७ ई. में क्लाइव और वाटसन के नेतृत्व में अंग्रेजों ने इस नगर पर कब्जा कर लिया। छः वर्ष बाद १७६३ ई. में चन्द्रनगर फ्रांसीसियों को इस हिदायत के साथ फिर लौटा दिया गया कि व्यापारिक केन्द्र के अलावा किसी और रूप में इसका विकास न हो। चन्द्रनगर १९५० ई. में भारतीय गणतंत्र की स्थापना तक फ्रांसीसियों के अधिकार में रहा। इसके बाद इसका विलय भारतीय गणतंत्र में हो गया।
चन्द्र, राजा
मेहरौली लौह-स्तम्भ के अभिलेखों में इसका वर्णन हुआ है। कहा जाता है कि उसने एक तरफ तो बंगाल में अपने शत्रुओं को परास्त किया और दूसरी तरफ सिंध के मुहाने पर बाह्लीकों पर विजय प्राप्त की। इस राजा की पहचान निश्चित रूप से नहीं की जा सकी है। सुसुनिया अभिलेख में भी चन्द्र नामक राजा का उल्लेख है। (राय चौधरी, पृ. ५३५ नोट)
चन्द्र वर्मा
इस नाम के दो राजा हुए हैं। एक का वर्णन महाकाव्यों में कम्बोज नरेश के रूप में हुआ है और दूसरे का उल्लेख समुद्रगुप्त के प्रयाग-अभिलेख में मिलता है। इस अभलेख के अनुसार समुद्रगुप्त ने उत्तरी भारत के जिन राजाओं को पराजित और अपदस्थ किया, उनमें एक राजा चन्द्रवर्मा भी था। सुमुनिया अभिलेख में इस नाम के जिस राजा का उल्लेख है, वह पश्चिमी बंगाल के बाँकुड़ा जिले में दामोदर नदी के तट पर स्थित 'पुष्करण' का शासक था। (राय-चौधरी, पृ. ५३४-५४)
चन्द्रसेन जादव
धनाजी यादव का पुत्र और मराठा राजा साहु का प्रधान सेनापति। चन्द्रसेन का अधीनस्थ सेना संचालक बालाजी विश्वनाथ था। बाद को बालाजी की बढ़ती हुई शक्ति के आगे चन्द्रसेन की शक्ति क्षीण हो गयी और १७१३ ई. में बालाजी पेशवा बन गया।