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Bharatiya Itihas Kosh

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गिरनार
काठियावाड़ प्रायद्वीप में जूनागढ़ के निकट स्थित पर्वत। यहाँ एक चट्टान पर मौर्य सम्राट् अशोक (लगभग २७३ ई.पू. से २३२ ई. पू.) का चतुर्दश शिलालेख अंकित है। उसी चट्टान के दूसरी ओर शक क्षत्रप रुद्रदमन (लगभग १५० ई.) का अभिलेख है, जिसमें प्रथम मौर्य सम्राट् चन्द्रगुप्त (लगभग ३२२ ई. पू. से २९८ ई. पू.) के आदेश से वहाँ पर सुदर्शन झील के निर्माण का उल्लेख है। इन दोनों महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक अभिलेखों के अलावा गिरनार में अनेक भव्य मंदिर बने हुए हैं, जिन्हें गुजरात के चालुक्य राजाओं ने बनवाया था। (बर्गेस. खंड २ तथा ह. हं. खंड ८, पृ. ३६)

गिरमिट प्रथा
मजदूरों की भरती के लिए उन्नीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक में आरम्भ की गयी। इस प्रथा के अंतर्गत भारतीय मजदूरों से किसी बगीचे पर एक निर्धारित अवधि तक (प्राय: पांच से सात साल) काम करने के लिए 'एग्रीमेंट' (जिसे बोलचाल की भाषा में 'गिरमिट' कहा जाता था, इसी से इस प्रथा को 'गिरमिट' प्रथा कहने लगे ) कराया जाता था। 'गिरमिट' से मुक्त होने पर मजदूर को छूट रहती थी कि वह या तो भारत लौट जाय या स्वतंत्र मजदूर की हैसियत से वहीं उपनिवेश में बस जाय। यदि वह स्वदेश वापस लौटना चाहता था तो उसे किराया दिया जाता था। 'गिरमिट' की यह सामान्य प्रथा कहीं-कहीं कुछ परिवर्तित रूप में भी प्रचलित थी। भारतीय मजदूर अनपढ़ और असंगठित होते थे। उन्हें रोजी की तलाश थी, इसलिए न्यायान्याय के विचार से शून्य धनी ठेकेदार बहुधा मजदूरों से मनमानी शर्तें भी करा लेते थे। गिरमिट प्रथा के अंतर्गत बहुसंख्यक भारतीय मजदूर हिन्द महासागर में स्थित मारीशस, प्रशांत महासागर में स्थित फिजी, मलय प्रायद्वीप तथा द्वीपपुंज, श्रीलंका, केनिया, टांगानायका, उगांडा, दक्षिण अफ्रीका, ट्रिनिडाड, जमायका और ब्रिटिश गायना गये और इनमें से बहुतेरों ने 'गिरमिट' -मुक्त होने पर उसी स्थान पर बस जाना पसंद किया। वे वहां पर या तो स्वतंत्र मजदूर बनकर या छोटे-मोटे व्यापारी बनकर जीविका कमाने लगे। इस तरह उपर्युक्त ब्रिटिश उपनिवेशों में प्रवासी भारतीयों की काफी बड़ी संख्या हो गयी। प्रवासी भारतीयों की संख्या जब बढ़ी और वे समुद्ध होने लगे तो उन उपनिवेशों में रहनेवाले गोरे उनसे ईर्ष्या करने लगे और उनके विरोधी बन गये। गोरों ने इस बात को भुला दिया कि इन प्रवासी भारतीयों के पुरखों को उन्हीं लोगों ने अपने देश में आमंत्रित किया था और गिरमिटिया मजदूरों की सेवाओं से भारी लाभ उठाया था। उन्होंने उन उपनिवेशों की समृद्धि में उतना ही योगदान दिया था, जितना वहां के गोरे निवासियों ने। अब चूंकि वे गोरों की गुलामी नहीं करना चाहते थे तो उन्हें अवांछित व्यक्ति करार दिया जा रहा था। इस तरह गिरमिट प्रथा के कारण जातीय भेदभाव पर आधारित नयी समस्याएं उठ खड़ी हुईं, जिनका अभी तक समाधान नहीं हो सका है।

गिरिया
बिहार में राजमहल के निकट, जहां दो बार युद्ध हुए। पहला युद्ध १७४० ई. में बंगाल के नवाब अलीवर्दी खां (दे.) और उसके प्रतिद्वन्द्वी सरफराज खां के बीच हुआ, जिसमें सरफराज पराजित हुआ और मारा गया। अलीवर्दी खां इस विजय के बाद मसनद पर बैठा। गिरिया की दूसरी लड़ाई (१७६३) नवाब मीर कासिम (दे.) और ईस्ट इंडिया कम्पनी के बीच हुई। मीर कासिम पराजित हो गया तथा अन्य तीन युद्धों में हारकर पटना भाग गया। बंगाल की गद्दी उससे छिन गयी।

