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Bharatiya Itihas Kosh

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गुलबदन बेगम
प्रथम मुगल बादशाह बाबर की पुत्री। वह प्रतिभाशाली महिला थी, जिसने अपने भाई बादशाह हुमायूं (१५३०-५६) के जमाने का विवरण इकट्ठा कर 'हुमायूंनामा' नामक पुस्तक लिखी है। इस पुस्तक में उस जमाने के भारत की आर्थिक दशा का महत्त्वपूर्ण विवरण प्राप्त होता है।

गुलबर्ग (अथवा कुलबर्ग)
दक्षिण के बहमनी वंश के संस्थापक सुल्तान अलाउद्दीन ने इसे १३४७ ई. में अपनी राजधानी बनाया। उसने इसका नाम एहसानाबाद रखा। १४२५ ई. तक यह इस राज्य की राजधानी रहा, जबकि ९वें सुल्तान (१४२२-३६) ने इसे त्याग कर बीदर को राजधानी बनाया। बहमनी सुल्तानों और उनके दरबारियों ने गुलबर्ग में बहुत इमारतें बनवायी थीं। लेकिन ये इमारतें इतनी बड़ी और कमजोर थीं कि अब उनके ध्वंसावशेष ही देखे जा सकते हैं।

गुलाबसिंह, कश्मीर का महाराज
पंजाब के सिख शासक महाराज रणजीत सिंह (दे.) के यहाँ आरम्भ में घुड़सवार की हैसियतसे नियुक्त। गुलाबसिंह की सेवाओं से प्रसन्न होकर रणजीत सिंह ने उसे जम्मू की जागीर दे दी, जिससे गुलाबसिंह ने अपना प्रभुत्व लद्दाख तक बढ़ा लिया। १८३९ ई. में महाराज रणजीत सिंह की मृत्यु हो गयी, तब खालसा (दे.) ने गुलाबसिंह को भी एक मंत्री चुना। १८४६ ई. में अंग्रेजों और सिखों में सुबदाहान का युद्ध (दे.) हुआ। गुलाबसिंह ने चतुराई से विजयी अंग्रेजों और सिखों के बीच लाहौर की संधि (१८४६) करा दी, जिसके अनुसार सिखों ने कश्मीर और संलग्न इलाका अंग्रेजों को सौंप दिया। बाद में अंग्रेजों ने कश्मीर और संलग्न इलाके को एक लाख पौंड के बदले गुलाबसिंह के हाथ बेच दिया और उसे वहाँ का राजा स्वीकार कर लिया। गुलाबसिंह ने कश्मीर में डोगरा वंश के राज्य की स्थापना की। गुलाबसिंह और अंग्रेजों के बीच बहुत अच्छे सम्बन्ध रहे। उसकी मृत्यु १८५७ ई. में हुई। डोगरा वंश का शासन १९४८ ई. तक रहा। इसके बाद यह राज्य भारत में विलीन हो गया।

गुलाम कादिर
रुहेला सरदार नजीबुद्दौला (दे.) का पौत्र, जो १७६१ से १७७० ई. तक अहमदशाह अब्दाली की सदारत में रहा तथा बाद में मुगल बादशाह शाहआलम द्वितीय (१७५९-१८०६) के सहायक की हैसियत से व्यवहारतः दिल्ली पर शासन करता रहा। १७८७ ई. में कादिर ने लूटपाट करने की गरज से फिर दिल्ली पर कब्जा किया, लेकिन इसके पूर्व अब्दाली की लूटमार से शाही खजाना खाली हो चुका था, अतएव कादिर को कुछ भी नहीं प्राप्त हुआ। इसी निराशा से खीझकर उसने शाहआलम को अंधा बना दिया। महादजी शिन्दे ने कादिर को पराजित कर मार डाला। इसके बाद वह व्यवहारतः मुगल बादशाह का संरक्षक बन गया।

गुलाम वंश
दिल्ली में कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा १२०६ ई. में स्थापित। यह वंश १२९० ई. तक शासन करता रहा। इसका नाम 'गुलाम वंश' इस कारण पड़ा कि इसका संस्थापक और उसके इल्तुतमिश और बलबन जैसे महान् उत्तराधिकारी प्रारम्भ में गुलाम अथवा दास थे और बाद में वे दिल्ली का सिंहासन प्राप्त करने में समर्थ हुए। कुतुबुद्दीन (१२०६-१० ई.) मूलतः शहाबुद्दीन मोहम्मद गोरी का तुर्क दास था और ११९२ ई. के तराइन के युद्ध में विजय प्राप्त करने में उसने अपने स्वामी की विशेष सहायता की। उसने अपना स्वामी की ओर से दिल्ली पर अधिकार कर लिया और मुसलमानों की सल्तनत पश्चिम में गुजरात तथा पूर्व में बिहार और बंगाल तक, १२०६ ई. में गोरी की मृत्यु के पूर्व ही, विस्तृत कर दी। शहाबुद्दीन ने १२०३ ई. में उसे दासता से मुक्त कर सुल्तान की उपाधि से विभूषित किया। इस प्रकार स्वभावतः वह अपने स्वामी के भारतीय साम्राज्य का उत्तराधिकारी और दिल्ली के गुलाम वंश का संस्थापक बन गया। उसने १२१० ई. में अपनी मृत्यु के समय तक राज्य किया। उसका पुत्र और उत्तराधिकारी आरामशाह था, जिसने केवल एक वर्ष राज्य किया और बाद में १२११ ई. में उसके बहनोई इल्तुतमिश ने उसे सिंहासन से हटा दिया। इल्तुतमिश भी कुशल प्रशासक था और उसने १२३६ ई. में अपनी मृत्यु तक राज्य किया। उसका उत्तराधिकारी, उका पुत्र रुक्नुद्दीन था, जो घोर निकम्मा तथा दुराचारी था और उसे केवल कुछ महीनों के शासन के उपरान्त गद्दी से उतारकर उसकी बहिन रजिय्यतउद्दीन, उपनाम रजिया सुल्ताना को १२३७ ई. में सिंहासनासीन किया गया। रजिया कुशल शासक सिद्ध हुई, किन्तु स्त्री होना ही उसके विरोध का कारण हुआ और ३ वर्षों के शासन के उपरान्त १२४० ई. में उसे गद्दी से उतार दिया गया। उसका भाई बहराम उसका उत्तराधिकारी हुआ और उसने १२४२ ई. तक राज्य किया, जब उसकी हत्या कर दी गयी। उसके उपरान्त इल्तुतमिश का पौत्र मसूद शाह उत्तराधिकारी हुआ, किन्तु वह इतना विलासप्रिय और अत्याचारी शासक सिद्ध हुआ कि १२४६ ई. में उसे गद्दी से उतारकर इल्तुतमिश के अन्य पुत्र नासिरुद्दीन को शासक बनाया गया। सुल्तान नासिरुद्दीन में विलासप्रियता आदि दुर्गुण न थे। वह शांत स्वभाव का और विद्याप्रेमी व्यक्ति था। साथ ही उसे बलबन सरीखे कर्त्तव्यनिष्ठ एक ऐसे व्यक्ति का सहयोग प्राप्त था, जो इल्तुतमिश के प्रथम चालीस गुलामों में से एक और सुल्तान का श्वसुर भी था। उसने २० वर्षों तक (१२४६-१२६६ ई.) शासन किया। उसके उपरांत उसका श्वसुर बलबन सिंहासनासीन हुआ, जो बड़ा ही कठोर शासक था। उसने इल्तुतमिश के काल से होनेवाले मंगोल आक्रमणों से देश को मुक्त किया, सभी हिन्दू और मुस्लिम विद्रोहों का दमन किया और दरबार तथा समस्त राज्य में शान्ति और सुव्यवस्था स्थापित की। उसने बंगाल के तुरारिल खाँ (दे.) के विद्रोह का दमन करके १२८६ ई. अथवा अपनी मृत्युपर्यंत राज्य किया। इसके एक वर्ष पूर्व ही उlके प्रिय पुत्र शाहजादा मुहम्मद की मृत्यु पंजाब में मंगोल आक्रामकों के युद्ध के बीच हो चुकी थी। उसके द्वितीय पुत्र बुगरा खाँ ने, जिसे उसने बंगाल का सूबेदार नियुक्त किया था, दिल्ली आकर अपने पिता के शासनभार