गिरिब्रज
पटना के समीप राजगिर नामक आधुनिक कसबे का प्राचीन नाम। इस नगर को सम्राट बिम्बसार (लगभग ५५० ई. पू.) ने बनवाकर इसका नाम राजगृह रखा और अपनी राजधानी बनाया। बाद में उसी का वंशज सम्राट् कालाशोक राजगृह से राजधानी हटाकर पाटलिपुत्र ले गया। महात्मा बुद्ध के निर्वाण के बाद राजगृह में ही प्रथम बौद्ध संगीति (धर्मसभा) ४८६ ई. पू. में हुई, जहाँ अभिधर्म और विनय पिटकों की रचना की गयी। गिरिब्रज अथवा राजगृह बहुत काल तक विभिन्न प्रकार से बौद्ध धर्म से संबंधित रहा। आजकल राजगिर गरम पानी के झरनों के कारण अच्छे स्वास्थ्य-केन्द्र के रूपमें भी प्रसिद्ध है।

गिलगिट
कश्मीर के उत्तर-पश्चिमी कोने में स्थित। घाटी में बहनेवाली नदी और वहाँ बसे हुए कसबे का नाम भी गिलगिट है, जो जिले का सदर मुकाम है। गिलगिट सिंधु नदी की सहायक नदी है। सामरिक दृष्टि से गिलगिट का बहुत महत्त्व है। यहाँ से चित्राल होकर अफगानिस्तान के लिए सीधा रास्ता है। कुछ दूरी तक रूस की सीमा भी इससे लगी हुई है। अतएव वाइसराय लार्ड लिटन प्रथम के समय ब्रिटिश सरकार ने गिलगिट घाटी पर सीधा नियंत्रण प्राप्त करने का प्रयत्न किया, जो कश्मीर के महाराज के शासन के अन्तर्गत थी। लार्ड लिटन ने महाराज से गुप्त समझौता किया जिसके अनुसार गिलगिट में एक ब्रिटिश एजेंट नियुक्त हुआ। १८८९ ई. में एक ब्रिटिश अफसर गिलगिट भेजा गया। ब्रिटिश सरकार की इस कार्रवाई से अफगानिस्तान का शासक अमीर अब्दुर्रहमान बहुत घबराया, उसकी दृष्टि में अफगानिस्तान के प्रति ब्रिटिश इरादे सच्चे नहीं थे। इस प्रकार भारत सरकार और अफगानिस्तान के बीच उस काल में गिलगिट विवाद का विषय हो गया था। आजकल वह पाकिस्तान द्वारा नियंत्रित गुलाम कश्मीर के शासन के अन्तर्गत है।

गिलजई
एक अफगान कबीला, जिसने १८४० ई. में अफगानिस्तान पर चढ़ाई करनेवाली ब्रिटिश सेना की दुर्बल स्थिति का फायदा उठाकर विद्रोह कर दिया। यद्यपि उन्हें तत्काल दबा दिया गया, तथापि १८४१ ई. में उनका विद्रोह फिर भड़क उठा। फलतः १८४१-४२ ई. में काबुल से जलालाबाद वापस आनेवाली ब्रिटिश फौज को भारी हानि उठानी पड़ी।

गीतगोविन्द
संस्कृत के मधुरतम गीतों की एक उत्कृष्ट रचना। बंगाल के राजा लक्ष्मणसेन (दे.) (लगभग ११७८-१२०३) के दरबारी कवि जयदेव ने इस गीतों की रचना की, जिनमें राधा और कृष्ण के अलौकिक प्रेम का वर्णन है।

गुजरात
पश्चिमी भारत का एक प्रदेश। गुजराती भाषा बोलनेवाले सम्पूर्ण क्षेत्र को 'गुजरात' कहा जाता है, जिसमें पुराने बम्बई सूबे के अहमदाबाद, भड़ौंच, पंचमहल, खैरा तथा सूरत जिले, भूतपूर्व बड़ौदा राज्य का क्षेत्र तथा सौराष्ट्र एवं कच्छ की रियासतें शामिल थीं। अन्य प्रदेशों की अपेक्षा गुजरात कम प्राचीन जान पड़ता है, क्योंकि अशोक अथवा रुद्रदामा के शिलालेखों में इसका विवरण नहीं मिलता। पाँचवीं शताब्दी ईसवी में जब हूणों ने भारत पर हमला किया, तब से यह नाम प्रचलित हुआ। यह नाम गुर्जर लोगों से उदभूत प्रतीत होता है। गुर्जर लोग विदेशी थे, जो पाँचवीं शताब्दी ईसवीं में पश्चिमोत्तर दिशा से भारत में अन्हिलवाड़ व भिन्नमाल आये और क्रमशः यहाँ बस गये। इसके बाद दो शताब्दियों में गुजरात राज्य बन गया, जिसमें राजपूताना का भी कुछ भाग सम्मिलित था। आरंभ में इसकी राजधानी अन्हिलवाड़ थी जो बाद में भिन्नमाल में स्थापित हुई। गुर्जर प्रतिहार (दे.) राजाओं के समय में गुजरात बहुत विख्यात हुआ। १०२४ ई. में महमूद गजनवी के आक्रमण से इस राज्य की शक्ति घटने लगी और इसकी प्रतिष्ठा नष्ट हो गयी। इसी आक्रमण में महमूद गजनवी ने सोमनाथ मंदिर लूटा था। फिर भी यह १२९७ ई. तक स्वतंत्र रहा जबकि अलाउद्दीन खिलजी ने इसे अपने अधिकार में कर लिया। १४०१ ई. में गुजरात का हाकिम जाफर खाँ अपने को स्वतंत्र घोषित कर नसीरुद्दीन मुहम्मदशाह के नाम से गुजरात का सुलतान बन गया। उसके वंश ने १५७२-७३ ई. तक शासन किया। नसीरुद्दीन मुहम्मद शाह के वंश में अहमदशाह (१४११-४१), महमूद वघर्रा (१४५९-१५११) तथा बहादुरशाह (१५२६-३७) प्रमुख शासक हुए। १५३७ ई. में पुर्तगालियों ने धोखा देकर बहादूरशाह को उस समय मार डाला, जब डयू नामक बंदरगाह में जहाज पर पुर्तगाली गवर्नर डी कुन्हा से मिलने के लिए वह गया था। बहादुरशाह की मृत्यु के बाद लगभग ४० वर्ष तक गुजरात में अराजकता की स्थिति रही, बाद में इस पर अकबर ने कब्जा कर लिया। औरंगजेब के मरने के बाद बाजीराव प्रथम (द्वितीय पेशवा ) (१७२०-४०) के जमाने में यह राज्य मराठों के अधिकार में आ गया, जिसे गायकवाड़ों को शासन के लिए दे दिया गया, जिन्होंने बड़ौदा को राजधानी बनाया। गायकवाड़ों का संबंध अंग्रेजों से भी अच्छा रहा और बसई की संधि (१८०२) (दे.) से उन्हें विशेष संरक्षण प्राप्त हुआ। तीसरे मराठा-युद्ध (१८१७-१८) में गुजरात अंग्रेजों के अधिकार में आ गया, जिसे बम्बई प्रान्त का अंग बना दिया गया। भारत के आज़ाद होने के बाद राज्यों का पुनर्गठन होने पर गुजरात बम्बई से अलग कर दिया गया और उसकी राजधानी अहमदाबाद बनायी गयी। गुजरात में हिन्दू और मुसलमान राजाओं द्वारा बनवायी गयी इमारतें वास्तुशिल्प की सुन्दर कृतियां हैं। राजधानी अहमदाबाद बहुत साफ सुथरा नगर माना जाता है और भारतीय सूती वस्त्र उद्योग का केन्द्र है। ( के. एम. मुंशी कृत 'ग्लोरी दैट वाज़ गुजरात' )

गुजरात की लड़ाई
पंजाब में १८४९ ई. में अंग्रेजों और सिखों के बीच दूसरे सिख-युद्ध (१८४८-४९ ई.) के दौरान हुई। इस लड़ाई में दोनों ओर से मुख्यतः तोपों का इतना अधिक प्रयोग हुआ कि इसे तोपों की लड़ाई कहा जाता है। अंग्रेज सेनापति लार्ड गफ ने रणभूमि का सावधानी से निरीक्षण करने के बाद सिखों की तोपों पर गोले बरसा कर उनका मुंह बंद कर दिया। इसके बाद अंग्रेजों की पैदल सेना ने सिख सेना पर हमला किया और उसमें भगदड़ मचा दी। अंग्रेजों ने सिख सेना का दूर तक पीछा करके उसके ऊपर निर्णयात्मक विजय प्राप्त की। इस लड़ाई ने एक प्रकार से दूसरे सिख-युद्ध का भाग्यनिर्णय कर दिया।

गुणवर्मा
कश्मीर का एक राजकुमार जो बौद्ध भिक्षु हो गया और अपना जीवन सुदूरपूर्व के देशों में धर्मप्रचार में बिताया। वह पहले लंका, फिर जावा और अंत में चीन पहुँचा। चीनी वृत्तांत के अनुसार उसने जावा के लोगों को बौद्ध बनाया। ४३१ ई. में नानकिंग (चीन) में उसका देहांत हुआ।


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