को सँभालना अस्वीकार कर दिया। ऐसी परिस्थिति में बुगरा खाँ के पुत्र कैकोबाद (दे.) को १२८६ ई. में सुल्तान घोषित किया गया। किन्तु वह इतना शराबी निकला कि दरबार के अमीरों ने उसके विरुद्ध विद्रोह कर दिया और १२९० ई. में उसका कर डाला। इस प्रकार गुलाम वंश का दुःखमय अन्त हुआ। गुलाम वंश के शासकों ने प्रजा के हितों पर अधिक ध्यान न दिया और प्रशासन की अपेक्षा भोग-विलासों में ही उनका अधिक झुकाव रहा। फिर भी वास्तुकला के क्षेत्र में उनकी कुछ उल्लेखनीय कृतियाँ शेष हैं, जिनमें कुतुबमीनार (दे.) अपनी भव्यता के कारण दर्शनीय है। इस वंश के शासकों ने मिनहाजुद्दीन सिराज और अमीर खुसरो जैसे विद्वानों को संरक्षण प्रदान किया। मिनहाजुद्दीन सिराज ने 'तबकाते नासिरी' (दे.) नामक ग्रन्थ की रचना की है।रजिया कुशल शासक सिद्ध हुई, किन्तु स्त्री होना ही उसके विरोध का कारण हुआ और ३ वर्षों के शासन के उपरान्त १२४० ई. में उसे गद्दी से उतार दिया गया। उसका भाई बहराम उसका उत्तराधिकारी हुआ और उसने १२४२ ई. तक राज्य किया, जब उसकी हत्या कर दी गयी। उसके उपरान्त इल्तुतमिश का पौत्र मसूद शाह उत्तराधिकारी हुआ, किन्तु वह इतना विलासप्रिय और अत्याचारी शासक सिद्ध हुआ कि १२४६ ई. में उसे गद्दी से उतारकर इल्तुतमिश के अन्य पुत्र नासिरुद्दीन को शासक बनाया गया। सुल्तान नासिरुद्दीन में विलासप्रियता आदि दुर्गुण न थे। वह शांत स्वभाव का और विद्याप्रेमी व्यक्ति था। साथ ही उसे बलबन सरीखे कर्त्तव्यनिष्ठ एक ऐसे व्यक्ति का सहयोग प्राप्त था, जो इल्तुतमिश के प्रथम चालीस गुलामों में से एक और सुल्तान का श्वसुर भी था। उसने २० वर्षों तक (१२४६-१२६६ ई.) शासन किया। उसके उपरांत उसका श्वसुर बलबन सिंहासनासीन हुआ, जो बड़ा ही कठोर शासक था। उसने इल्तुतमिश के काल से होनेवाले मंगोल आक्रमणों से देश को मुक्त किया, सभी हिन्दू और मुस्लिम विद्रोहों का दमन किया और दरबार तथा समस्त राज्य में शान्ति और सुव्यवस्था स्थापित की। उसने बंगाल के तुरारिल खाँ (दे.) के विद्रोह का दमन करके १२८६ ई. अथवा अपनी मृत्युपर्यंत राज्य किया। इसके एक वर्ष पूर्व ही उlके प्रिय पुत्र शाहजादा मुहम्मद की मृत्यु पंजाब में मंगोल आक्रामकों के युद्ध के बीच हो चुकी थी। उसके द्वितीय पुत्र बुगरा खाँ ने, जिसे उसने बंगाल का सूबेदार नियुक्त किया था, दिल्ली आकर अपने पिता के शासनभार को सँभालना अस्वीकार कर दिया। ऐसी परिस्थिति में बुगरा खाँ के पुत्र कैकोबाद (दे.) को १२८६ ई. में सुल्तान घोषित किया गया। किन्तु वह इतना शराबी निकला कि दरबार के अमीरों ने उसके विरुद्ध विद्रोह कर दिया और १२९० ई. में उसका कर डाला। इस प्रकार गुलाम वंश का दुःखमय अन्त हुआ। गुलाम वंश के शासकों ने प्रजा के हितों पर अधिक ध्यान न दिया और प्रशासन की अपेक्षा भोग-विलासों में ही उनका अधिक झुकाव रहा। फिर भी वास्तुकला के क्षेत्र में उनकी कुछ उल्लेखनीय कृतियाँ शेष हैं, जिनमें कुतुबमीनार (दे.) अपनी भव्यता के कारण दर्शनीय है। इस वंश के शासकों ने मिनहाजुद्दीन सिराज और अमीर खुसरो जैसे विद्वानों को संरक्षण प्रदान किया। मिनहाजुद्दीन सिराज ने 'तबकाते नासिरी' (दे.) नामक ग्रन्थ की रचना की है।

गुलाम हुसेतखाँ तबत खाँ, सैयद
१८वीं शताब्दी का प्रसिद्ध इतिहासकार। वह बंगाल के नवाब अलीवर्दी खाँ (दे.) का चचेरा भाई लगता था। वह मुगल बादशाह का मीरमुंशी और बंगाल के नवाब के यहाँ नियुक्त था। बाद में उसने कलकत्ता में नवाब मीर कासिम (दे.) का प्रतिनिधित्व किया। मीर कासिम के पतन के पश्चात् उसने ईस्ट इंडिया कम्पनी में नौकरी कर ली। वह उच्चकोटि का इतिहासकार था। उसकी पुस्तक 'सियारुल मुतखरीन' में मुगल वंश के पतन तथा पिछले सात मुगल बादशाहों के शासनकाल के संबंध में आधिकारिक तथा विश्वस्त विवरण मिलता है।

गुहा वास्तु
भारतीय प्राचीन वास्तुकला का एक बहुत ही सुन्दर नमूना। अशोक के शासनकाल से गुहाओं का उपयोग आवास के रूप में होने लगा। गया के निकट बराबर (दे.) पहाड़ी पर ऐसी अनेक गुफाएँ विद्यमान हैं, जिन्हें सम्राट् अशोक ने आवास-योग्य बनाकर आजीवकों को दे दिया था। अशोककालीन गुहाएँ सादे कमरों के रूप में होती थीं, लेकिन बाद में उन्हें आवास एवं उपासनागृह के रूप में स्तम्भों एवं मूर्तियों से अलंकृत किया जाने लगा। यह कार्य विशेष रूप से बौद्धों द्वारा किया गया। भारत के विभिन्न भागों में सैकड़ों गुहाएँ बिखरी पड़ी हैं। इनमें जो गुहाएँ बौद्ध बिहारों के रूप में प्रयुक्त होती थीं, वे सादी होती थीं। उनके बीचोबीच एक विशाल मंडप तथा किनारे-किनारे छोटी-छोटी कोठरियाँ होती थीं। पूजा के लिए प्रयुक्त गुहाएँ 'चैत्यशाला' कहलाती थीं, जो सुन्दर कलाकृतियाँ होती थीं। चैत्य में एक लम्बा आयताकार मंडप होता था, जिसका अंतिम भाग गजपृष्ठाकार होता था। स्तम्भों की दो लम्बी पंक्तियाँ इस मंडप को मुख्यकक्षा और दो पार्श्व बीथिकाओं में विभक्त कर देती थीं। गजपृष्ठ में एक स्तूप होता था। द्वारमुख खूब अलंकृत होता था। उसमें तीन दरवाजे होते थे। बीच का द्वार मध्यवर्ती कक्ष में प्रवेश के लिए तथा अन्य दो द्वार पार्श्वबीथियों के लिए होते थे। चैत्य के ठीक सामने द्वारमुख के ऊपर अश्वपादत्र (घोड़े की नाल) के आकार का चैत्यगवाक्ष होता था। ऐसी अनेक गुहाएँ महाराष्ट्र के नासिक, भाजा, भिलसा, कार्ले और अन्य स्थानों पर पायी गयी हैं। कार्ले की गुहाएँ सर्वोत्कृष्ट मानी जाती हैं। इनका निर्माण ईसापूर्व २०० से ईसा बाद २३० की अवधि में हुआ था। (स्मिथ कृत 'हिस्ट्री आफ फाइन आर्ट इन इंडिया एण्ड सीलोन')।

गूजर
गुर्जर लोगों की एक शाखा। ऐसा विश्वास किया जाता है कि शकों और हूणों के साथ जो और विदेशी आये थे, वे यहाँ बस गये और उन्हें हिन्दू बना लिया गया।

गृहवर्मा मौखरि
कन्नौज के मौखरि राजा अवन्तिवर्मा का पुत्र। वह छठीं शताब्दी ईसवी के अन्त में गद्दी पर बैठा और उसने थानेश्वर के राजा प्रभाकरवर्धन की पुत्री राज्यश्री से विवाह किया। किन्तु ६०५ ई. में मालवा के राजा ने (जो कदाचित् देवगुप्त था) कन्नौज पर हमला कर दिया और गृहवर्मा को पराजित कर मार डाला। राज्यश्री को कन्नौज में ही कैद में डाल दिया गया। इस प्रकार मौखरि वंश का अंत हो गया।

गैरवाज
एक तकनीकी शब्द, जो सुल्तान फीरोजशाह तुगलक (१३५१-८८ ई.) की सेना में अनियमित सिपाहियों के लिए प्रयुक्त होता था। इन लोगों को सीधे शाही खजाने से वेतन मिलता था।


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